चित्रकाव्य
चित्रकाव्य
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4 |
पृष्ठ संख्या | 220 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | रामप्रसाद त्रिपाठी |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | करुणपति त्रिपाठी |
चित्रकाव्य 'ध्वन्यालोक' में जिसे 'चित्रकाव्य' कहा है, वही 'काव्यप्रकाश' का अवरकाव्य (अधम काव्य दे. 'काव्य') है। स्फुट (स्पष्ट) व्यंग्यार्थ (चाहे वह मनुष्य हो या गुणीभूत) का अभाव रहने पर शब्दालंकार अर्थालंकार आदि से, जिसमें शब्दवैचित्यमूलक या अर्थवैचित््रयमूलक कोरे चमत्कार की सृष्टि की जाती है, उसे 'चित्रकाव्य' कहते हैं। इसमें रस-भावादि काव्य के मर्मस्पर्शी तत्वों के न रहने से अनुभूति की गहराई का अभाव रहता है; अनुप्रास, यमक या उपमा, रूपक आदि की कोरी शब्दार्थ क्रीड़ा ही मुख्य हो उठती है। शब्दों या अर्थों को लेकर खिलवाड़ या व्यायाम ही यहाँ अधिकतर अभिप्रेत है। इन्ही आधारों पर इस काव्य विधा के दो भेद माने गए हैं- (1) शब्दचित्र और (2) अर्थचित्र। जहाँ (स्फुट व्यंग्य के अभाव में) अनुप्रास, यमकादि शब्दालंकारों या ओजप्रसादादि गुणव्यंजक वर्णों से शब्दगत चमत्कार
प्रदर्शित होता है, उसे 'शब्दचित्र' कहते हैं और जहाँ उपमा-उत्प्रेक्षादि ऊहात्मक अर्थालंकारों से अर्थगत क्रीड़ापरक चमत्कार लक्षित होता है, उसे 'अर्थचित्र' कहते हैं। इनमें भावपूर्ण एवं रमणीयार्थ की अवहेलना करते हुए क्रीड़ावृत्ति पर ही बल दिया जाता है। 'शब्दचित्र' वर्णाडंबर के माध्यम से भी चित्रसर्जन होता है- जैसे हिंदी के 'अमृतध्वनि' नामक काव्यरूप में। दंडी ने स्वर-स्थान-वर्ण-नियम-कृत वैचित्यमूलक कुछ शब्दालंकारों की चर्चा करते हुए दो तीन चार व्यंजन, स्वर आदि वाले चित्रकाव्यभेद का भी निर्देश दिया है। इससे भी आगे बढ़कर शब्दक्रीड़ा का एक विशिष्ट प्रकार है जिसे प्राय: 'चित्रबंधकाव्य' कहते हैं और जिसमें खड्ग, पद्म, हल आदि की रेखाकृतियां में बद्ध, सप्रयास गढ़े पद्य मिलते हैं। हृदयस्पर्शिता से बहुत रहित होने से इन्हें काव्य नहीं पद्य मात्र कहना चाहिए। 'रुद्रट' आदि ने इसे ही 'चित्रालंकार नामक शब्दालंकार का एक भेद कहा है। 'अर्थचित्र' में मुख्यत: ऊहामूलक, कष्टकल्पनाश्रित, क्रीड़ापरक एवं असहज अर्थवैचित्य मात्र की उद्भावना की जाती है। अत: वे भी सहृदय हृदय के संवादभागी न होकर विस्मयपूर्ण कुतूहल के सर्जक होते हैं। 'प्रहेलिका' और 'दुष्ट प्रहेलिका' के भेद भी चित्रकाव्य ही हैं। इनसें भी सप्रयास शब्दार्थ क्रीड़ा से कुतूहलसर्जना की जाती है। तात्पर्य यह कि चित्रकाव्य की प्रेरणा कवि के भावाकुल अंतस्तल से नहीं वरन् क्रीड़ापूर्ण एवं वैचित्यसूचक कुतूहलवृत्ति से मिलती है। अत: कविहृदय की भावसंपत्ति से सहज विलास का उन्मेष यहाँ नहीं दिखाई देता।
टीका टिप्पणी और संदर्भ