खंडित व्यक्तिव
खंडित व्यक्तिव
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3 |
पृष्ठ संख्या | 279 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पांडेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1976 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | परमेवरीलाल गुप्त |
खंडित व्यक्तित्व व्यक्ति सामान्य रूप से अपने व्यक्त्वि के सभी अंगों का एक सामंजस्यपूर्ण और समैकिक रूप होता है। अपने इस रूप में वह एक स्थिर इकाई की भाँति व्यवहार करता है। किंतु विकार उत्पन्न होने पर व्यक्तित्व निर्माण करने वाले तत्व अथवा घटक असंबद्ध होने लगते हैं, और उसकी समैकितता भंग हो जाती है। ऐसी स्थिति प्राय: प्रबल मानसिक संघर्ष के कारण उत्पन्न होती है। इससे व्यक्ति अपने व्यक्तित्व पर से चेतना का अधिकार खो बैठता है। तब विचारों, भावों अथवा प्रवृतियाँ में असंबद्धता आने लगती हैं। यथा--किसी परिचित नाम अथवा धटना की स्मृति न रहना असंबद्ध आधार का ही रूप है। इसी प्रकार संवेगजनक परिस्थिति में होते हुए भी पहले की तरह प्रभावित न हो पाना भी व्यक्तित्व की असंबद्धता का परिणाम है।
असंबद्ध विचार, भाव और प्रेरणाएँ जब बढ़कर प्रबल हो जाती है। तब वे संघटित होकर एक ही व्यक्ति में एक दूसरे स्वतंत्र व्यक्तित्व का रूप धारण कर लेती है। यह दूसरा व्यक्तित्व व्यक्ति के भीतर मूल व्यक्तित्व के साथ रह सकता है अथवा अलग अलग भी प्रकट हो सकता है। इसे ही मनोवैज्ञानिकों ने खंडित व्यक्तित्व (Spilt Personality) का नाम दिया है।
सामान्य जीवन में भी असंबद्ध अथवा खंडित व्यक्तित्व देखने में आता है। यथा--आदर्शों और आचरणों में अंतर खंडित व्यक्तित्व का ही परिणाम है। व्यक्तित्व, जीवन और व्यवसाय की नैतिकताओं को एक दूसरे से भिन्न मानना भी खंडित व्यक्तित्व है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ