गणितीय उपकर्णिकाएँ

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ११:५९, २५ अप्रैल २०१७ का अवतरण ('{{लेख सूचना |पुस्तक नाम=हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3 |पृष्ठ स...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
लेख सूचना
गणितीय उपकर्णिकाएँ
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3
पृष्ठ संख्या 363
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पांडेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1976 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक हरिश्चंद्र गुप्त

गणितीय उपकर्णिकाएँ विज्ञान और उद्योग की समस्याओं को प्रकट करने और उन्हें हल करने के लिये गणित के उत्तरोतर बढ़ते हुए प्रयोग ने ऐसे तीव्र और मितव्ययी साधनों का विकास किया है जिनसे इन समस्याओं से प्रस्तुत गणितीय प्रश्नों के उत्तर सरलता से मिलते हैं। स्थूल रूप से ऐसे उत्तरों को देनेवाला कोई भी उपकरण गणितीय उपकर्णिका है, किंतु इनके उस बृहत वर्ग का वर्णन, जिनमें संख्यात्मक प्रश्नों का हल गणनात्मक और अंकीय (digital) विधि द्वारा मिलता है, गणनायंत्र नामक लेख में है। गणितीय उपकर्णिकाओं में गणितीय राशियों को मापनीय भौतिक राशियों, जैसे रेखनी पर अंकित दो बिंदुओं के बीच की दूरी, तारों में विद्युद्वारा, इत्यादि द्वारा निरूपित किया जाता है। और इस उपकर्णिका से भौतिकी के जो नियम लगते हैं वे उन गणितीय संबंधों के प्रतिरूप हैं जिन्हें हल करना अभीष्ट है।

अपनी लाक्षणिक गणितीय क्रिया के अनुसार गणितीय उपकर्णिकाओं के तीन प्रमुख वर्गों में विभक्त किया जा सकता है। एक वर्ग वह है जो परिमित (बीजीय अथवा बीजातीत) समीकरणों को हल करता है। इसमें अधिकांश कैम (Cam), संयोजक (Lickage), योक्त्र (Gear) और चर वैद्युतीय तत्वों का प्रयोग किया जाता है। दूसरे वर्ग से समाकालों और अवकलनों की गणना ऐसी युक्तियों की सहायता से की जाती है जैसे विभिन्न आकार के तलों पर लुढ़कते हुए पहिए, अथवा विद्युच्चक्र में धारा और आवेश (Charge) अथवा विशेष प्रकार के प्रकाशीय मध्य से पारेषित प्रकाश की मात्रा। तीसरे वर्ग से आंशिक अवकल समीकरणों का हल करने के लिए प्रत्यास्थ झिल्लियों (membranes), सुचालक चादरों में विद्युद्वारा, अथवा ध्रुवित प्रकाश आदि का उपयोग होता है।

परिमित समीकरणों के हल के लिये उपकर्णिकाएँ

ज्वार पुर्वानुमानी यह देखा गया है कि ज्वार की ऊँ चाई समय के ऐसे कई ज्यावक्रीय या सरल आवत फलनों का योगफल है जिनका आवर्तकाल सूर्य और चंद्रमा के दृष्ट घूर्णनकाल के सन्निकट है। अतएव ज्वार की ऊँ चाई एक त्रिकोणमितीय योग द्वारा निरूपित की जा सकती है और संबंधित बंदरगाह के लिये विभिन्न ज्यावक्रीय अवयवों के आयामों (amplitudes) के एक बार ज्ञात हो जाने पर ज्वार की ऊँचाई तुरंत प्राप्त की जा सकती है। संगणनाश्रम से बचने के लिये लॉर्ड केलविन ने सन्‌ 1872 में ज्वार पूर्वानुमापी बनाया, जो केसिंगटन के संग्रहालय में सुरक्षित है। केल्विन के प्रथम प्रतिरूप में समाधेय (छोटी बड़ी की जाने योग्य) लंबाई के आठ क्रैंकों (Cranks) के सिरों के अक्षों पर भ्रमणशील आठ घिरनियाँ रहती है, जिनसे आठ त्रिकोणमितीय अवयवों का जनन होता है। चार घिरनियाँ एक आयताकार लकड़ी के चौखटे पर ऊपर की ओर और चार नीचे की ओर रहती हैं। एक सिरे पर बँधी डोर एकांतर क्रम से नीचे की घिरनियों के नीचे से और ऊपरवालियों के ऊपर से होकर जाती है। डोर के दूसरे सिरे पर एक और एक चिह्नक (Marker) बँधे रहते हैं। प्रत्येक घिरनी क ा केंद्र समाधेय आयाम की वृत्तीय गति से चल सकता है; यह गति एक क्षैतिज और एक ऊर्ध्वाधर सरल आवर्त गतियों की परिणामी है। क्षैतिज अवयव के कारण डोर ऊर्ध्वाधर स्थिति से हट जाती है, किंतु यदि उस वृत्त की त्रिज्या जिसमें घिरनी का केंद्र चलता है ऊपर और नीचे की घिरनियों के बीच की दूरी की अपेक्षा लघुतर है तो क्षैतिज अवयव का प्रभाव नगण्य हो जाता है और मुख्य प्रभाव आवर्त गति के ऊर्ध्वाधर अवयव का बचा रहता है। इस प्रकार लटकनेवाले भार की गति वही होगी जो घिरनियों की गति के ऊर्ध्वाधर अवयवों के योगफल के तुल्य है।

इस प्रतिरूप के आधार पर प्रथम पूर्ण प्रायोगिक यंत्र में दस अवयवों का योगफल मिल जाता है और किसी बंदरगाह के एक वर्ष के ज्वार को निरूपित करनेवाला वक्र चार घंटे से खिंच जाता है। बादवाले अधिक क्षमतापूर्ण यंत्रों में स्कॉच क्रास हेड (Scotch cross) के उपयोग से घिरनियों की क्षैतिज गति बिल्कुल नहीं होती और ऊपर तथा नीचे की घिरनियों के बीच का तारा सदा ऊर्ध्वाधर रहता है।

प्रसंवादी संश्लेषक-----प्रत्यावर्ती धाराजनित्र से उत्पादित वोल्टता (voltage) आदि भौतिकी फलन ऐसे अवयवों के योगफल के रूप में निरूपित किए जा सकते हैं जिनके सभी आवर्तकाल केवल एक मूलभूत आवर्तकाल के अपवर्तक हैं। पूर्वोक्त केलविन ज्वार पूर्वानुमानी के आधार पर कई एक संश्लेषक बनाए गए हैं, लेकिन उनमें यह विशेषता रखी गई है कि घिरनी वाहक क्रैंकों के घूर्णनवेग 1: 2: 3 आदि के अनुपात में है और फलत: संघटक गतियों के आवर्तकाल एक मूल आवर्तकाल के अपवर्तक हैं।

1898 ई. में अलबर्ट ए. माइकलसन और सैम्युअल डब्ल्यू. स्ट्रेटन ने एक प्रसंवादी संश्लेषक बनाया, जिसका सिद्धांत केलविन उपकर्णिका से इस बात में भिन्न है कि अवयवों का योग कुछ कमानियों से उत्पादित बलों के संकलन से होता है।

बहुपद साधक----संचरण परिपथ की अभिकल्पना और गतिविज्ञान संबंधी निकायों के स्थायित्व के निर्धारण आदि में बहुपद

फ (ल)=क+क1 ल+क ल

के मूल ज्ञात करना आवश्यक होता है, अर्थात ल के वे मान ज्ञात करने होते हैं जिनके लिये फ (ल) =। संमिश्र चर के फलनों के सिद्धांत के अनुसार यदि प्राचल समीकरणों

य=प क ज्या व+प2 क2 ज्या 2व+....+प क ज्या नेव

र=क+प क1 कोज्या व+प2 क2 कोज्या 2व+....+प क कोज्या नव

से (जो दिए हुए बहुपद के गुणांकों से प्राप्त किए गए हैं) निरूपित वक्र मूलबिंदु य=0 र=0 क परित म बार घूमता है तो फ ल के म मूल मापांक प से कम वाले हैं।

सन्‌ 1937 में थार्नटन सी. फ्राई और आर. एल. डीजोल्ड द्वारा बनाई गई समलेखी (Isograph) नामक उपकर्णिका से यह वक्र खींचा जाता है। यांत्रिक दृष्टि से यह उपकर्णिका केलविन प्रकार का दस अवयवी प्रसंवादी संश्लेषक है, जिसमें ज्या (sine) वाले अवयव जुड़कर एक पेंसिल को चलाते हैं और कोज्या (cosine) वाले अवयव अलग से जुड़ कर उस मेज को चलाते हैं जिसपर पेंसिल वक्र का अनुरेखण करती है। ये दो गतियाँ लंब दिशाओं में होती हैं।

क्रिया के लिए पहले प का कोई मान छाँटा जाता है और वक्र का अनुरेखण कर उन मूलों की संख्या ज्ञात की जाती है जिनका मापांक प के इस मान से कम है। अब प के किसी अन्य मान के लिये ऐसे मूलों की संख्या ज्ञात की जाती है। यदि मूलों का इन दो संख्याओं में परिवर्तन हो जाता है तो प के दोनों मानों के बीच कम से कम एक मूल अवश्य है। क्रमिक परीक्षणों से मूल की स्थिति का क्षेत्र, उपकर्णिका की त्रुटिसीमा के भीतर भी जितना चाहें छोटा किया जाता है। एस. लेरॉय ब्राउन ने इससे मिलता जुलता ऐसा संश्लेषक बनाया है जिससे संमिश्र गुणांकों वाले बहुपद के मूल भी ज्ञात किए जा सकते हें। एक विद्युच्छचालित बहुपदसाधक एच. सी. हार्ट और ईविन ट्रेविस ने सन 1937 में बनया। एक अन्य प्रकार के बहुपदसाधक का निर्माण फेलिक्स ल्यूकस ने सन्‌ 1887 में किया था। इसकी क्रिया का आधार संमिश्र चर के फलनों के सिद्धांत और सुचालक द्रव्य की चादरों में विद्युद्वारा के प्रवाह सिद्धांत के कतिपय प्रमेय हैं। इस उपकर्णिका में एक बड़ी (सिद्धांतत: अनंत) चादर के कुछ बिंदुओं पर बहुपद के गुणांकों से निर्धारित विद्युद्वाराएँ लगाई जाती हैं। जिन बिंदुओं पर धारा शून्य होती है वे बहुपद के अभीष्ट मूल हैं।

एकघात बीजीय समीकरण साधक---इंजीनियरी की अनेकों समस्याओं और सांख्यिकी न्यास के सहसंबंध निर्धारण आदि में निम्नलिखित रूप से एकघात समीकरण निकाय को हल करना होता है।

क0.+क.1 य1+क.2 य2.... क.म यम=.

क10+क11 य1+क12 य2.... कम=0

कम.+कम1 य1+कम2 य2.... कमम यम=0

जहाँ क दी हुई संख्याएँ हैं और य ओं के वे मान ज्ञात करने हैं जो इन समीकरणों को संतुष्ट करते हैं।

इन समीकरणों को हल करने के लिये समुचित उपकर्णिका की अभिकल्पना में अत्यंत विद्वत्ता और परिश्रम से काम करना पड़ा है, और कुछ सिद्धांतत: शुद्ध उपकर्णिकाएँ बनी भी हैं, किंतु इनका प्रयोग करने में समय अधिक लगता है और इतना यथार्थ हल नहीं मिलता। इस कारण ये अधिक प्रचलित नहीं हुईं। इनका आधार बटखरों अथवा कमानियों के बलों का संतुलन अथवा एक दूसरे से जुड़े हुए बरतनों में भरे द्रव का स्तर (level) है। जोहैन बी. विलबर द्वारा सन्‌ 1936 में बनाए गए एकघात समीकरण साधक का आधार यांत्रिक विस्थापनों का संकलन था। इसकी सहायता से दस अज्ञात राशियों के मान निर्धारित किए जा सकते हैं, जो महत्तम अज्ञात राशि के 1प्रतिशत के भीतर की यथार्थता के हैं। सन 1933 में आर. आर. एम. मैलॉक ने एकघात समीकरण निकाय को हल करने के लिए एक विद्युद्यंत्र बनाया। इसे सुधारकर कैंब्रिज इंस्टुमेंट कंपनी ने विलबर जैसी क्षमता की उपकर्णिका बनाई जिससे असंगत समीकरण निकाय का न्यूनतम वर्ग हल भी मिल जाता है। मैलॉक यंत्र विद्युत परणामित्र (ट्रांसफार्मर) और बंद विद्युत्परिपथों का बना होता है, जिनमें से प्रत्येक परिणामित्र एक अज्ञात राशि के लिये है और प्रत्येक परिपथ एक समीकरण के लिये।

समाकलन और अवकलन करनेवाली उपकर्णिकाएँ

क्षेत्रमापी---बावेरिया के इंजीनियर जे एच. हरमैन ने सन्‌ 1814 में सबसे पहले अनयिमित वक्र से सीमाबद्ध क्षेत्र का सीधे ही क्षेत्रफल मापने का यंत्र बनाया। उसके बाद कई एक यंत्र बनाए गए। सन्‌ 1860 में वेटली स्पर्क ने एक क्षेत्रमापी बनाया, जिसमें घूर्णनशील क्षैतिज वृत्तीय मंडलक (disc) पर आलेखक बेलन विराम किए रहता है। तीन समांतर पटरियों पर लुढ़कनेवा के तीन घिर्रीदार पहियों के ऊपर सधे हुए एक चौखटे पर यह मंडलक चढ़ा रहता है। मंडलक के नीचे और चौखटे पर एक क्षैतिज छड़ दो जोड़ी निदेशक (guide) बेलनों के बीच इस प्रकार चढ़ी रहती है कि वह पटरियों से लंब दिशा में चल सके। मंडलक की धुरी के परित: लिपटे हुए और छड़ के सिरों पर बँधे हुए पतले तार द्वारा मंडलक को छड़ के अनुदैर्ध्य विस्थापन के समानुपात में कोणीय संचलन मिलता है। जब छड़ के एक सिरे पर बँधे अनुरेखक की नोक उस वक्र की परिसीमा पर चलती है जिसका क्षेत्रफल मापना है तो मंडलक के कंद्र और आलेखक पहिए के समतल के बीच की दूरी सदा वक्र की कोटि के समानुपात में रहती है। इसलिये आलेखक पहिए के परिक्रमणों की संख्या क्षेत्र फल का मापक है।

जेकब एम्सलर ने सन्‌ 1854 के लगभग एक ध्रुवीय क्षेत्रमापी बनाया, जो अपने सरल निर्माण और अल्प मूल्य के कारण बहुत प्रचलित हो गया। सन्‌ 1875 के लगभग इसी आधार पर जो उपकर्णिका स्टेनले ने बनाई उसमें भारतयुक्त बिंदु नियत हैं, और अनुरेखक संकेतक दिए हुए वक्र पर चलता है। अंशांकित बेलन पर आरंभ के और अंत के पाठ्यांकों के अंतर से अनुरेखक बाहु की लंबाई के अनुसार क्षेत्रफल ज्ञात हो जाता है।

समाकलक----एम्सलर ने सन्‌ 1856 में व्यापक रूप से क्षेत्रमापी का आविष्कार किया, जिसे समाकलक कहते हैं। इस उपकर्णिका से क्षेत्रफल के अतिरिक्त अक्ष र. के परित: घूर्ण ½ र2 ताय और जड़ता घूर्ण ½ र3 ताय भी नापे जा सकते हैं।

समाकल लेखी----गणितीय भाषा में क्षेत्रमापी द्वारा निश्चित समाकल का मान ज्ञात किया जाता है। कुछ अनुप्रयोगों में किसी वक्र से निरूपित फलन के अनिश्चित समाकल के लेखाचित्र की आवश्यकता रहती है। जिस यंत्र से यह लेखाचित्र खिंचता है उसे समाकललेखी कहते हैं। ऐसी उपकर्णिका प्रोफेसर बॉयज़ ने सन्‌ 1881 में बनाई। तबसे उसमें काफी सुधार हो गया है।

प्रसंवादी विश्लेषक----प्राय: किसी जटिल फलन अथवा वक्र को कई एक सरल प्रसंवादी अथवा ज्यावक्रीय संघटकों के योगफल द्वारा निरूपित करने में सुविधा रहती है। ऐसे निरूपण का आरंभ उष्मा के संवरण और विसरण के अध्ययन में फूरिये ने किया और तबसे इसका महत्व बढ़ता जा रहा है। आनुभविक न्यास के प्रसंवादी संघटकों का निर्धारण संवादन सरणियों (Communication lines), विद्युद्यंत्रों, यांत्रिकीय कंपनों और शोर, गानयंत्रों और सांख्यिकीय न्यास के पूर्वानुमान (prediction) सिद्धांत आदि के अध्ययन में महत्वपूर्ण है।

यद्यपि इन क्षेत्रों में अधिकांश विश्लेषण संख्यात्मक प्रक्रियाओं द्वारा किया जाता है, तथापि कुछ अंश तक प्रसंवादी विश्लेषकों का भी उपयोग किया जाता है। प्रसंवादी विश्लेषण सिद्धांत में यह सिद्ध किया गया है कि समुचित प्रतिबंधों सहित आवर्त फलन फ (य) का निरूपण निम्नांकित श्रेणी द्वारा किया जा सकता है।

प्रसंवादी विश्लेषक का उद्देश्य इन गुणांकों क और ख का सरल और त्वरित विधि से निर्धारण करना होता है। ये विश्लेषक कम से कम तीन मूलत: भिन्न प्रकार के हैं। इनमें सबसे प्राचीन क्षेत्रमापी और समाकलक का विस्तरण मात्र है। बाद के विश्लेषक ऐसे बने हैं जिनमें फलन को फोटो पटल पर निरूपित कर उसका विश्लेषण प्रकाशविद्युत विधि से किया जाता है। एक अन्य प्रकार के विश्लेषकों में न्यास को विद्युद्धाराओं में परिवर्तित कर इन धाराओं के विश्लेषण हेतु उपलब्ध विस्तृत साधनों का उपयोग किया जाता है।

अवकल विश्लेषक------इंजीनियरी और भौतिकी में बहुप्राय: गणितीय समस्याएँ अवकल समीकरणों (साधारण अथवा आंशिक) द्वारा व्यक्त की जाती हैं। इनमें से कुछ का ही हल साधारण फलनों (ज्या, कोज्या, लघुघातीय, बेसल आदि) के पदों में प्रकट किया जा सकता है। लेकिन इंजीनियरी में इन औपचारिक हलों की उस दशा में आवश्यकता तो क्या उपयोगिता भी नहीं होती जब इन समीकरणों का कोई संख्यात्मक अथवा लेखाचित्रीय हल उपलब्ध हो, जिनके लिए संयुक्त राज्य (अमरीका), ब्रिटेन और अन्य देशों में अवकल विश्लेषक बन गए हैं। भौतिकी और इंजीनियरी के अतिरिक्त इन विश्लेषकों का द्वितीय विश्वयुद्ध में प्राक्षेपिक पथों की संगणना के लिए बहुत उपयोग हुआ।

अवकल विश्लेषकों में मूल प्राथमिक युक्ति वही मंडलक और पहिया समाकलक वाली है जो आरंभ के क्षेत्रमापियों में प्रयुक्त हुई थी। इसका कार्य समाकलन ल=र ताय को करना है; समाकलक में य मंडलक का कोणीय विस्थापन है, र समाकलक पहिए की मंडलक के केंद्र से दूरी है और ल समाकलक पहिए का परिणामी कोणीय विस्थापन है। दो राशियों य और र का योगफल, जिनमें से हरेक ईषा (Shaft) के कोणीय विस्थापन से निरूपित होता है, एक तीसरी ईषा के य+र के बराबर कोणीय विस्थापन से प्राप्त होता है। विश्लेषण में समुचित योक्त्रण द्वारा अचर राशि क से गुणन हो जाता है। स्वेच्छ अथवा आनुभविक फलनों के लेखाचित्र पटलों पर खींचकर उन्हें विश्लेषक में प्रविष्ट कर दिया जाता है और विश्लेषक का हल बाहर आनेवाले पटलों पर लेखाचित्र के रूप में प्राप्त होता है।

11. बीज समाकलक-----जब अचर गुणांकवाले एकघात अवकल समीकरणों का सन्निकट हल शीघ्र प्राप्त करना हो तो बीज द्वारा सन्‌ 1944 में आविष्कृत युक्ति का प्रयोग किया जाता है। सुविदित वैश्लेषिक तथ्यों के अनुसार ऐसे समीकरण निकाय ऐसी किसी भी युक्ति की सहायता से हल किए जा सकते हैं जो निम्नलिखित सरल अवकल समीकरणों को

क तार/ताय-खर=फ (य)

क ता2र/ताय2-ख तार/ताय-ग र=फ (य)

जिनमें क ख ग वास्तविक संख्याएँ हैं, हल कर देगी।[१]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सं. ग्रं.-----ई. एम. होसबर्घ (सं.): हैंडबुक ऑव दि एग्ज़िबिशन ऐट द नेपियर टर्सेंटिनरी सेलिब्रेशन (एडिनबरा, 1914), लंदन में माडर्न इंस्ट्र मेंटस ऑव कैलक्युलेशन के नाम से पुन प्रकाशित। निम्नांकित लेख भी देखिए : सी0 टवीडी द्वारा इंटीग्राफ्स पर; जी. ए. कार्स और जे. उर्क्वाटर्ह द्वारा इंटीग्रोमीटर्स, प्लेनिमीटर्स और हारमोनिक ऐनेलेसिस पर और ए. एम. रॉब द्वारा दि यूस ऑव मिकैनिकल इंटिग्रेटिग मशींस इन नैवल आर्किटेक्चर पर। ग्लेज़रबुक की डिक्शनरी ऑव ऐप्लाइड फ़िजिक्स, खंड 3 पृ. 450-457 (1923) में एच0 लेवी का लेख मिकैनिकल मेथडस ऑव इंटिग्रेशन ; डी. बैक्सैंडाल : मैथेमेटिक्स 1. में कैलक्युलेटिंग मशींस ऐंड इस्ट्र मेंटस (1926); वी0 बुश : द डिफ़रेंशल ऐनेलाइजर, फ्रैंकलिन इंस्टिट ्यूट, खंड 5-212 पृष्ठ 447-8 (1831); मिकैनिकल एड्स टु मैथेमैटिक्स : आइसोग्राफ फॉर दं सोल्यूशन ऑव कॉम्प्लैक्स पॉलिनोमियल्स इलेक्ट्रोनिक्स, खं. 11, पृ. 54 (1938); एस. एल. ब्राउन ऐड एल. एल. ह्‌वीलर, ए मिकैनिकल मेथड फॉर ग्रैफिकल साल्यूशंस अॅव पालनोमियल्स, फ्रैंकलिन इंस्टि. ज. खंड 231, पृष्ठ 223-243 (1941); संदर्भ के लिये देखिए : जे. एस. फ्रेम, मशींस फॉर सॉल्विग ऐलजैब्रेइक इक्वेशंस, मैथेमैटिकल टेबुल्स ऐंड अदर एडस टु कॉम्प्यूटेशन, खंड 1, सं. 9 (1945)।