अल्बेनियन भाषा

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लेख सूचना
अल्बेनियन भाषा
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1
पृष्ठ संख्या 268
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पाण्डेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक डा० कैलासचन्द्र शर्मा


अल्बेनियाई भाषा भारतीय यूरोपीय परिवार की यह प्राचीन भाषा अपने प्राय: मौलिक रूप में अल्बेनियाई जनता की प्राचीन प्रथाओं की भांति आज भी विद्यमान है। इसके बोलनेवालों की संख्या लगभग दस लाख है। उत्तरी और दक्षिणी दो बोलियों के रूप में यह प्रचलित है। उत्तरी बोली को 'ग्वेगुइ' कहते हैं और दक्षिणी को 'तोस्क'। इनके संज्ञा रूपों में किंचित्‌ भेद है: ग्वेगुई में स्वरों के मध्य का 'न' तोस्क में 'रा' हो जाता है। इन बोलियों का भारतीय यूरोपीय रूप इनके सर्वनामों तथा क्रियापदों में आज भी सुरक्षित है। यथा : तो (दाऊ-अंग्रेजी; तू-हिंदी); ना (वी-अंग्रेजी, हम-हिंदी); जू (यू-अंग्रेजी, तुम-हिंदी) तथा क्रियापदों में रूपविधान : दोम (मैं कहता हूँ); दोती (वह कहता है); दोमी (हम कहते हैं); और दोनी (वे कहते हैं)।

इसकी अधिकांश शब्दावली विदेशी शब्दों से मिलकर बनी है, यद्यपि भारतीय यूरोपीय परिवार के अनेक मौलिक शब्द इसमें आज भी विद्यमान हैं। प्राचीन ग्रीक भाषा से बहुत ही कम शब्द इसमें आए प्रतीत होते हैं, किंतु मध्यकालीन तथा आधुनिक ग्रीक से अवश्य कुछ शब्द घूम फिरकर (और कभी-कभी वेश बदलकर भी) इस भाषा में आ गए हैं। जैसे 'लिपसेत' (यह आवश्यक है) शब्द सर्बियन भाषा से अल्बेनियाई में आया, किंतु उससे पहले सर्बिया ने इसे ग्रीक से लिया था। स्लाव भाषाओं से भी अनेक शब्द लिए गए हैं। क्लासिकी युग में प्राचीन ग्रीक का प्रभाव अल्बेनिया तक नहीं पहुँच पाया, जबकि लातीनी प्रभाव बहुत पहले से ही वहाँ तक पहुँच चुका था। अल्बेनियाई अंकावली में चार के लिए 'कत्रे' तथा शत के लिए 'क्विद्' शब्द अवश्य ही लातीनी भाषा के हैं। जबकि 'पेस' (पाँच) और दहेत (दश) मूल भारतीय-यूरोपीय-परिवार के हैं। इसी प्रकार लातीनी 'अमीकस' (दूध) अल्बेनियाई में 'मीक' रह गया है।

शक्तिशाली रोमन साम्राज्य के प्रभुत्वकाल में अल्बेनियाई नागरिक शब्दावली पर यथानुसार प्रबल लातीनी प्रभाव भी पड़ा, किंतु ग्रामीण जनता ने अपनी भाषा को आज तक सर्वदा 'शुद्ध' रखा है। इसका उच्चारण और व्याकरण आज भी अपने मौलिक रूप में अक्षुण्ण है। यह भाषा जिस पर्वतीय प्रदेश में बोली जाती है, वह एपीरस के उत्तर में, मांटीनीग्रो के दक्षिण में और अद्रियातिक सागर के पूर्वस्थ है। यह कब और कैसे इस क्षेत्र में आई, यह अभी तक अनिश्चित है। इस भाषा के १५वीं शताब्दी के ही उपलब्ध साहित्य को सबसे प्राचीन कहा जाता है, किंतु अन्य अधिकांश प्राचीन साहित्य 16वीं और 17वीं शताब्दी का ही मिलता है। आधुनिक अल्बेनियाई साहित्य जिस भाषा में लिखा गया है वह वर्तमान भाषा से बहुत भिन्न नहीं है और वर्तमान भाषा प्राचीन बोलियों का ही प्राय: अपरिवर्तित रूप है।



टीका टिप्पणी और संदर्भ