इय्योब
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इय्योब
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1 |
पृष्ठ संख्या | 536 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | श्रीकृष्ण सक्सेना |
इय्योब (अय्यूब, योब) बाइबिल के अनुसार अब्राहम के समकालीन कोई अरबनिवासी गैरयहूदी कुलपति थे। लगभग 530 ई. पू. में एक यहूदी कवि ने उन्हीं को नायक बनाकर इय्योब नामक ग्रंथ की रचना की थी जो गांभीर्य तथा काव्यात्मक सौंदर्य की दृष्टि से विश्वसाहित्य के ग्रंथरत्नों में से एक है। इसमें सदाचारी मनुष्य के दुर्भाग्य की समस्या नाटकीय ढंग से, अर्थात् इय्योब तथा उनके चार मित्रों के संवाद के रूप में, प्रस्तुत की गई है। यहूदियों की परंपरागत धारणा के अनुसार चारों मित्रों का विचार है कि इय्योब अपने पापों के कारण ही दु:ख भोग रहे हैं। इय्योब पापी होना स्वीकार करते हैं, किंतु वे अपने पापों तथा अपनी घोर विपत्तियों में समानुपात नहीं पाते। फिर भी सब कुछ ईश्वर के हाथ से ग्रहण करते हुए इय्योब कहते हैं कि मनुष्य ईश्वर का विधान समझने में असमर्थ है। संवाद के अंत में स्वर्ग की ओर से संकेत मिलता है कि सर्वज्ञ तथा सर्वशक्तािन् विधाता ने पापों के कारण इय्योब को दंड देने के लिए नहीं, प्रत्युत उनकी परीक्षा लेने तथा उनको परिशुद्ध करने के उद्देश्य से उनको विपत्तियों का शिकार बना दिया है। इय्योब इस परीक्षा में उत्तीर्ण होकर ईश्वर से अपरना पूर्व वैभव प्राप्त कर लेते हैं। प्रस्तुत समस्या पर ईसा आगे चलकर नया प्रकाश डालकर सिद्ध करेंगे कि दूसरों के पापों के लिए प्रायश्चित करने के उद्देश्य से भी दु:ख भोगा जा सकता है।[१]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सं.ग्रं.-ई. जे. किस्साने : द बुक ऑव जॉब, डबलिन, 1939; जी. होल्शर: दास बुख हियोब, तुबिंगेन, 1937; लार्शेर : लि लिवरे दी जॉब, पेरिस, 1950 ।