ऐल्यूमिनियम
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ऐल्यूमिनियम
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 2 |
पृष्ठ संख्या | 284 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | सरयूप्रसाद, विद्यासागर दुबे, निरंकार सिंह |
ऐल्यूमिनियम श्वेत रंग की एक धातु है। लैटिन भाषा के शब्द ऐल्यूमेन और अंग्रेजी के शब्द ऐलम का अर्थ फिटकरी है। इस फिटकरी में से जो धातु पृथक की जा सकी, उसका नाम ऐल्यूमिनियम पड़ा। फिटकिरी से तो हमारा परिचय बहुत पुराना है। कांक्षी, तुवरी और सौराष्ट्रज इसके पुराने नाम है। फिटकरी वस्तुत: पोटैसियम सलफ़ेट और ऐल्यूमिनियम सलफ़ेट इन दोनों का द्विगुण यौगिक है। सन् 1754 में मारग्राफ़ (Marggraf)ने यह प्रदर्शित किया कि जिस मिट्टी को ऐल्यूमिना कहा जाता है, वह चूने से भिन्न है। सर हफ्रीं डेवी ने सन् 1807 ही में ऐल्यूमिया मिट्टी से धातु पृथक करने का प्रयत्न किया, परंतु सफलता न मिली। सन् 1825 में अर्स्टेड (Oersted) ने ऐल्युमिनियम क्लोराइड को पोटैसियम संरस के साथ गरम किया और फिर आसवन करके पारे को उड़ा दिया। ऐसा करने पर जो चूर्ण सा बच रहा उसमें धात्वाभा थी। यही धातु ऐल्युमिनियम कहलाई। सन् 1845 में फ्ऱेडरिक वोहलर (Frederik Wohler) ने इस धातु के तैयार करने में पोटैसियम धातु का प्रयोग अपचायक के रूप में किया। उसे इस धातु के कुछ छोटे-छोटे कण मिले, जिनकी परीक्षा करके उसने बताया कि यह नई धातु बहुत हल्की है (आपेक्षिक घनत्व 2.5-2.7) और इसके तार खींचे जा सकते हैं। तदनंतर सोडियम और सोडियम ऐल्यूमिनियम क्लोराइड का प्रयोग करके सन् 1854 में डेविल (Deville) ने इस धातु की अच्छी मात्रा तैयार की। उस समय नई धातु होने के कारण ऐल्यूमिनियम की गिनती बहुमूल्य धातुओं में की जाती थी और इसका उपयोग आभरणों और अलंकारों में होता था। सन् 1886 में ओहायो (अमरीका) नगर में चार्ल्स मार्टिन हॉल ने गले हुए क्रायोलाइट में ऐल्यूमिना घोला और उसमें से विद्युद्विश्लेषण विधि द्वारा ऐल्यूमिनियम धातु पृथक की। यूरोप में भी लगभग इसी वर्ष हेरो (Heroult) ने स्वतंत्र रूप से इसी प्रकार यह धातु तैयार की। यही हॉल-हेरो-विधि आजकल इस धातु के उत्पादन में व्यवहृत हो रही है। हलकी और सस्ती होने के कारण ऐल्यूमिनियम और उससे बनी मिश्र धातुओं का प्रचलन तब से बराबर बढ़ता चला जा रहा है।
ऐल्यूमिनियम धातु तैयार करने के लिए दो खनिजों का विशेष उपयोग होता है। एक तो बौक्सॉइट (Al2 O3. 2H2O) और दूसरा क्रायोलाइट (3NaF. Al F3)। बौक्साइट के विस्तृत निक्षेप हमारे देश में राँची, पलामू, जबलपुर, बालाघाट, सेलम, बेलगाम, कोल्हापुर, थाना आदि जिलों में पाए गए हैं। इस देश में इस खनिज की अनुमित मात्रा 2.8 करोड़ टन है। सन् 1957 में 96,071 टन (मूल्य 9,09,000 रुपए) बौक्साइट का व्यापार इस देश में किया गया। सन् 1938 में समस्त संसार में 2,57,000 मेट्रिक टन ऐल्यूमिनियम धातु तैयार की गई। इस समय भारत में प्रति वर्ष लगभग 1,81,500 टन ऐल्यूमिनियम का उत्पादन होता है। विद्युद्विश्लेषण विधि से व्यापारिक मात्रा में धातु तैयार करने का सबसे पहला कारखाना पिट्सबर्ग कंपनी ने अमरीका में सन् 1888 में न्यू केन्सिंग्टन में खोला था। नियाग्र प्रपातों के निकट यही कंपनी अब 'ऐल्यूमिनियम कंपनी ऑव अमेरिका' नाम से बहुत बड़ा व्यवसाय कर रही है।
ऐल्यूमिनियम धातु तैयार करने के निर्मित्त पहला प्रयत्न यह किया जाता है कि बौक्साइट से शुद्ध ऐल्यूमिना मिले। बौक्साइट के शोधन की एक विधि बायर (Baeyer) के नाम पर प्रचलित है। इसमें बौक्साइट को गरम कास्टिक सोडा के विलयन के साथ आभिकृत करके सोडियम ऐल्यूमिनेट बना लेते हैं। इस ऐल्यूमिनेट के विलयन को छान लेते हैं और इसमें से फिर ऐल्यूमिना का अवक्षेपण कर लिया जाता है। (अवक्षेपण के निर्मित विलयन में ऐल्यूमिना ट्राइहाइड्रेट के बीजों का वपन कर दिया जाता है, जिससे सब ऐल्यूमिना अवक्षेपित हो जाता है)।
ऐल्यूमिना से ऐल्यूमिनियम धातु हॉल-हेरो-विधि द्वारा तैयार की जाती है। विद्युद्विश्लेषण के लिए जिस सेल का प्रयोग किया जाता है वह इस्पात का बना एक बड़ा बकस होता है, जिसके भीतर कार्बन का अस्तर लगा रहता है। कार्बन का यह अस्तर कोक, पिच और तारकोल के मिश्रण को तपाकर तैयार किया जाता है। इसी प्रकार कार्बन के धनाग्र भी तैयार किए जाते हैं। ये बहुधा 12-20 इंच लंबे आयताकार होते हैं। ये धनाग्र एक संवाहक दंड (बस बार) से लटकते रहते हैं और इच्छानुसार ऊपर नीचे किए जा सकते हैं। विद्युत् सेल के भीतर गला हुआ क्रायोलाइट लेते हैं और विद्युद्धारा इस प्रकार नियंत्रित करते रहते हैं कि उसके प्रवाह की गरमी से ही क्रायोलाइट बराबर गलित अवस्था में बना रहे। विद्युद्विश्लेषण होने पर जो ऐल्यूमिनियम धातु बनती है वह क्रायोलाइट से भारी होती है, अत: सेल में नीचे बैठ जाती है। यह धातु ही ऋणाग्र का काम करती है। गली हुई धातु समय-समय पर सेल में से बाहर बहा ली जाती है। सेल में बीच-बीच में आवश्यकतानुसार और ऐल्यूमिना मिलाते जाते हैं। क्रायोलाइट के गलनांक को कम करने के लिए इसमें बहुधा थोड़ा सा कैल्सियम फ़्लोराइड भी मिला देते हैं। यह उल्लेखनीय है कि ऐल्यूमिनियम धातु के कारखाने की सफलता सस्ती बिजली के ऊपर निर्भर है। 20,000 से 50,000 ऐंपीयर तक की धारा का उपयोग व्यापारिक विधियों में किया जाता रहा है।
धातु के गुण –व्यवहार में काम आनेवाली धातु में 99% 99.3% ऐल्यूमिनियम होता है। शुद्ध धातु का रंग श्वेत होता है, पर बाजार में बिकनेवाले ऐल्यूमिनियम में कुछ लोह और सिलिकन मिला होने के कारण हलकी सी नीली आभा होती है। धातु के कुछ भौतिक गुण निम्नलिखित सारणी में दिए जाते हैं :
परमाणुभार 26.97
आपेक्षिक उष्मा (20° सें. पर) 0.214
आपेक्षिक उष्मा चालकता
(कलरी प्रति सें.मी. घन, प्रति
डिगरी सें., प्रति सैकंड, 18° सें. पर) 0.504
गलनांक (99.97% शुद्धता) 659.8°
क्वथनांक 1800°
गलन की गुप्त उष्मा 95.3°
आपेक्षिक घनत्व 2.703
गलनांक पर द्रव का घनत्व 2.382
विद्युत् प्रतिरोध, 20° सें. पर
(माइक्रोम प्रति सें.मी.घन) 2.845
विद्युत् रासायनिक तुल्यंक 0.00009316 ग्राम प्रति कूलंब
चुंबकीय प्रवृत्ति, 18° सें.पर 0.65ुं10-6
परावर्तनता (श्वेत प्रकाश के लिए) 85%
ठोस होने पर संकोच 6.6%
विद्युदग्र विभव (विलयन में 25° पर) +1.69 वोल्ट
ऐल्यूमिनियम पर साधारण ताप पर ऑक्सिजन का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता, परंतु यदि धातु के चूर्ण को 400° ताप पर ऑक्सिजन के संपर्क में लाया जाए, तो पर्याप्त उपचयन होता है। अति शुद्ध धातु पर पानी का भी प्रभाव नहीं पड़ता, पर ताँबा, पीतल अथवा अन्य धातुओं की समुपस्थिति में पानी का प्रभाव भी पर्याप्त होता है। कार्बन अथवा कार्बन के ऑक्साइड ऊँचे ताप पर धातु को कार्बाइड (Al4 C3) में परिणत कर देते हैं। पारा और नमी की विद्यमानता में धातु हाइड्राक्साइड बन जाती है। यदि ऐल्यूमिनियम चूर्ण और सोडियम पराक्साइड के मिश्रण पर पानी की कुछ ही बूँदें पड़ें, तो जोर का विस्फोट होगा। ऐल्यूमिनियम चूर्ण और पोटैसियम परमैंगनेट का मिश्रण जलते समय प्रचंड दीप्ति देता है। धातु का चूर्ण गरम करने पर हैलोजन और नाइट्रोजन के साथ भी जलने लगता है और ऐल्यूमिनियम हैलाइड और नाइट्राइड बनते हैं। शुष्क ईथर में बने ब्रोमीन और आयोडीन के विलयन के साथ भी यह धातु उग्रता से अभिक्रिया करके ब्रोमाइड और आयोडाइड बनाती है। गंधक, सेलीनियम और टेल्यूरियम गरम किए जाने पर ही इस धातु के साथ संयुक्त होते हैं। हाइड्रोक्लोरिक अम्ल गरम होने पर धातु के साथ अभिक्रिया करके क्लोराइड बनाता है। यह क्रिया धातु की शुद्धता और अम्ल की सांद्रता पर निर्भर है। तनु सल्फ़्यूरिक अम्ल का धातु पर धीरे-धीरे ही प्रभाव पड़ता है, पर अम्ल की सांद्रता बढ़ाने पर यह प्रभाव पहले तो बढ़ता है, पर फिर कम होने लगता है। 98ऽ सल्फ़्यूरिक अम्ल का धातु पर बहुत ही कम प्रभाव पड़ता है। नाइट्रिक अम्ल का प्रभाव इस धातु पर इतना कम होता है कि सांद्र नाइट्रिक अम्ल ऐल्यूमिनियम के बने पात्रों में बंद करके दूर-दूर तक भेजा जा सकता है। अमोनिया का विलयन कम ताप पर तो धातु पर प्रभाव नहीं डालता, परंतु गरम करने पर अभिक्रिया तीव्रता से होती है। कास्टिक सोडा, कास्टिक पोटाश और बेराइटा का ऐल्यूमिनियम धातु पर प्रभाव तीव्रता से होता है, परंतु कैल्सियम हाइड्राक्साइड का अधिक नहीं होता।
ऐल्यूमिनियम ऑक्सिजन के प्रति अधिक क्रियाशील है। इस गुण के कारण अनेक आक्साइडों के अपचयन में इस धातु का प्रयोग किया जाता है। गोल्डश्मिट की थर्माइट या तापन विधि में ऐल्यूमिनियम चूर्ण का प्रयोग करके लौह, मैंगनीज़, क्रोमियम, मालिबडीनम, टंग्सटन आदि धातुएँ अपने आक्साइडों में से पृथक की जाती हैं।
ऐल्यूमिनियम को संक्षारण से बचाना –बेंगफ (Bengough) और सटन ने 1926 ई. में एक विधि निकाली जिसके द्वारा ऐल्यूमिनियम धातु पर उसके आक्साइड का एक पटल इस दृढ़ता से बन जाता है कि उसके नीचे की धातु संक्षारण से बची रहे। यह कार्य विद्युद्धारा की सहायता से किया जाता है। ऐल्यूमिनियम पात्र को धनाग्र बनाकर 3 प्रतिशत क्रोमिक अम्ल के विलयन में (जो यथासंभव सल्फ़्यूरिक अम्ल से मुक्त हो) रखते हैं। वोल्टता धीरे-धीरे 40 वोल्ट तक 15 मिनट के भीतर बढ़ा दी जाती है। 35 मिनट तक इसी वोल्टता पर क्रिया होने देते हैं, फिर वोल्टता 5 मिनट के भीतर 50 वोल्ट कर देते हैं, और 5 मिनट तक इसे स्थिर रखते हैं। ऐसा करने पर पात्र पर आक्साइड का एक सूक्ष्म पटल जम जाता है। पात्र पर रंग या वार्निश भी चढ़ाई जा सकती है और यथेष्ट अनेक रंग भी दिए जा सकते हैं। इस विधि को एनोडाइज़िंग या धनाग्रीकरण कहते हैं और इस विधि द्वारा बनाए गए सुंदर रंगों से अलंकृत ऐल्यूमिनियम पात्र बाजार में बहुत बिकने को आते हैं।
ऐल्यूमिनियम मिश्रधातुएँ–ऐल्यूमिनियम लगभग सभी धातुओं के साथ संयुक्त होकर मिश्र धातुएँ बनाता है, जिनमें से तॉबा, लोहा, जस्ता, मैंगनीज़, मैगनीशियम, निकेल, क्रोमियम, सीसा, बिसमथ और वैनेडियम मुख्य हैं। ये मिश्रधातुएँ दो प्रकार के काम की हैं–पिटवाँ और ढलवाँ। पिटवाँ मिश्रधातुओं से प्लेट, छड़ें आदि तैयार की जाती हैं। इनकी भी दो जातियाँ हैं, एक तो वे जो बिना गरम किए ही पीटकर यथेच्छ अवस्था में लाई जा सकती हैं, दूसरी वे जिन्हें गरम करना पड़ता है। पिटवाँ और ढलवाँ मिश्रधातुओं के दो नमूने यहाँ दिए जाते हैं–ढलवाँ : ताँबा 8%, लोहा 1%, सिलिकन 1.2%, ऐल्यूमिनियम 89.8% ; पिटवाँ : ताँबा 0.9%, सिलिकन 12.5%, मैगनीशियम 1.0 %, निकेल 0.9%, ऐल्यूमिनियम 84.7%।
ऐल्यूमिनियम के यौगिक –ऐल्यूमिनियम ऑक्साइड (Al2 O3) प्रकृति में भी पाया जाता है तथा फिटकरी और अमोनिया क्षार की अभिक्रिया से तैयार भी किया जा सकता है। इसमें जल की मात्रा संयुक्त रहती है। जलरहित ऐल्यूमिनियम क्लोराइड (AlCl3) का उपयोग कार्बनिक रसायन की फ्ऱीडेन-क्राफ़्ट अभिक्रिया में अनेक संश्लेषणों में किया जाता है। ऐल्यूमिनियम सलफ़ेट के साथ अनेक फिटकरियाँ बनती हैं। धातु को नाइट्रोजन या अमोनिया के साथ 800° ताप पर गरम करके ऐल्यूमिनियम नाइट्राइड, (AlN), तैयार किया जा सकता है। सरपेक (Serpek)विधि में ऐल्यूमिना और कार्बन को नाइट्रोजन के प्रवाह में गरम करके यह नाइट्राइड तैयार करते थे। इस प्रकार वायु के नाइट्रोजन का स्थिरीकरण संभव था। बौक्साइट और कार्बन को बिजली की भट्टियों में गलाकर ऐल्यूमिनियम कार्बाइड (Al4 C3) तैयार करते हैं, जो संक्षारण से बचाने में बहुत काम आता है और ऊँचा ताप सहन कर सकता है।[१]
ऐल्यूमिनियम की खनिजी –क्लार्क तथा वाशिंगटन के अनुमान के अनुसार पृथ्वी की सरंचना में ऐल्यूमिनियम का अंश पृथ्वी के भार का 8.13% है। इस प्रकार ऐल्यूमिनियम हमें पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है तथा उसका भांडार प्राय: असमाप्य है।
ऐल्यूमिनियम उद्योग भारत में 6 मार्च, 1943 ई. को प्रारंभ हुआ जब प्रथम बार वाणिज्य स्तर पर धातु का उत्पादन इंडियन ऐल्यूमिनियम कंपनी के अलूपूरम की भट्टिया से हुआ।
ऐल्यूमिनियम उद्योग की आधारभूत आवश्यकताएँ निम्नलिखित हैं :
बौक्साइट–आजकल ऐल्यूमिनियम का सर्वाधिक सामान्य अयस्क बौक्साइट है। बौक्साइट वाणिज्य स्तर पर मुख्यत: इस कारण प्रयुक्त होता है कि इसमें ऐल्यूमिनियम के जलयुक्त (हाइड्रेटेड) आक्साइड होते हैं, जिससे अल्प व्यय एवं सुगमता से ऐल्यूमिना प्राप्त किया जा सकता है। बौक्साइट में तीन जलयुक्त आक्साइड पहचाने गए हैं :
बोकमाइट : ऐल्फ़ा मोनोहाइड्रेट, जिसमें ऐल्यूमिना 85.01% हैं डायसपोर : बीटा मोनोहाइड्रेट, जिसमें ऐल्यूमिना 85.01% हैं गिबसाइट : ऐल्फ़ा ट्राइहाइड्रेट, जिसमें ऐल्यूमिना 65.41% हैं
बौक्साइट एक यथार्थशिला है जा उपरिष्ठ विघटन (सुपरफ़िशल डिकंपोज़िशन) की विधि द्वारा उत्पन्न हुई है। फलत: ऐल्यूमिनियम के अतिरिक्त इसमें लौह तथा टाइटेनियम के आक्साइड भी रहते हैं, जो जलयुक्त मिश्रण के अवशिष्ट संचयन (ऐक्युमुलेशन) का रूप धारण करते हैं। इसमें सिलिका तथा प्रांगारिक पदार्थो की भी कुछ मात्रा रहती है।
भारत के सभी बौक्साइट निक्षेप लैटराइट प्रकार के हैं और उनमें से अधिकांश बेसाल्ट लावा के ऋतुक्षरण द्वारा उत्पन्न हुए हैं। प्राथमिक बौक्साइट साधारणत: ऊँचे मैदानों (प्लेटो) अथवा छोटे सपाट श्रृंगशैलों के टोप के रूप में प्राप्त होता है।
अत्याधुनिक अनुमानों के अनुसार सारे विश्व में बौक्साइट का भांडार दो अरब टन आँका गया है। किंतु इस अनुमान को यदि वास्तविकता से कम कहा जाए तो भी अतिशयोक्ति न होगी, क्योंकि यह भांडार इतना प्रचुर है कि भविष्य में किसी भी आवश्यकता की पूर्ति कर सकने में समर्थ होगा।
भारतीय भूतात्विक समीक्षा द्वारा किए गए आँकड़ों के अनुसार भारत में बौक्साइट का भांडार 20-25 करोड़ टन का है, जिसमें सभी श्रेष्ठताओं का बौक्साइट संमिलित है। यह अनुमान भी अब अविश्वसनीय प्रतीत होने लगा है, क्योंकि संभवत: वास्तविक भांडार इस मात्रा से कहीं अधिक है। कुछ नवीन आँकड़े यह प्रदर्शित करते हैं कि भारत में उच्च श्रेणी के बॉक्साइड की मात्रा लगभग 2.8 करोड़ टन है। इलेक्ट्रो केमिकल सोसाइटी की भारतीय शाखा की अक्टूबर, 1955 ई. की पत्रिका में देश में अच्छे वर्ग के बौक्साइट की अनुमित मात्रा 3.55 करोड़ टन के लगभग बताई गई है। 1957 ई. में फ्रांसीसी प्रतिनिधिमंडल ने, जिसमें फ्रांस की एक सुप्रसिद्ध कंपनी के श्री जे. सेबोट भी थे, निम्नांकित मात्राओं को उपलभ्य बताया है :
क्रं. क्षेत्र भांडार आलोचना
संख्या
1. कटनी क्षेत्र (म.प्र.) 10 लाख टन महत्वपूर्ण नहीं
2. सौराष्ट्र (बंबई)
3. शिवारोय पहाड़ियाँ 30-40 लाख टन लगभग दस वर्षो तक
एक लघु ऐल्युमिनियम कारखाने के लिए पर्याप्त
4. कोल्हापुर क्षेत्र (महाराष्ट्र) 500 लाख टन उत्तम
5. बिलासुपर क्षेत्र (अमर-कई करोड़ टन विशाल कारखाने के कंटक) म.प्र. तथा मैन-अपेक्षाकृत विस्तृत लिए अत्यंत उपयोगी पट निक्षेप (अमरकंटक क्षेत्र में, पर्याप्त से 150 किलोमीटर की लाभप्रद बौक्साइट दूरी पर)म.प्र.
भारत में बौक्साइट का वितरण –बौक्साइट बिहार, उड़ीसा, महाराष्ट्र तमिलनाडु, जम्मू तथा कश्मीर और मध्य प्रदेश आदि प्रांतों में प्रचुर मात्रा में विद्यमान है। बौक्साइट निक्षेपों का विशेष विवरण इस प्रकार है :
बिहार राज्य –बौक्साइट निक्षेप राँची तथा पलामू जिलों में विद्यमान हैं। इन निक्षेपों पर खनन कार्य भी कुछ दिनों से हो रहा है।
ऐल्यूमिनियम कॉर्पोरेशन ऑव इंडिया तथा इंडियन ऐल्यूमिनियम कं. प्रति वर्ष लाखों टन बौक्साइट का खनन इस क्षेत्र से करती हैं।
उड़ीसा राज्य –कालाहाँडी तथा संबलपुर जिलों में बौक्साइट पाया जाता है। ऐल्यूमिनियम के लिए उपयुक्त बौक्साइट की मात्रा केवल 4,00,000 टन तक ही सीमित है।
महाराष्ट्र राज्य –कोल्लापुर तथा बेलगाँव जिलों में बौक्साइट के मुख्य निक्षेप मिलते हैं। इन दोनों में भी कोल्हापुर के निक्षेप विशाल हैं तथा सिलिका कम होने के कारण अधिक उपयोगी हैं। फ्रांसीसी मिशन (1957) के अनुसार कोल्हापुर क्षेत्र के निक्षेपों में पाँच करोड़ टन बौक्साइट है। यद्यपि ये निक्षेप ऐल्यूमिनियम उद्योग के लिए उपयुक्त एवं पर्याप्त हैं, तथापि निक्षेपों के समीप कोयला अथवा अन्य ईधन उपलब्ध न होने के कारण, देश के अन्य स्थानों की तुलना में, इन निक्षेपों का खनन लाभप्रद नहीं है।
तमिलनाडु राज्य –तमिलनाडु में सेलम जिले की शिवारोय पहाड़ियों में बौक्साइट के मुख्य भांडार स्थित हैं। ऐल्यूमिनियम के लिए उपर्युक्त बौक्साइट की मात्रा 30-40 लाख टन है। निक्षेप पूर्णत: गिबसाइट के हैं जिसमें टाइटेनियम आक्साइड तथा सक्रिय (रिऐक्टिव) सिलिका अल्प मात्रा में हैं। अत: यह बौक्साइट ऐल्यूमिनियम उद्योग के लिए अत्यंत लाभप्रद हैं। परंतु इस क्षेत्र में कोयले तथा अन्य ईधन का अभाव है। शिवारोय बौक्साइट प्रौडक्ट कंपनी यहाँ खनन कार्य करती है।
जम्मू तथा कश्मीर –इस प्रदेश के पूँच तथा रियासी जिलों में लगभग 20 लाख टन बौक्साइट प्राप्त होने का अनुमान है। यहाँ का बौक्साइट पूर्णत: डायसपोर (ऐल्यूमिनियम हाइड्रॉक्साइड) के रूप में हैं।
मध्य प्रदेश –यह निर्विवाद है कि भारत में ऐल्यूमिनियम उद्योग के लिए सर्वाधिक उपर्युक्त तथा विशालतम भांडार मध्य प्रदेश में हैं। मुख्य निक्षेप निम्नलिखित क्षेत्रों में विद्यमान हैं :
जबलपुर जिले का कटनी क्षेत्र, बालाघाट जिला, उत्तर पूर्वी मध्य प्रदेश क्षेत्र जिसमें बिलासपुर, सरगुजा, शहडोल, तथा रायगढ़ जिले संमिलित हैं।
कटनी क्षेत्र में बौक्साइट के भांडारों का अनुमान लगभग 46 लाख टन है। कुछ लघु निक्षेप सिहोरा में भी हैं। इस समय यह बौक्साइट घर्षक (अब्रेसिब) तथा रासायनिक उद्यागों के लिए प्रयुक्त होता है।
बालाघाट क्षेत्र में अभी कोई विशेष अन्वेषण कार्य नहीं किया गया है, किंतु यहाँ विशाल निक्षेपों के मिलने की पूर्ण संभावना है।
मध्य प्रदेश के उत्तर -पूर्वी क्षेत्र के निक्षेप अत्यंत महत्वपूर्ण तथा विस्तृत हैं। इस क्षेत्र में अन्वेषण कार्य भी पर्याप्त हो चुका है तथा यहाँ कई करोड़ टन बौक्साइट प्राप्त होने का अनुमान है। फ्रांसीसी कैमरून खनन सेवा की रिपोर्ट के अनुसार यदि अमरकंटक के पश्चिम और दक्षिण-पश्चिम स्थित उच्च स्थलियों का दो तिहाई भी संमिलित कर लिया जाए तो पड़ोस में स्थित बड़े से बड़े ऐल्यूमिनियम कारखाने की आवश्यकता पूरी हो सकेगी। इस क्षेत्र के उपयोगी अयस्क की अनुमानित मात्रा 20 से 30 करोड़ टन तक होगी। मैनपट के निक्षेप अमरकंटक क्षेत्रीय निक्षेपों से अपेक्षाकृत अधिक उपयुक्त हैं। अप्रैल 1974 में कोरबा (मध्य प्रदेश) में भारत ऐल्यूमिनियम कंपनी के 2,00,000 टन क्षमतावाले संयंत्र ने ऐल्यूमिनियम उत्पादन का कार्य प्रारंभ कर दिया है जिसमें इस बौक्साइट का उपयोग होता है।
ऐल्यूमिनियम उद्योग में प्रयुक्त अन्य कच्चे पदार्थ
बेयर विधि द्वारा बौक्साइट से ऐल्यूमिना की प्राप्ति के लिए चूने तथा सोडा भस्म (सोडा देश) अथवा कास्टिक सोडा की आवश्यकता होती है। इन पदार्थो के लिए भारतीय उद्योग को अंशत: आंतरिक एवं अंशत: बाह्म साधनों पर निर्भर रहना पड़ता है। ऐल्यूमिना के विद्युद्विश्लेषण के लिए तापन पदार्थ :
(क) क्रायोलाइट। यह ऐल्यूमिना का विलेय है जिसका आयात ग्रीनलैंड से होता है
(ख) फ़्लोरस्पार तथा ऐल्यूमिनियम फ़्लोराइड : इनकी आवश्यकता तापन समायोजन (बाथ ऐडजस्टमेंट) में होती है। ये विदेशों से आयात किए जाते हैं।
विद्युदग्रों (एलेक्ट्रोड) तथा टंकी के अस्तर के लिए कार्बनिक पदार्थ : पेट्रोलियम कोक डिग्बोई (आसाम) से प्राप्त किया जाता है, जिससे आंशिक पूर्ति होती है। शेष माँग पूरी करने के लिए विदेशों से आयात करना पड़ता है। मृदु पिच, कोक ओवन, अलकतरा और कारखाने की राख बंगाल के कोयला-क्षेत्र से प्राप्त किए जाते हैं।
ऐल्यूमिनियम के कारखाने–इस समय भारत में ऐल्यूमिनियम के कई कारखाने हैं। आसनसोल में स्थित एक कारखाने में ऐल्यूमिना से ऐल्यूमिनिय बनाने की व्यवस्था है। मूरी (टाटानगर में 50 मील दूर) में पहले से ऐल्यूमिना को परिष्कृत करके ऐल्यूमिनियम उत्पन्न करने की व्यवस्था है। ऐसी ही व्यवस्था केरल राज्य में अलवे नामक स्थान पर भी है। सेलम तथा हीराकुंड में 10-10 हजार टन प्रति वर्ष उत्पादन के कारखाने हैं। उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले में रेणुकूट नामक स्थान पर हिंदालको (हिंदुस्तान ऐल्यूमिनियम कार्पोरेशन) का कारखाना है जो इस समय भारत में ऐल्युमिनियम का सबसे बड़ा कारखाना है। मार्च, 1960 ई. में इस कारखाने ने उत्पादन प्रारंभ कर दिया था। प्रारंभ में इसका वार्षिक उत्पादन केवल 20,000 टन था परंतु 1969 ई. में बढ़कर यह 80,000 टन प्रति वर्ष और 1972 ई. में 1,20,000 टन प्रति वर्ष हो गया था।
अप्रैल, 1974 ई. में कोरबा (मध्य प्रदेश) में भारत ऐल्यूमिनियम कंपनी के 2,00,000 टन क्षमतावाले कोरबा ऐल्युमिना संयंत्र ने उत्पादन कार्य आरंभ कर दिया है। 1,00,000 टन की अधिकतम क्षमतावाला इसका प्रदावक (smelter) 1974 ई. के अंत से प्रारंभ होकर 1975 ई. के अंत तक विभिन्न चरणों में काम करने लगेगा।
भारत ऐल्यूमिनियम कंपनी का रत्नगिरि (महाराष्ट्र) में भी एक ऐल्यूमिनियम संयंत्र 1975-76 ई. तक कार्य करने लगेगा जिसकी उत्पादन क्षमता प्रतिवर्ष 50,000 टन होगी। पाँचवीं योजना के अंतिम चरण तक इन दोनों संयंत्रों की क्षमता 2,80,000 टन तक होने की संभावना है। इस धातु में 1976 ई. तक देश आत्मनिर्भर हो जाएगा।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सं.ग्रं.–जे. डब्ल्यू. मेलोर : कॉम्प्रिहेन्सिव ट्रीटिज़ ऑन इनॉर्गेनिक ऐंड थ्योरेटिकल केमिस्ट्री, खंड 5 (1924); ए.जे. फ़ील्ड (अनुवादक); द टेकनॉलोजी ऑव ऐल्यूमिनियम ऐंड इट्स लाइट ऐलॉयज़ (1936)।