कनफ़ूशस्
कनफ़ूशस्
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 2 |
पृष्ठ संख्या | 386-388 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पांडेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1975 ईसवी |
स्रोत | जे. लेगी : द लाइफ़ ऐंड टीचिंग्स ऑव कनफ़ूशस् (भाग १); आर. के. डगलस: कनफ़ूशनिज़्म ऐंड ताओइज़्म; एच.ए. गाइल्स : कनफ़ूशनिज़्म इन द नाइंटींथ सेंचुरी; डब्ल्यु. ई. सूथिल : दि एनालेक्ट्स ऑव कनफ़ूशस्; एन.एम. डासन : दि एथिक्स ऑव कनफ़ूशस्; डब्ल्यु. जे. क्लेनेल: द हिस्टारिकल डेवलपमेंट ऑव रिलीजन इन चाइना; लिन यू ताँग : द विज़डम ऑव कनफ़ूशस् । |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | श्रीकृष्ण सक्सेना |
इतिहासकार स्ज़ेमा चिएन के मतानुसार कनफ़ूशस् का जन्म ५५० ई.पू. में हुआ। उनका जातीय नाम कुंग था। कुंग फूत्से का लातीनी स्वरूप ही कनफ़ूशस् है। जिसका अर्थ होता है 'दर्शनिक कुंग'। वर्तमान शांतुंग कहलानेवाले प्राचीन लू प्रदेश का वह निवासी था, और उसका पिता शू-लियागहीह त्साऊ जिले का सेनापति था। कनफ़ूशस् का जन्म अपने पिता की वृद्धावस्था में हुआ जो उसके जन्म के तीन वर्ष के उपरांत ही स्वर्गवासी हो गया। पिता की मृत्यु के पश्चात् उसका परिवार बड़ी कठिन परिस्थितियों में फँस गया, जिससे उसका बाल्यकाल बड़ी ही आर्थिक विपन्नता में व्यतीत हुआ। परंतु उसने अपनी इस निर्धनता को ही आगे चलकर अपनी विद्वता तथा विभिन्न कलाओं में दक्षता का कारण बनाया। जब वह केवल पाँच वर्ष का था तभी से अपने साथियों के साथ जो खेल खेलता उसमें धार्मिक संस्कारों तथा विभिन्न कलाओं के प्रति उसकी अभिरुचि स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती थी। १९ वर्ष की अवस्था में सुंग नामक प्रदेश की एक कन्या से उसका विवाह हो गया। विवाह के दूसरे वर्ष उसके एक पुत्र उत्पन्न हुआ और उसके पश्चात् दो कन्याएँ। विवाह के थोड़े ही दिन पश्चात् त्साऊ नामक जिले के स्वामी के यहाँ, जो की जाति का प्रधान था, उसे नौकरी मिल गई।
२२ वर्ष की अवस्था में कनफ़ूशस् ने एक विद्यालय की स्थापना की। इसमें ऐसे युवक और प्रौढ़ शिक्षा ग्रहण करते थे, जो सदाचरण एवं राज्य संचालन के सिद्धांतों में पारंगत होना चाहते थे। अपने शिष्यों से वह यथेष्ट आर्थिक सहायता लिया करता था। परंतु कम से कम शुल्क दे सकनेवाले विद्यार्थी को भी वह अस्वीकार नहीं करता था; किंतु साथ ही ऐसे शिक्षार्थियों को भी वह अपने शिक्षाकेंद्र में नहीं रखता था जिनमें शिक्षा और ज्ञान के प्रति अभिरुचि तथा बौद्धिक क्षमता नहीं होती थी। ५१७ ई.पू. में दो सिअन युवक अपने जातीय प्रधान के मृत्युकालीन आदेश के अनुसार कनफ़ूशस की शिष्यमंडली में सम्मिलित हुए। उन्हीं के साथ वह राजधानी गया, जहाँ उसने राजकीय पुस्तकालय की अमूल्य पुस्तकों का अवलोकन किया ओर तत्कालीन राजदरबार में प्रचलित उच्च कोटि के संगीत का अध्ययन किया। वहाँ उसने कई बार ताओवाद के प्रवर्तक लाओत्से से भेंट की और उससे बहुत प्रभावित भी हुआ।
जब कनफ़ूशस् लौटकर लू प्रदेश में आया तो उसने देखा, प्रदेश में बड़ी अराजकता उत्पन्न हो गई हैं। मंत्रियों से झगड़ा हो जाने के कारण उक्त प्रदेश का सामंत भागकर पड़ोस के त्सी प्रदेश में चला गया है। कनफ़ूशस् को ये सब बातें रुचिकर नहीं लगीं और वह भी अपनी शिष्यमंडली के साथ त्सी प्रदेश को चल दिया। कहा जाता है, जब वे लोग एक पर्वत के बीच से जा रहे थे तब उन्हें वहाँ एक स्त्री दिखाई दी जो किसी कब्र के पास बैठी विलाप कर रही थी। कारण पूछने पर उसने बताया कि एक चीते ने वहाँ पर उसे श्वसुर को मार डाला था, इसके बाद उसके पति की भी वहीं दशा हुई और अब उसके पुत्र को चीते ने मार डाला है। इसपर उस स्त्री से यह प्रश्न किया गया कि वह ऐसे वन्य तथा भयंकर स्थान में क्यों रहती है, तो उसने उत्तर दिया कि उस क्षेत्र में कोई दमनकारी सरकार नहीं है। इसपर कनफ़ूशस् ने अपने शिष्यों को बताया कि क्रूर एवं अनुत्तरदायी सरकार चीते से भी अधिक भयानक होती है।
कनफ़ूशस् को त्सी में भी रहना नहीं रुचा। वहाँ के शासक के दरबारियों ने उसकी बड़ी आलोचना की, उसे अगणित विचित्रताओं से भरा हुआ अव्यावहारिक तथा आत्माभिमानी मनुष्य बताया, फिर भी वहाँ का शासक सामंत उसका बहुत आदर करता था और उसने उसे राजकीय आय का बहुत बड़ा भाग समर्पित करने का प्रस्ताव किया। किंतु कनफ़ूशस् ने कुछ भी लेना स्वीकार न किया और स्पष्ट रूप से कह दिया कि यदि उसके परामर्शो पर राज्य का संचालन न किया गया तो उसे किसी भी प्रकार की सहायता या प्रतिष्ठा स्वीकृत न होगी। असंतुष्ट मन से वह लू प्रदेश को पुन: लौट आया और लगभग १५ वर्ष तक एकांत जीवन व्यतीत करता हुआ स्वाध्याय में दत्तचित्त रहा। ५२ वर्ष की अवस्था में उसे चुंगतू प्रदेश का मुख्य न्यायाधीश बना दिया गया। उसके इस पद पर आते ही जनता के व्यवहार में आश्चर्यजनक सुधार दिखाई देने लगा। तत्कालीन सामंत शासक ने, जो विगत भागे हुए सांमत का छोटा भाई था, कनफ़ूशस् को अधिक उच्च पद प्रदान किया और अंत में उसे अपराध विभाग का मंत्री नियुक्त कर दिया। इसी समय उसके दो शिष्यों को भी उच्च एवं प्रभावशाली पद प्राप्त हो गए। अपने इन शिष्यों की सहायता से कनफ़ूशस् ने जनता के आचार एवं व्यवहार में बहुत अधिक सुधार किया। शासन का जैसे कायापलट हो गया, बेईमानी और पारस्परिक अविश्वास दूर हो गए। जनता में उसका बड़ा आदर सम्मान होने लगा और वह सबका पूज्य बन गया।
कनफ़ूशस् के इस बढ़ते हुए प्रभाव से त्सी के सामंत और उसके मंत्रिगण आतंकित हो उठे। उन्होंने सोचा कि यदि कनफ़ूशस् इसी प्रकार अपना कार्य करता रहा तो संपूर्ण राज्य में लू प्रदेश का प्रभाव सर्वाधिक हो जाएगा और त्सी प्रदेश को बड़ी क्षति पहुँचेगी। पर्याप्त विचारविमर्श के पश्चात् त्सी के मंत्रियों ने संगीत एवं नृत्य में कुशल अत्यंत सुंदर तरुणियों का एक दल लू प्रदेश को भेजा। यह चाल चल गई। लू की जनता ने इन विलासिनी रमणियों का खूब स्वागत किया। जनता का ध्यान इनकी ओर आकृष्ट होने लगा और उसने संत कनफ़शस् के परामर्शो तथा आदर्शो की अवहेलना आरंभ कर दी। कनफ़ूशस् को इससे बड़ा खेद हुआ और उसने लू प्रदेश छोड़ देने का विचार किया। सामंत भी उसकी अवहेलना करने लगा। किसी एक बड़े बलिदान के पश्चात् मांस का वह भाग कनफ़ूशस् के पास नहीं भेजा जो उसे नियमानुसार उसके पास भेजना चाहिए था। कनफ़ूशस् को राज्यसभा छोड़ देने का यह अच्छा अवसर मिला और वह धीरे-धीरे वहाँ से अलग होकर चल दिया। यद्यपि वह बड़े बेमन से जा रहा था और यह आशा करता था कि शीघ्र ही सामंत की बुद्धि सन्मार्ग पर आ जाएगी और उसे वापस बुला लेगा किंतु ऐसा हुआ नहीं और इस महात्मा को अपने जीवन के ५६ वें वर्ष में इधर-उधर विभिन्न प्रदेशों में भटकने के लिए चल देना पड़ा।
१३ वर्ष तक कनफ़ूशस् विभिन्न प्रदेशों का भ्रमण इस आशा से करता रहा कि उसे कोई ऐसा सामंत शासक मिल जाए जो उसे अपना मुख्य परामर्शदाता नियुक्त कर ले और उसके परामर्शो पर शासन का संचालन करे जिससे उसका प्रदेश एक सार्वदेशिक सुधार का केंद्र बन जाए, किंतु उसकी सारी आशाएँ व्यर्थ सिद्ध हुई। शासकगण उसका सम्मान करते थे, उसको प्रतिष्ठा एवं आदर सम्मान तथा राजकीय सहायता देने के लिए उद्यत थे, किंतु कोई उसके परामर्शो को मानने और अपनी कार्यप्रणाली में परिवर्तन करने के लिए तैयार न था। इस प्रकार १३ वर्ष भ्रमण करने के पश्चात् अपने जीवन के ६९ वें वर्ष में कनफ़ुशस् फिर से लू प्रदेश में वापस लौट आया। इसी समय उसका एक शिष्य एक सैनिक अभियान में सफल हुआ और उसने प्रदेश के महामंत्री को बताया कि उसने अपने गुरु द्वारा प्रदत्त शिक्षा और ज्ञान के आधार पर ही उक्त सफलता प्राप्त की। इस शिष्य ने महामंत्री से कनफ़ुशस् को पुन: उसका पद प्रदान करने की प्रार्थना की और वह मान भी गया, किंतु कनफ़ूशस् ने दुबारा राजकीय पद ग्रहण करना स्वीकार नहीं किया और अपने जीवन के अंतिम दिन अपनी साहित्यिक योजनाओं की पूर्ति तथा शिष्यों को ज्ञानदान करने में लगा देना उसने अधिक श्रेयस्कर समझा। ४८२ ई.पू. में उसके पुत्र का स्वर्गवास हो गया, किंतु जब ४८१ ई.पू. में उसके अत्यंत प्रिय शिष्य येनह्यइ की मृत्यु हो गई तब वह बहुत ही शोकाकुल हुआ। उसके एक और शिष्य त्जे तू की भी मृत्यु कुछ समय पश्चात् हो गई। एक दिन प्रात: काल वह अपने द्वार पर टहलते हुए कह रहा था:
ऊँचा पर्वत अब नीचे गिरेगा
मजबूत शहतीर टूटनेवाली है
बुद्धिमान मनुष्य भी पौधे के समान नष्ट हो जाएँगे।
उसका शिष्य त्जे कुंग यह सुनकर तुरंत उसके पास आया। कनफ़ूशस् ने उससे कहा कि पिछली रात मैंने एक स्वप्न देखा है, जिससे मुझे संकेत मिला कि मेरा अंत अब निकट है। उसी दिन से कनफ़ूशस् ने शैया ग्रहण की और सात दिन पश्चात् वह महात्मा इस लोक से विदा हो गया। उसके अनुयायियों ने बड़ी धूमधाम से उसके शरीर को समाधिस्थ किया। उनमें से बहुत से तीन वर्ष तक उसी स्थान पर शोकप्रदर्शन के लिए बैठे रहे और उसका सर्वप्रिय शिष्य त्जे कुंग तो अगले तीन वर्ष भी उसी स्थान पर जमा रहा। कनफ़ूशस् की मृत्यु का समाचार सभी प्रदेशों में फैल गया और जिस महापुरुष को उसके जीवनकाल में इतनी अवहेलना की गई थी, मृत्यु के उपरांत वह सर्वप्रशंसा और आदर का पात्र बन गया। कुइफ़ाउ नगर के बाहर कुंग समाधिस्थल से अलग कनफ़ूशस् की समाधि अब भी विद्यमान है। समाधि के सामने संगमरमर का एक चौखटा लगा हुआ है जिसपर यह अभिलेख अंकित है :
प्राचीन महाज्ञानी सतगुरु, संपूर्ण विद्याओं में पारंगत, सर्वज्ञ नराधिप।
कनफ़ूशस् की रचनाएँ
कनफ़ूशस् ने कभी भी अपने विचारों को लिखित रूप देना आवश्यक नहीं समझा। उसका मत था कि वह विचारों का वाहक हो सकता है, उनका स्रष्टा नहीं। वह पुरातत्व का उपासक था, कयोंकि उसका विचार था कि उसी के माध्यम से यथार्थ ज्ञान प्राप्त प्राप्त हो सकता है। उसका कहना था कि मनुष्य को उसके समस्त कार्यकलापों के लिए नियम अपने अंदर ही प्राप्त हो सकते हैं। न केवल व्यक्ति के लिए वरन् संपूर्ण समाज के सुधार और सही विकास के नियम और स्वरूप प्राचीन महात्माओं के शब्दों एवं कार्यशैलियों में प्राप्त हो सकते हैं। कनफ़ूशस् ने कोई ऐसा लेख नहीं छोड़ा जिसमें उसके द्वारा प्रतिपादित नैतिक एवं सामाजिक व्यवस्था के सिद्धांतों का निरूपण हो। किंतु उसके पौत्र त्जे स्जे द्वारा लिखित 'औसत का सिद्धांत'(अंग्रेजी अनुवाद, डाक्ट्रिन ऑव द मीन) और उसके शिष्य त्साँग सिन द्वारा लिखित 'महान् शिक्षा' (अंग्रेजी अनुवाद, द ग्रेट लर्निंग) नामक पुस्तकों में तत्संबंधी समस्त सूचनाएँ प्राप्त होती हैं। 'बसंत और पतझड़' (अंग्रेजी अनुवाद, स्प्रिंग ऐंड आटम) नामक एक ग्रंथ, जिसे लू का इतिवृत्त भी कहते हैं, कनफ़ूशस् का लिखा हुआ बताया जाता है। यह समूची कृति प्राप्त है और यद्यपि बहुत छोटी है तथापि चीन के संक्षिप्त इतिहासों के लिए आदर्श मानी जाती है।
शिष्य मंडली
कनफ़ूशस् के शिष्यों की संख्या सब मिलाकर प्राय: ३,००० तक पहुँच गई थी, किंतु उनमें से ७५ के लगभग ही उच्च कोटि के प्रतिभाशाली विद्वान् थे। उसके परम प्रिय शिष्य उसके पास ही रहा करते थे। वे उसके आसपास श्रद्धापूर्वक उठते बैठते थे और उसके आचरण की सूक्ष्म विशेषताओं पर ध्यान दिया करते थे तथा उसके मुख से निकली वाणी के प्रत्येक शब्द को हृदयंगम कर लेते और उसपर मनन करते थे। वे उससे प्राचीन इतिहास, काव्य तथा देश की सामजिक प्रथाओं का अध्ययन करते थे।
सामाजिक और राजनीतिक विचार
कनफ़ूशस् का कहना था कि किसी देश में अच्छा शासन और शांति तभी स्थापित हो सकती है जब शासक, मंत्री तथा जनता का प्रत्येक व्यक्ति अपने स्थान पर उचित कर्तव्यों का पालन करता रहे। शासक को सही अर्थो में शासक होना चाहिए, मंत्री को सही अर्थो में मंत्री होना चाहिए। कनफ़ूशस् से एक बार पूछा गया कि यदि उसे किसी प्रदेश के शासनसूत्र के संचालन का भार सौंपा जाए तो वह सबसे पहला कौन सा महत्वपूर्ण कार्य करेगा। इसके लिए उसका उत्तर था–'नामों में सुधार'। इसका आशय यह था कि जो जिस नाम के पद पर प्रतिष्ठित हो उसे उस पद से संलग्न सभी कर्तव्यों का विधिवत् पालन करना चाहिए। जिससे उसका वह नाम सार्थक हो। उसे उदाहरण और आदर्श की शक्ति में पूर्ण विश्वास था। उसका विश्वास था कि आदर्श व्यक्ति अपने सदाचरण से जो उदाहरण प्रस्तुत करते हैं, आम जनता उनके सामने निश्चय ही झुक जाती हे। यदि किसी देश के शासक को इसका भली भाँति ज्ञान करा दिया जाए कि उसे शासन कार्य चलाने में क्या करना चाहिए और किस प्रकार करना चाहिए तो निश्चय ही वह अपना उदाहरण प्रस्तुत करके आम जनता के आचरण में सुधार कर सकता है और अपने राज्य को सुखी, समृद्ध एवं संपन्न बना सकता है। इसी विश्वास के बल पर कनफ़ुशस् ने घोषणा की थी कि यदि कोई शासक १२ महीने के लिए उसे अपना मुख्य परामर्शदाता बना ले तो वह बहुत कुछ करके दिखा सकता है और यदि उसे तीन वर्ष का समय दिया जाए तो वह अपने आदर्शो और आशाओं को मूर्त रूप प्रदान कर सकता है।
कनफ़ूशस् ने कभी इस बात का दावा नहीं किया कि उसे कोई दैवी शक्ति या ईश्वरीय संदेश प्राप्त होते थे। वह केवल इस बात का चिंतन करता था कि व्यक्ति क्या है और समाज में उसके कर्तव्य क्या हैं। उसने शक्तिप्रदर्शन, असाधारण एवं अमानुषिक शक्तियों, विद्रोह प्रवृत्ति तथा देवी देवताओं का जिक्र कभी नहीं किया। उसका कथन था कि बुद्धिमत्ता की बात यही है कि प्रत्येक व्यक्ति पूर्ण उत्तरदयित्व और ईमानदारी से अपने कर्तव्य का पालन करे और देवी देवताओं का आदर करते हुए भी उनसे अलग रहे। उसका मत था कि जो मनुष्य मानव की सेवा नहीं कर सकता वह देवी देवताओं की सेवा क्या करेगा। उसे अपने और दूसरों के सभी कर्तव्यों का पूर्ण ध्यान था, इसीलिए उसने कहा था कि बुरा आदमी कभी भी शासन करने के योग्य नहीं हो सकता, भले ही वह कितना भी शक्तिसंपन्न हो। नियमों का उल्लंघन करनेवालों को तो शासक दंड देता ही है, परंतु उसे कभी यह नहीं भूलना चाहिए कि उसके सदाचरण के आदर्श प्रस्तुत करने की शक्ति से बढ़कर अन्य कोई शक्ति नहीं है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ