ज्वार
ज्वार
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 5 |
पृष्ठ संख्या | 91-93 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | फूलदेवसहाय वर्मा |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1965 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | नर्मदेवर प्रसाद |
ज्वार समुद्र का जल निरंतर चढ़ता और उतरता रहता है। समुद्रजल के इस प्रकार चढ़ाने और उतरने के अनेक कारण हैं। वायु द्वारा संचालित तरंगें भी पानी को उठाती एवं गिराती रहती हैं। कभी कभी भयंकर आँधियों से प्रभावित होकर समुद्र भयावह हो जाता है। तेज भूकंप द्वारा भी ऊँची लहरें प्रतीत होती हैं। इन लहरों अथवा तरंगों के अतिरिक्त समुद्र का जल नियमित रूप से प्रति दिन दो बार चढ़ता एवं उतरता है। इस नियमित चढ़ाव को ज्वार एवं उतार को भाटा कहते हैं। इनकी उत्पत्ति का मुख्य कारण चंद्रमा की गुरुत्वाकर्षण शक्ति हैं।
सूर्य और चंद्रमा निरंतर पृथ्वी को अपनी ओर आकर्षित करते रहते हैं और पृथ्वी भी इन्हें अपनी ओर आकर्षित करती है। सूर्य पृथ्वी से लगभग १३ लाख गुना बड़ा है, जबकि चंद्रमा पृथ्वी के आकार का १/५० है। अत: सूर्य की आकर्षण शक्ति चंद्रमा की आकर्षण शक्ति की अपेक्षा अधिक होनी चाहिए। किंतु सूर्य पृथ्वी से लगभग १५ करोड़ किमीo की दूरी पर स्थित है जबकि चंद्रमा की दूरी पृथ्वी से केवल ३,८४,००० किमीo ही है। इसलिये निकट होने के कारण पृथ्वी पर चंद्रमा की आकर्षण शक्ति सूर्य की शक्ति की अपेक्षा अधिक बलशाली है। इस शक्ति के प्रभाव से महासागरों का जल, तरल एवं गतिमान (mobile) होने के कारण, चंद्रमा की दिशा में कुछ खिंच जाता है। वैसे, चंद्रमा की इस शक्ति का प्रभाव तो पृथ्वी के ठोस धरातल पर भी पड़ता है, किंतु वहाँ इसका परिणाम नगण्य है।
महान् गणितज्ञ सर आइजैक न्यूटन द्वारा प्रतिपादित गुरुत्वाकर्षण के नियम किसी वस्तु का गुरुत्वाकर्षण उसकी मात्रा का समानुपाती तथा उसकी दूरी के वर्ग का प्रतिलोमानुपाती होता है। ज्वार की उत्पत्ति में इस नियम का सही सही पालन होता है। नीचे दिया गया चित्र इस कथन की पुष्टि करता है।
चंद्रमा का गुरुत्वाकर्षण पृथ्वी के विभिन्न खंडों पर समान नहीं होता। ऊपर दिए गए चित्र में, यदि धरातल का क स्थान चंद्रमा के ठीक नीचे हो और ग स्थान क के विपरीत विकर्णभिमुख (diagonally opposite) हो तो क से ग तक दूरी की वृद्धि के कारण चंद्रमा की गुरुत्वाकर्षण शक्ति में क्रमश: ्ह्रास होता जायगा। चित्र में ख पृथ्वी का गुरुत्वकेंद्र है और चंद्रमा पृथ्वी को अपनी ओर खींचता है। चंद्रमा का गुरुत्वाकर्षण ख बिंदु की अपेक्षा क पर अधिक और ग पर कम शक्तिशाली होगा। चंद्रमा से ख की औसत दूरी ३,८४,००० किमीo है जबकि क और ग से दूरी क्रमश: ३,७७,६६० किमीo और ३,९०,३४० किमीo है। अत: यदि चंद्रमा का गुरुत्वाकर्षण ख पर १ है तो १.०३३ और ग पर ०९६६ होगा। इस बलांतर के कारण महासागरीय जल क स्थान पर पृथ्वी से पृथक् होकर चंद्रमा की दिशा में अग्रसर होने की प्रवृत्ति रखता है तथा इसके विपरीत ग स्थान पर पृथ्वी से पृथक् होकर पीछे छूटने की उसकी प्रवृत्ति होती है। किंतु पृथ्वी का निजी गुरुत्वाकर्षण इसे पृथक् तो नहीं होने देता, केवल क और ग स्थान पर चतुर्दिक् दिशाओं का जल खींचकर अन्य भागों की अपेक्षा कुछ ऊपर उठ जाता है। इसे ज्वार कहते हैं। हम जानते हैं कि चंद्रमा २४ १/२ दिन में एक बार पृथ्वी की परिक्रमा करता है। परंतु वास्तविक सत्य तो यह है कि पृथ्वी और चंद्रमा दोनों ही एक कल्पित केंद्र की परिक्रमा करते हैं। यह कल्पित केंद्र पृथ्वी में ही, धरातल से लगभग १,६०० किमीo नीचे, स्थित है। पृथ्वी इस केंद्र की परिक्रमा एक चांद्रमास में पूरी करती है। इसकी इस मासिक गति से उत्पन्न अपकेंद्री बल (centrifugal force) भी ज्वार की उत्पत्ति में सहायक होता है।
ज्वार का उभार सर्वत्र समान नहीं होता। कहीं कहीं ज्वार पर्याप्त ऊँचा उठता है और कहीं कम। महासागरों के बीचवाले खुले भाग में ज्वार की ऊँचाई कम होती है। दूसरी बात यह है कि चंद्रमा का भ्रमणपथ दीर्घवृत्ताकार होने के कारण पृथ्वी से चंद्रमा की दूरी बढ़ती घटती रहती है। अत: चंद्रमास के प्रत्येक दिन, पृथ्वी पर चंद्रमा का गुरुत्वाकर्षण समान नहीं रहता। इसके परिणामस्वरूप प्रत्येक स्थान पर ज्वार की ऊँचाई घटती बढ़ती रहती है।
क्योंकि ज्वार दो परस्पर विलोमी देशांतरों पर एक साथ आता है, इसलिये पृथ्वी की दैनिक गति के कारण सागर के किसी भी स्थान पर ज्वार प्रति दिन दो बार आता है। ज्वार से प्रभावित देशांतरों से ९० अंश (समकोण) पर स्थित देशांतरों पर सागर का स्तर नीचा रहता है, जिसे भाटा कहते हैं। यद्यपि ज्वार सागर के किसी भी स्थान पर प्रति दिन दो बार आता है, तथापि उनका अंतर ठीक १२ घंटे नहीं होता। इसका यह कारण है कि चंद्रमा द्वारा पृथ्वी की परिक्रमा लगभग २४ १/२ दिन में पूरी होती है। पृथ्वी अपने अक्ष पर पश्चिम से पूर्व निरंतर घूमती रहती है और चंद्रमा उसी दिशा में चलकर पृथ्वी की परिक्रमा करता है। इस मासिक गति के परिणामस्वरूप चंद्रमा प्रति दिन १२.२ पूर्व की ओर अग्रसर होता है। अत: पृथ्वी का प्रत्येक देशांतर २४ घंटे ५० मिनट के अंतर पर चंद्रमा के ठीक समक्ष आता है। यही कारण है कि ज्वार प्रत्येक दिन पिछले दिन की अपेक्षा ५० मिनट देर से आता है। चूँकि प्रति दिन ज्वार दो बार आता है, इसलिये किसी भी स्थान पर ज्वार नियमित रूप से १२ घंटे २५ मिनट के अंतर पर आता रहता है। ठीक इसी प्रकार भाटा भी १२ घंटे २५ मिनट के अंतर पर आता है। अत: ज्वार और भाटा के बीच ६ घंटे १३ मिनट का अंतर होता है। सागरतट पर जलस्तर का निरीक्षण करने से ज्वार एवं भाटा के समय के जलस्तर का अंतर नापा जा सकता है। वह अंतर नियत नहीं, वरन् परिवर्ती होता है।
ज्वार के संबंध में विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि पृथ्वी पर स्थित विभिन्न सागरों में ज्वार चंद्रमा की आभासी (apparent) गति के साथ नहीं चलता, अर्थात् किसी सागरतट पर ज्वार उस समय नहीं आता जब चंद्रमा उस देशांतर के ठीक ऊपर से जाता है, वरन् कुछ घंटे बाद आता है। किसी किसी स्थान पर तो ज्वार चंद्रमा के उस देशांतर से हटने के बहुत बाद आता है। समय के इस अंतर को ज्वार विलंब (tidal lag) कहते हैं। इसका कारण महासागरों की अवरत स्थिति है। महासागरों के बीच महाद्वीपों की स्थिति होने के कारण ज्वार चंद्रमा का साथ नहीं दे पाता। दक्षिणी गोलार्ध में महाद्वीपीय विस्तार के दक्षिण, जलाशय का अनवरत विस्तार है जहाँ ज्वार चंद्रमा के लगभग साथ साथ चलता है; किंतु अंध महासागर, प्रशांत महासागर और हिंद सागर के उन भागों में जहाँ पूर्व तथा पश्चिम में महाद्वीप स्थित हैं, ज्वार दक्षिण से उत्तर की ओर प्रवेश करता है, जिससे उत्तर की ओर ज्वार आने में विलंब होता है ओर इस ज्वारविलंब की अवधि क्रमश: उत्तर की ओर बढ़ती जाती है।
यदि सागरतट के किसी स्थान पर जलस्तर की ऊँचाई आधे आधे घंटे के अंतर पर देखी जाय और उसे रेखांकित किया जाय तो ज्वार एवं भाटा के समय जलस्तर कुछ देर तक स्थिर प्रतीत होता है। किंतु भाटा और ज्वार के बीच की अवधि में जलस्तर निरंतर चढ़ता रहता है। ठीक इसी प्रकार ज्वार और भाटा के बीच की अवधि में जलस्तर निरंतर उतरता रहता है।
प्रत्येक स्थान पर ज्वार की ऊँचाई समान नहीं होती तथा किसी भी स्थान पर ज्वार प्रति दिन समान ऊँचाई पर नहीं उठता। दैनिक ज्वार की ऊँचाई सात दिन तक निरंतर घटती है। ज्वार की ऊँचाई बढ़ने और घटने का यह कार्यक्रम नियमित रूप से चलता रहता है। इसका कारण चंद्रमा और सूर्य की आपेक्षिक स्थिति है।
पूर्णिमा के दिन पृथ्वी, सूर्य तथा चंद्रमा के बीच स्थित रहती है और अमावस्या के दिन चंद्रमा, पृथ्वी एवं सूर्य के बीच स्थित रहता है। अत: पूर्णिमा और अमावस्या के दिन, सूर्य और चंद्रमा पृथ्वी के साथ एक सीध में होते हैं। इस अवसर पर दोनों के गुरुत्वाकर्षण का योग पृथ्वी को प्रभावित करता है, जिसके परिणामस्वरूप इन दो तिथियों पर ज्वार अन्य दिनों की अपेक्षा अधिक ऊँचा आता है। इसे दीर्घ ज्वार कहते हैं। दीर्घ ज्वार के दिन भाटा अन्य दिनों की अपेक्षा नीचा होता है।
कृष्ण एवं शुक्ल पक्ष की सप्तमी के दिन, चंद्रमा तथा सूर्य पृथ्वी पर समकोण बनाते हैं। अत: उन तिथियों को सूर्य का गुरुत्वाकर्षण चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण में योग देने के विपरीत उसमें ्ह्रास लाता है। इसलिये सप्तमी के दिन ज्वार अन्य दिन की अपेक्षा कम ऊँचाई तक उठता है। इसे लघु ज्वार कहते हैं। लघु ज्वार के दिन भाटा अन्य दिन की अपेक्षा ऊँचा होता है।
ज्वार भाटा से मानव जाति को अनेक लाभ होते हैं। इससे समय का ठीक ठीक ज्ञान होता है। नदियों के मुहाने पर गंदगी एकत्रित नहीं हो पाती। मुहाना साफ रहता है। यातायात में सहायता मिलती है। ज्वार नदीतटस्थ नगरों का कूड़ा कर्कट खुले समुद्र तक पहुंचा देता है और बड़े बड़े समुद्री पोतों के लिये अगम्य पोताश्रयों को सुगम्य बना देता है।
ज्वारतरंग
अविराम महासागरीय भागों में ज्वार क्रमश: एक ही दिशा में निरंतर अग्रसर होता रहता है। इस प्रकार के गतिमान ज्वार को ज्वारतरंग कहते हैं। दक्षिणी गोलार्ध में, महाद्वीपों के दक्षिण में, ज्वारतरंग पूर्व से पश्चिम की दिशा में बढ़ते हैं। इनकी शाखाएँ अंध महासागर, प्रशांत महासागर, एवं हिंद महासागर में प्रवेश करती हैं और दक्षिण से उत्तर की दिशा में बढ़ती हैं। इनकी गति महासागर के प्रत्येक भाग में समान नहीं होती। महासागर के मध्य में जल की गहराई अधिक होने के कारण ज्वारतरंगों की गति तीव्र होती है, किंतु तटों की ओर कम गहराई के कारण इनकी गति अपेक्षाकृत मंद होती है। अत: ये तरंगें सीधी न होकर बीच में उत्तर को मुड़ी हुई, वक्राकार रूप धारण कर लेती हैं। इसका परिणाम यह होता है कि उत्तरी अंधमहासागर में अमरीका के पूर्वी तट पर ज्वारतंरग पूर्व से पश्चिम की ओर यूरोप के पश्चिमी तट पर पश्चिम से पूर्व की ओर बढ़ती हैं।
ज्वार धारा
समुद्री खाड़ियों में भी ज्वार आता है, किंतु सभी खाड़ियाँ समान आकार की नहीं होतीं। ी
जो खाड़ियाँ खुले सागर से संकीर्ण मार्गों द्वारा जुड़ी होती हैं उनमें धाराएँ बहती हैं। इन्हें ज्वारधारा कहते हैं। इनका वेग अति तीव्र होता है। ज्वार के समय जब सागर में जलस्तर ऊपर चढ़ आता है तब बड़ी तीव्र गति से ज्वारधारा खाड़ी के संकीर्ण मार्ग में प्रवेश करती है। ठीक इसी प्रकार भाटा के समय जब सागर का जलस्तर नीचे उतर आता है तब खाड़ी में एकत्रित जल तीव्र गति से बाहर निकलता है। ये धाराएँ मार्ग की संकीर्णता के कारण उत्पन्न होती हैं।
ज्वारनदी एवं निवेषिका
सागर में गिरनेवाली नदी का निचला भाग एवं निवेषिका भी ज्वार से प्रभावित होती है। इन्हें ज्वारनदी एवं निवेषिका की संज्ञा दी जाती है। समुद्री ज्वार मुहाने से प्रवेश कर कुछ दूर तक आते हैं। ऐसी नदियों एवं ज्वारनिवेषिका में दिन में दो बार जल चढ़ता एवं उतरता है। ज्वार के आगे बढ़ने अथवा पीछे हटने की गति जल की गहराई पर निर्भर करती है। जब नदियों में ज्वार आता है तब जलस्तर चढ़ने के कारण जल की गहराई क्रमश: बढ़ती है। ठीक उसी प्रकार भाटा के समय जल की गहराई जलस्तर के उतरने के कारण क्रमश: घटती है। अत: ज्वारीय नदियों में जल तीव्र गति से चढ़ता है एवं अपेक्षाकृत मंद गति से उतरता है। नदियों का यह ज्वार समुद्री यातायात में सहायक होता है। जो जलपोत साधारण अवस्था में नदी में प्रवेश नहीं कर पाते, वे भी ज्वार के साथ सुगमता से प्रवेश कर जाते हैं। मशीन युग से पूर्व जब विशाल जलपोत हवा के सहारे समुद्रों में चलते थे, उस समय ज्वार की सहायता से वे नदियों में प्रवेश करते थे और भाटा के समय बाहर समुद्र की ओर प्रस्थान करते थे।
ज्वार बल
सूर्य एवं चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण के परिणामस्वरूप पृथ्वी पर ज्वार उत्पन्न होता है। पृथ्वी की दैनिक गति के कारण ज्वार निरंतर पश्चिम की ओर अग्रसर होता है। ज्वार के इस पश्चिमाभिमुख गत्युत्पन्न बल को ज्वारबल कहते हैं। इस बल में पृथ्वी की दैनिक गति में ्ह्रास उत्पन्न करने की प्रवृत्ति होती है। सन् १९१२ ईo में प्रोo ऐल्फ्रडे वेगेनर द्वारा प्रतिपादित महाद्वीपीय वहन (continental drift) सिद्धांत में इस बल को विशेष महत्ता दी गई है। वैगेनर के मतानुसार उभय अमरीकाओं के पश्चिमाभिमुख प्रवाह का मुख्य कारण ज्वारबल ही था, किंतु बाद में इस सिद्धांत का गणितज्ञ आलोचकों ने खंडन किया। उन्होंने गणित द्वारा यह सिद्ध किया कि महीद्वीपीय-वहन-प्रेरणा के लिये ज्वारबल का दस अरब गुना अधिक बल होना आवश्यक है और ऐसा होने पर वह पृथ्वी की दैनिक गति को एक वर्ष के भीतर रोक देता।
ज्वारभित्ति
संकीर्ण और छिछले मुहानों में नदीतल के अवरोध के कारण मुहाने में प्रविष्ट होनेवाले ज्वार के अग्रभाग की ढाल क्रमश: तीव्र होती लगभग लंबवत् हो जाती है। ऐसा प्रतीत होता है मानों विशाल जल की भित्ति नदी में चढ़ती आ रही हो। इस ज्वार भित्ति कहते हैं। यह विभिन्न मुहानों में भिन्न भिन्न ऊँचाइयों की होती है। यह आवागमन में अवरोधक है और इससे भीषण दुर्घटनाएँ घट जाती है। चीन की सिएन-तांग-कियांग नदी में ज्वारभित्ति की ऊँचाई चार मीटर तक होती है।