ग्रेशम का सिद्धांत
ग्रेशम का सिद्धांत
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4 |
पृष्ठ संख्या | 83 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | फूलदेव सहाय वर्मा |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | शुभदा तेलंग |
ग्रेशम का सिद्धांत सुप्रसिद्ध व्यापारिक संस्थान भरसर के सचालकमंडल के तत्कालीन सदस्य हेनरी अष्टम कालीन ब्रिटिश सरकार के आर्थिक सलाहकार, महारानी एलिजाबेथ के प्रथम मुद्रानिर्यंता तथा ब्रिटिश रायल एक्सचेंज के अदि संस्थापक सर थोमस ग्रेशम (सन् १५१९-१५७९) इस विशिष्ट आर्थिक सिद्धांत (सन् १५६०) के उद्भावक माने जाते हैं। यद्यपि यह सिद्धांत उनसे बहुत प्राचीन है, फिर भी तत्कालीन मौद्रिक स्थिति के आधिकारिक गंभीर अध्ययन एवं सूक्ष्म विश्लेषण के द्वारा इन्होंने अपने इस मत की सर्वप्रथम स्थापना की इसलिये उनके नाम पर यह सिद्धांत प्रचलित हुआ। सर थोमस ग्रेशम के शब्दों के इस सिद्धांत का हिंदी रूपांतर इस प्रकार है : यदि एक ही धातु के सिक्के एक ही अंकित मूल्य के किंतु विभिन्न तौल एवं धात्विक गुणधर्म के एक साथ ही प्रचलन में रहते हैं, बुरा सिक्का अच्छे सिक्के को प्रचलन से निकाल बाहर करता है पर अच्छा कभी भी बुरे को प्रचलन से निकाल बाहर नहीं कर सकता। इस सिद्धांत का वर्तमान सशोधित स्वरूप निम्नलिखित है : यदि सभी परिस्थितियाँ यथावत् रहें तो बुरी मुद्रा अच्छी मुद्रा को प्रचलन से निकाल बाहर करती है।
सामान्यतया एक धातुमान में कम घिसे सिक्के, द्विधातु एवं बहु धातुमान में धात्विक दृष्टि से अपेक्षाकृत मूल्यवान्, कागजी मान से परिवर्त्य मुद्रा और धात्विक एवं कागजी सहमान में बाजार की दृष्टि से आंतरिक या धात्विक दृष्टि से मूल्यवान् तथा सममूल्य की होते हुए भी नवीन तथा कलात्मक मुद्रा अच्छी समझी जाती है।
अच्छी मुद्रा संग्रह के लिये उपयुक्त होने, धातु के रूप में विक्रय द्वारा विशेष लाभार्जन के निमित्त देशविदेश में चोरबाजारी के लिये अधिक उपयुक्त होने तथा बुरी मुद्रा की बुराइयों के कारण अपने पास न रखने की मनोवैज्ञानिक प्रवृक्ति के कारण अपने मूल कार्य क्रयविक्रय के साधन में प्रयुक्त होने की अपेक्षा उपर्युक्त कार्यों के लिये प्रचलन से बाहर कर दी जाती है।
इस सिद्धांत के प्रयोग की सीमा का निर्धारण मुद्रा की माँग, मुद्रा के प्रति विश्वास, मौद्रिक विधान तथा साख व्यवस्था द्वारा होता है। इन दृष्टियों से यदि मुद्रा की पूर्ति माँग से अधिक न हो, बुरी मुद्रा इतनी बुरी न हो गई हो कि उसपर से जनता का विश्वास ही उठ गया हो तथा उसका प्रचलन विधानसम्मत होते हुए भी अग्राह्य हो गया हो, और जब प्रचलन में कोई भी मुद्रा प्रामाणिक नहीं रहती या एक असीमित और अन्य मुदाएँ सीमित विधिग्राह्य होती हैं तथा साख व्यवस्था यदि ऐसी रहती है कि किसी मुद्रा के प्रचलन से बाहर जाने पर मूल्यस्तर प्रभावित नही होता तथा मुद्राबाजार का सुव्यवस्थित नियंत्रण रहता है तो यह सिद्धांत लागू नहीं हो पाता।
टीका टिप्पणी और संदर्भ