ग्लैंडर्स

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लेख सूचना
ग्लैंडर्स
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4
पृष्ठ संख्या 91
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक फूलदेव सहाय वर्मा
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक सत्य पाल गुप्त

ग्लैंडर्स पशुओं की एक व्याधि है, जो मनुष्यों में संक्रमण के द्वारा प्रवेश कर जाती है। यह गंभीर संक्रामक व्याधि है, जिसमें सारे शरीर पर अगणित दानेदार पीबयुक्त फोड़े (फुंसियाँ) निकल आते हैं। इस रोग को उत्पन्न करनेवाला 'मैलिओमाइसीज़ मैलाई' (Malleomycesmallei) नामक एक जीवाणु है, जो आक्सीजन में जीवित रहने वाला (aerobic), गतिहीन, बीजांड न बनानेवाला (non-sporlulating), ग्राम ऋण (gram negative) है।

महामारी विज्ञान

किसी समय ग्लैंडर्स अमरीका में घोड़ों का साधारण रोग था, परंतु कठोर रोकथाम द्वारा अब यह रोग संभवत: निर्मूल कर दिया गया है। संयुक्त राष्ट्र, अमरीका में इस रोग के विलोपन के फलस्वरूप मनुष्यों में अब इसका संक्रमण दुष्प्राप्य हो गया है, फिर भी यह रोग अभी मध्य यूरोप, उत्तरी अफ्रीका और एशिया के कुछ भागों में पाया जाता है।

रोग उत्पादन

इस रोग के मुख्य पोषक घोड़े, खच्चर और गदहे हैं। इसकी छूत इन्हीं बीमार पशुओं की देखरेख करने से लग जाती है। इसके जीवाणु त्वचा के कटने (aberation) से, नेत्रश्लेष्मिका झिल्ली (Conjunctiva) में घुसने से एवं आमाशय द्वारा प्रवेश करते हैं। प्रवेश के स्थान से इसका संक्रमण लसीकावाहिनियों और रक्तवाहिनियों में होकर शरीर भर में फैल जाता है।

प्रादुर्भाव लक्षण

प्राय: संक्रमण काल कई दिनों से लेकर कई सप्ताहों तक का होता है। मनुष्यों का ग्लैंडर्स उग्र और जीर्ण दोनों प्रकार का होता है। उग्र रूप का ग्लैंडर्स, जो साधारणत: होता है, बड़ी तेजी से बढ़ता है। रोग एकाएक जाड़ा देकर, तेज बुखार और काफी कमजोरी से आरंभ होता है। त्वचा में जीवाणु के प्रवेशस्थान पर एक ग्रंथि बन जाती है, जो फूटकर एक बेडौल, पीड़ायुक्त व्रण (ulcer) का रूप धारण कर लेती है। इसका किनारा सीमांकित रहता है और जल्दी नहीं भरता। लसीकावाहिनी और रक्तवाहिनी नलियाँ संक्रमण को क्षेत्रीय लसीक गाठों, उपत्वचीय और उपश्लेष्मिक ऊतकों, मांसपेशियों, फेफड़ों एवं दूसरे आभ्यंतरिक अंगों तक पहुँचा देती हैं। घाव धीरे धीरे बड़े होकर आपस में मिल जाते हैं और बीच में गल जाते हैं, जिनमें पनीर की भाँति का पदार्थ रहता है। बाहरी ग्रंथियाँ फोड़े के रूप में बदल जाती हैं, परंतु भीतरी फोड़े प्राय: नलीदार घाव बनाते हैं।

फेफड़ों पर घने क्षेत्र बने जाते हैं। यकृत एवं तिल्ली में शोथ होता है और वे बढ़ जाते हैं। त्वचा के ऊपर ये व्रण पहले धब्बेदार चकत्ते के रूप में दिखाई पड़ते हैं। दूसरी अवस्था में ये फफोले बन जाते हैं, जो बाद में व्रण के रूप में बदल सकते हैं। मस्तिष्कच्छदप्रकोप (Menengitis), अस्थिकोप (Osteomyelitis) और बहुपूयिक संधिकोप (Purulent poly-arthritis) भी हो सकता है। उग्र प्रकार का ग्लैंडर्स बड़े वेग से बढ़ता है और अधिकांश अवस्थाओं में एक से लेकर तीन सप्ताह तक के भीतर रोगी की मृत्यु हो जाती है। जीर्ण प्रकार का ग्लैंडर्स, जो प्राय: कम होता है, साधारण बुखार और साधारण प्रारंभिक लक्षणों से शुरु होता है। रोग की अवस्था में उग्रता एंव शैथिल्य की विशेषता पाई जाती है। आधे से अधिक रोगी महीनों या वर्षों तक बीमारी से कमजोर होकर अंत में मर जाते हैं।

निदान

रोग का निश्चित उत्स्वेद, थूक या खखार, मल, एवं खून में वर्तमान रोगाणु के संवर्धन द्वारा किया जा सकता है। पशुओं में टीका लगाने की रीति द्वारा, जैसे स्ट्रांस की अभिक्रिया (Strans's reaction), लसीय (serological) परीक्षा द्वारा, बायोप्सी (Biopsy) द्वारा और मैलाई जीवाणु द्वारा त्वचीय क्षमता (dermal sensitivity) को प्रदर्शित करके भी इसका ठीक ठीक निदान किया जा सकता है।

उपचार

अनेक रासायनिक ओषधियों में सल्फाडायाज़ीन, खून के १० स १५ मिलिग्राम प्रति १०० मिलिलिटर के स्तर पर, बड़ा प्रभावशाली सिद्ध हुआ है। इस दवा को कम से कम २० दिन सेवन कराना चाहिए। पेनिसिलिन भी प्रभावकारी है। स्ट्रेप्टोमाइसीन का भी अच्छा परिणाम ज्ञात हुआ है। दूसरी जीवाणुनाशक ओषधियों को अकेले या मिलाकर देने से सल्फाडायाज़ीन की अपेक्षा ज्यादा प्रभाव हो सकता है। रोग की विशेष वैज्ञानिक चिकित्सा रोगाणु की संवर्धनक्षमता ज्ञात हो जाने के बाद ही सभव होती है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ