कनिष्क
कनिष्क
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 2 |
पृष्ठ संख्या | 388-389 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पांडेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1975 ईसवी |
स्रोत | स्टेनकोनो : कारपस इंस्क्रिप्शनं इंडिकेरम्, भाग २; रैप्सन : कैंब्रिज हिस्ट्री ऑव इंडिया, भाग १; मजूमदार ऐंड पुसालकर : दि एज ऑव इंपीरियल यूनिटी; नीलकंठ शास्त्री : ए कांप्रिहेंसिव हिस्ट्री ऑव इंडिया; गिशमान : वेगराम; स्मिथ : अर्ली हिस्ट्री ऑव इंडिया; बै. पुरी : कुषाणकालीन भारत (अप्रकाशित)। |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | बैजनाथ पुरी |
कुषाण वंश का प्रमुख सम्राट् कनिष्क भारतीय इतिहास में अपनी विजय, धार्मिक प्रवृत्ति, साहित्य तथा कला का प्रेमी होने के नाते विशेष स्थान रखता है। विम कथफिस के साथ इसका न तो कोई संबंध था और न उसकी मृत्यु के बाद ही यह सिंहासन पर बैठा। कदाचित् इन दोनों के राज्यकाल के आंतरिक समय में क्षत्रपों ने स्वतंत्रता घोषित कर थोड़े समय तक राज्य किया। इस सम्राट् के लेखों से प्रतीत होता है कि अपने राज्यकाल के प्रथम तीन वर्षो में उसने उत्तरी भारत में पेशावर से सारनाथ तक जीता और उसकी ओर से खरपल्लान ओर वनस्पर क्रमश: महाक्षत्रप तथा क्षत्रप के रूप में शासन कर रहे थे। कुमारलात की कल्पनामंड टीका के अनुसार इसने भारतविजय के पश्चात् मध्य एशिया में खोतान जीता और वहीं पर राज्य करने लगा। इसके लेख पेशावर, माणिक्याल (रावलपिंडी), सुयीविहार (बहावलपुर),जेदा (रावलपिंडी), मथुरा, कौशांबी तथा सारनाथ में मिले हैं, और इसके सिक्के सिंध से लेकर बंगाल तक पाए गए हैं। कल्हण ने भी अपनी 'राजतरंगिणी' में कनिष्क, झुष्क और हुष्क द्वारा कश्मीर पर राज्य तथा वहाँ अपने नाम पर नगर बसाने का उल्लेख किया है। इनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि सम्राट् कनिष्क का राज्य कश्मीर से उत्तरी सिंध तथा पेशावर से सारनाथ के आगे तक फैला था। किंवदंतियों के अनुसार कनिष्ठक पाटलिपुत्र पर आक्रमण कर अश्वघोष नामक कवि तथा बौद्ध दार्शनिक को अपने साथ ले गया था और उसी के प्रभाव में आकर सम्राट् की बौद्ध धर्म की ओर प्रवृत्ति हुई। इसके समय में कश्मीर में कुंडलवन विहार अथवा जालंधर में चतुर्थ बौद्ध संगीति प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् वसुमित्र की अध्यक्षता में हुई। हुएंत्सांग के मतानुसार सम्राट् कनिष्क की संरक्षता तथा आदेशानुसार इस संगीति में ५०० बौद्ध विद्वानों ने भाग लिया और त्रिपिटक का पुन: संकलन संस्करण हुआ। इसके समय से बैद्ध ग्रंथों के लिए संस्कृत भाषा का प्रयोग हुआ और महायान बौद्ध संप्रदाय का भी प्रादुर्भाव हुआ। कुछ विद्वानों के मतानुसार गांधार कला का स्वर्णयुग भी इसी समय था, पर अन्य विद्वानों के अनुसार इस सम्राट् के समय उपर्युक्त कला उतार पर थी। स्वयं बौद्ध होते हुए भी सम्राट् के धार्मिक दृष्टिकोण में उदारता का पर्याप्त समावेश था और उसने अपनी मुद्राओं पर यूनानी, ईरानी, हिंदू और बौद्ध देवी देवताओं की मूर्तियाँ अंकित करवाई, जिससे उसके धार्मिक विचारों का पता चलता है। 'एकंसद् विप्रा बहुधा वदंति' की वैदिक भावना को उसने क्रियात्मक स्वरूप दिया।
इतने विस्तृत साम्राज्य के शासन के लिए सम्राट् ने क्षत्रपों तथा महाक्षत्रपों की नियुक्ति की जिनका उल्लेख उसके लेखों में है। स्थानीय शासन संबंधी 'ग्रामिक' तथा 'ग्राम कूट्टक' और 'ग्रामवृद्ध पुरुष' और 'सेना संबंधी', 'दंडनायक' तथा 'महादंडनायक' इत्यादि अधिकारियों का भी उसके लेखों में उल्लेख है।
निश्चित रूप से कनिष्क की तिथि निर्धारित करने का प्रयास अभी भी हो रहा है। फ़्लीट, केनेंडी इत्यादि विद्वान् इसे ५८ ई. संवत् का निर्माता मानते हैं। रैप्सन, टामस तथा कुछ अन्य विद्वान् इसके अभिषेक की तिथि ७८ ई में रखते हैं; और उनके अनुसार इसी सम्राट् ने शक संवत् चलाया था। मार्शल, कोनो तथा स्मिथ ने कनिष्क का राज्यकाल ई. की दूसरी शताब्दी में रखा है और इसके अभिषेक की तिथि लगभग १२५ ई. निर्धारित की है। वेगराम ने खुदाई कराने पर गिर्शमान को तीन तिथियों का लेख मिला और उन्होंने कनिष्क के शासनकाल का प्रथम वर्ष १४२-३ ई में माना है। कनिष्क ने २४ वर्ष तक राज्य किया। अफगानिस्तान में कनिष्क का एक लेख यूनानी भाषा में ३१ सं. का मिला। आरा में कनिष्क का ४१ सं. का एक लेख पहले मिला था। इन दोनों को कनिष्क द्वितीय ही मानना चाहिए, पर यह विषय विवादास्पद है। यदि शक संवत् का प्रवर्तक कनिष्क प्रथम ही है तो नि: संदेह उसे संवत् को प्रचलित करने का श्रेय प्राप्त है, जो प्राय: २,००० वर्षो से भारत में राष्ट्रीय संवत् के रूप में हिंदुओं की कुंडली आदि में प्रयुक्त होता रहा है और जिसे प्राय: इसी रूप में स्वतंत्र भारतीय सरकार ने स्वीकार किया है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ