अहिल्याबाई होल्कर

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लेख सूचना
अहिल्याबाई होल्कर
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1
पृष्ठ संख्या 320
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पाण्डेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक डा० राजनाथ

अहिल्याबाई होल्कर (1725-95), इंदौर के शासक मल्हरराव होल्कर के पुत्र खंडेराव की पत्नी। उसने राजनीतिज्ञता, शासकीय दक्षता तथा धर्मपरायणता का यथेष्ट परिचय दिया, यद्यपि स्वयं वह धर्मपरायणता को ही अपना मुख्य कर्तव्य तथा प्रेरक शक्ति मानती रही। तत्सामयिक स्वार्थ, अनाचार, पारस्परिक विग्रहों और युद्धों के विषाक्त वातावरण में उसका प्रत्येक जाग्रत क्षण राजकीय समस्याओं के समाधान या धर्मकार्य में ही व्यतीत होता था।

आरंभ से ही मल्हरराव ने अपनी पुत्रवधु को शासकीय उत्तरदायित्व से अवगत कराना शरु कर दिया था। युद्धक्षेत्र में खंडेराव की मृत्यु होने पर वृद्ध, शिथिलकाय मल्हरराव ने राज्यभार बहुत कुछ उसके कंधों पर छोड़ दिया था। मल्हरराव की मृत्यु के उपरांत अहिल्याबाई का कूरप्रकृति पुत्र मालीराव केवल नौ मास ही शासन कर सका। तब से राज्यसंचालन का संपूर्ण उत्तरदायित्व अहिल्याबाई ने संभाला। थोड़े ही समय में उसने राज्य में शांति और व्यवस्था स्थापित कर दी। पड़ोसी राज्यों से मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित किए। युद्धक्षेत्र में भी उसने तुकोजी के नायकत्व में मंदसौर में राजपूतों के विरुद्ध सफलता प्राप्त की। शासनप्रबंध में उसने विशेष यश अर्जित किया। बड़े राज्य की रानी न होकर भी जितनी स्नेहसिक्त कीर्ति उसे प्राप्त हुई, उतनी ब्रिटिश भारत के इतिहास में किसी राजवंश के राजनीतिज्ञ को न मिली। यह कीर्ति उसके राजनीतिक कार्यों पर नहीं, वरन्‌ उसकी चारित्रिक धवलता तथा दानशीलता पर आधारित थी। उसकी दानशीलता उसके राज्य की परिधि तक ही सीमित न थी, बल्कि समस्त देश के सुदूर तीर्थस्थानों-गंगोत्री से लेकर विंध्याचल सीखे दुरूह स्थानों तक-व्याप्त थी। यह दानशीलता केवल धार्मिक भावनाओं से प्रेरित न हाकर, निर्धनों, असहायों तथा थके मांदे पथिकों को सहायता देने की आँतरिक मानवीय भावनाओं से संचारित थी। यही कारण है कि उसे अपनी जनता से तो आत्मज का सा स्नेह मिला ही, पड़ोसी राज्यों ने भी उसके प्रति सम्मान और आदर प्रदर्शित किया एवं भविष्य में भारतीय जनस्मृति में आदर्श नारी के रूप में उसकी गुणगाथा गाई गई। व्यक्तिगत रूप से उसके जीवन की सबसे बात यह थी कि दारुण कौटुंबिक दु:ख सहते हुए भी (उसने अपने पति, पुत्र, जामाता और नाती की मृत्यु अपने सामने देखी तथा अपनी पुत्री मुक्तिबाई को सती होते देखा) उसने अपना मानसिक संतुलन विकृत न होने दिया और न राजनीतिक संकट ही उसे कभी विचलित कर सके।