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लेख सूचना
ईवान एंड्रिविच क्रीलोव
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3
पृष्ठ संख्या 211
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पांडेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1976 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक परमेश्वरीलाल गुप्त

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ईवान एंड्रिविच क्रीलोव (1768-1844 ई.)। रूस का राष्ट्रीय गल्पकार। इसका जन्म 14 फरवरी, 1768 ई. को मास्को में एक सैनिक के घर हुआ था। पिता की मृत्यु के पश्चात्‌ वह 1779 ई. में माँ के साथ सेंट पीतर्सबर्ग (लेनिनग्राद) चला आया और वहाँ 1788 ई. तक एक सरकारी नौकरी करता रहा। उसने 1783 ई. से ही लिखना आरंभ कर दिया था। 1784 ई. में उसने ‘काफी की दूकानवाला’ शीर्षक एक आपेरा (गीति-नाट्य) लिखा था जो 1868 तक अप्रकाशित रहा। उसने क्लियोपेट्रा (1785 ई.) और फिलोमेला (1786 ई.) नामक दो दु:खांत नाटक लिखे; जिनमें से पहले का तो अब पता भी नहीं हैं। 1789 ई. में ‘पोचादुखोव’ (भूत की डाक) नाम से एक मजाकिया मासिक पत्रिका प्रकशित की। 1792 ई. उसने उसी ढंग की एक दूसरी पत्रिका निकाली जो बाद में ‘सेंट पीतर्सबर्ग मरकरी’ नाम से प्रख्यात हुई। 1801 ई. में उसने एक ‘पिरॉग’ नामक नाटक लिखा जो सेंट पीतर्सबर्ग में अभिनीत हुआ। पर उसके इन सभी प्रयासों का उसकी ख्याति में कोई स्थान नहीं हैं। उसे जिन रचनाओं के लिये ख्याति प्राप्त है, वे सब उसकी 37 वर्ष की आयु के बाद की हैं। 1805 ई. में उसने ला फौंतेन के दो गल्पों के अनुवाद दिमित्रीव को दिखाए जिन्हें उन्होंने बहुत पसंद किया। इससें उसे प्रोत्साहन मिला। 1808 ई. में उसने 17 गल्प प्रकाशित किए जिनमें अधिकांश मौलिक थे। 1809 ई. में उसके ‘फेबेल्स’ का पहला संस्करण प्रकाशित हुआ जिनमें 23 गल्प थे। इन गल्पों में उसने रूसी प्रबुद्धवर्ग के फ्रांसीसी वस्तुओं के अंधानुकरण का मजाक उड़ाया था। तभी उसे राज-परिवर का संरक्षण प्राप्त हुआ। 1811 ई. में वह रूसी अकादमी का सदस्य मनोनीत हुआ और 1823 ई. में अकादमी ने उसे स्वर्णपदक प्रदान किए। उसके बाद तो उसके पास सम्मानों के ढेर लग गए। 9 नवंबर, 1844 ई. को उसकी मृत्यु हुई।

रूसी जनता को गल्पकार सदा से प्रिय रहे हैं और क्रीलोव तो उनके गल्पकारों में महत्तम था। ला फौंतेन के अनुवादों में भी उसकी अपनी निजी विशिष्ट शैली की अभिव्यक्ति है। सरकारी नौकर होते हुए भी उसने अपनी रचनाओं में अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रखा है। सरकारी अहलकार प्राय: उसके चुहल के पात्र रहे हैं। क्रीलोव के गल्प ग्रामीणों जैसी सरल भाषा में लिखे गए हैं; उनमें नित्य प्रति के जीवन की अकर्मण्यता, गंदगी, लालच आदि की चुटकी ली गई है। क्रीलोव की रचनाओं का वृहद् संग्रह सेंट पीटर्सबर्ग से 1844 ई. में प्रकाशित हुआ था।


टीका टिप्पणी और संदर्भ