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'''उजियारे कवि''' [[वृन्दावन]], [[मथुरा]] ([[उत्तर प्रदेश]]) निवासी नवलशाह के पुत्र और प्रसिद्ध [[कवि]] थे। इनके द्वारा लिखे हुए दो ग्रंथ मिलते हैं-
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#जुगल-रस-प्रकाश
 
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*दोनों ग्रंथों की हस्तलिखित प्रतियाँ 'नागरी प्रचारिणी सभा', [[काशी]] के याज्ञिक संग्रहालय में सुरक्षित हैं।
 
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*'जुगल-रस-प्रकाश' की रचना तिथि [[संवत]] 1837 (सन 1780) दी हुई है। लेकिन 'रसचंद्रिका' की प्रति में तिथि वाला अंश खंडित है।
 
*'जुगल-रस-प्रकाश' की रचना तिथि [[संवत]] 1837 (सन 1780) दी हुई है। लेकिन 'रसचंद्रिका' की प्रति में तिथि वाला अंश खंडित है।
*[[कवि] के अनुसार 13 प्रकरणों में समाप्य 'जुगल-रस-प्रकाश' [[भरतमुनि]] के '[[नाट्यशास्त्र]]' पर आधृत है।
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*[[कवि]] के अनुसार 13 प्रकरणों में समाप्य 'जुगल-रस-प्रकाश' [[भरतमुनि]] के '[[नाट्यशास्त्र]]' पर आधृत है।
 
*'रसचंद्रिका' प्रश्नोत्तर शैली में लिखी गई है और इसके 16 प्रकाशों में अन्य रस ग्रंथों की तुलना में विभाव, अनुभाव संचारी भाव और [[रस]] पर अधिक विस्तार से विवेचन किया गया है। इसमें रस को तो इतनी प्रमुखता दी गई है कि प्रत्येक रस पर अलग-अलग प्रकाश में विचार किया गया है। यद्यपि उक्त ग्रंथों में मौलिकता का लगभग अभाव है, तो भी बीच-बीच में कुछ मौलिक एवं महत्वपूर्ण प्रश्न उठाए गए हैं, यथा, रस नौ क्यों हैं? अधिक क्यों नहीं हैं? आदि।<ref>कैलास चन्द्र शर्मा, हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 2, पृष्ठ संख्या 58</ref>
 
*'रसचंद्रिका' प्रश्नोत्तर शैली में लिखी गई है और इसके 16 प्रकाशों में अन्य रस ग्रंथों की तुलना में विभाव, अनुभाव संचारी भाव और [[रस]] पर अधिक विस्तार से विवेचन किया गया है। इसमें रस को तो इतनी प्रमुखता दी गई है कि प्रत्येक रस पर अलग-अलग प्रकाश में विचार किया गया है। यद्यपि उक्त ग्रंथों में मौलिकता का लगभग अभाव है, तो भी बीच-बीच में कुछ मौलिक एवं महत्वपूर्ण प्रश्न उठाए गए हैं, यथा, रस नौ क्यों हैं? अधिक क्यों नहीं हैं? आदि।<ref>कैलास चन्द्र शर्मा, हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 2, पृष्ठ संख्या 58</ref>
  

११:२०, १२ जुलाई २०१३ का अवतरण

उजियारे कवि वृन्दावन, मथुरा (उत्तर प्रदेश) के निवासी नवलशाह के पुत्र और प्रसिद्ध कवि थे। इनके द्वारा लिखे हुए दो ग्रंथ मिलते हैं-

  1. जुगल-रस-प्रकाश
  2. रसचंद्रिका
  • यदि देखा जाए तो उक्त दोनों ग्रंथ एक ही हैं। दोनों में समान लक्षण उदाहरण दिए गए हैं। कवि ने अपने आश्रयदाताओं, हाथरस के दीवान 'जुगलकिशोर' तथा जयपुर के 'दौलतराम' के नाम पर एक ही ग्रंथ के क्रमश: 'जुगल-रस-प्रकाश' तथा 'रसचंद्रिका' नाम रख दिए हैं।
  • दोनों ग्रंथों की हस्तलिखित प्रतियाँ 'नागरी प्रचारिणी सभा', काशी के याज्ञिक संग्रहालय में सुरक्षित हैं।
  • 'जुगल-रस-प्रकाश' की रचना तिथि संवत 1837 (सन 1780) दी हुई है। लेकिन 'रसचंद्रिका' की प्रति में तिथि वाला अंश खंडित है।
  • कवि के अनुसार 13 प्रकरणों में समाप्य 'जुगल-रस-प्रकाश' भरतमुनि के 'नाट्यशास्त्र' पर आधृत है।
  • 'रसचंद्रिका' प्रश्नोत्तर शैली में लिखी गई है और इसके 16 प्रकाशों में अन्य रस ग्रंथों की तुलना में विभाव, अनुभाव संचारी भाव और रस पर अधिक विस्तार से विवेचन किया गया है। इसमें रस को तो इतनी प्रमुखता दी गई है कि प्रत्येक रस पर अलग-अलग प्रकाश में विचार किया गया है। यद्यपि उक्त ग्रंथों में मौलिकता का लगभग अभाव है, तो भी बीच-बीच में कुछ मौलिक एवं महत्वपूर्ण प्रश्न उठाए गए हैं, यथा, रस नौ क्यों हैं? अधिक क्यों नहीं हैं? आदि।[१]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कैलास चन्द्र शर्मा, हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 2, पृष्ठ संख्या 58