उड़िया साहित्य

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लेख सूचना
उड़िया साहित्य
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 2
पृष्ठ संख्या 59
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पाण्डेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक प्रह्लाद प्रधान

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उड़िया भाषा तथा साहित्य ओड़िसा की भाषा और जाति दोनों ही अर्थो में 'उड़िया' का प्रयोग होता है, किंतु वास्तव में ठीक रूप 'ओड़िया' होना चाहिए।

इसकी व्युत्पत्ति का विकासक्रम कुछ विद्वान्‌ इस प्रकार मानते हैं : ओड्रविषय, ओड्रविष, ओडिष, आड़िषा या ओड़िशा। सबसे पहले भरत के नाट्यशास्त्र में उड्रविभाषा का उल्लेख मिलता है-'शबराभीरचांडाल सचलद्राविडोड्रजा:। हीना वनेचराणां च विभाषा नाटके स्मृता:।'

भाषातात्विक दृष्टि से उड़िया भाषा में आर्य, द्राविड़ और मुंडारी भाषाओं के संमिश्रित रूपों का पता चलता है, किंतु आज की उड़िया भाषा का मुख्य आधार भारतीय आर्यभाषा है। साथ ही साथ इसमें संथाली, मुंडारी, शबरी, आदि मुंडारी वर्ग की भाषाओं के और औराँव, कुई (कंधी) तेलुगु आदि द्राविड़ वर्ग की भाषाओं के लक्षण भी पाए जाते हैं।

इसकी लिपी का विकास भी नागरी लिपि के समान ही ब्राह्मी लिपि से हुआ है। अंतर केवल इतना है कि नागरी लिपि की ऊपर की सीधी रेखा उड़िया लिपि में वर्तुल हो जाती है और लिपि के मुख्य अंश की अपेक्षा अधिक जगह घेर लेती है। विद्वानों का कहना है कि उड़िया में पहले तालपत्र पर लौह लेखनी से लिखने की रीति प्रचलित थी और सीधी रेखा खींचने में तालपत्र के कट जाने का डर था। अत: सीधी रेखा के बदले वर्तुल रेखा दी जाने लगी और उड़िया लिपि का क्रमश: आधुनिक रूप आने लगा।

उड़िया साहित्य को काल और प्रकृति के अनुसार निम्नलिखित प्रकार से बाँटा जा सकता है : 1. अदियुग (1050-1550), 2. मध्ययुग (1550-1850), (क) पूर्व मध्ययुग--भक्तियुग या धार्मिक युग या पंचसखा युग, (ख) उत्तर मध्ययुग, रीति युग या उपेंद्रभंज युग, 3. आधुनिक युग या स्वातंत््रय काल; (1850 से वर्तमान समय तक)

1. आदियुग - आदियुग में सारलापूर्व साहित्य भी अंतर्भुक्त है, जिसमें 'बौद्धगान ओर दोहा', गोरखानाथ का 'सप्तांगयोगधारणम्‌', 'मादलापांजि', 'रुद्रसुधानिधि' तथा 'कलाश चौतिशा' आते हैं। 'बौद्धगान ओ दोहा' भाषादृष्टि, भावधारा तथा ऐतिहासिकता के कारण उड़ीसा से घनिष्ट रूप में संबंधित है। 'सप्तांगयोगधारणम्‌' के गोरखनाथकृत होने में संदेह है। 'मादलापांजि' जगन्नाथ मंदिर में सुरक्षित है तथा इसमें उड़ीसा के राजवंश और जगन्नाथ मंदिर के नियोगों का इतिहास लिपिबद्ध है। किंवदंती के अनुसार गंगदेश के प्रथम राजा चोड गंगदेव ने 1042 ई. (कन्या 24 दिन, शुक्ल दशमी दशहरा के दिन) 'मादालापांजि' का लेखन प्रारंभ किया था, किंतु दूसरा मत है कि यह मुगलकाल में 16वीं शताब्दी में रामचंद्रदेव के राजत्वकाल में लिखवाई गई थी। 'रुद्र-सुधा-निधि' का पूर्ण रूप प्राप्त नहीं है और जो प्राप्त है उसका पूरा अंश छपा नहीं है। यह शैव ग्रंथ एक अवधूत स्वामी द्वारा लिखा गया है। इसमें एक योगभ्रष्ट योगी का वृत्तांत है। इसी प्रकार वत्सादास का 'कलाश चौतिशा' भी सारलापूर्व कहलाता है। इसमें शिव जी की वरयात्रा और विवाह का हास्यरस में वर्णन है।

वस्तुत: सारलादास ही उड़िया के प्रथम जातीय कवि और उड़िया साहित्य के आदिकाल के प्रतिनिधि हैं। कटक जिले की झंकड़वासिनी देवी चंडी सारला के वरप्रसाद से कवित्व प्राप्त करने के कारण सिद्धेश्वर पारिडा ने अपने को 'शूद्रमुनि' सारलादास के नाम से प्रचारित किया। इनकी तीन कृतियाँ उपलब्ध हैं : 1. 'विलंका रामायण', 2. महाभारत और 3. चंडीपुराण। कुछ लोग इन्हें कपिलेंद्रदेव (1435-1437) का तथा कुछ लोग नरसिंहदेव (1328-1355 ई.) का समकालीन मानते हैं।

इस युग का अर्जुनदास लिखित 'रामविभा' नामक एक काव्यग्रंथ भी मिलता है तथा चैतन्यदासरचित 'विष्णुगर्भ पुराण' और 'निर्गुणमाहात्म्य' अलखपंथी या निर्गुण संप्रदाय के दो ग्रंथ भी पाए जाते हैं।

2. मध्ययुग के दो विभाग हैं-

(क) पूर्वमध्ययुग अथवा भक्तियुग तथा (ख) उत्तरमध्ययुग अथवा रीतियुग।

पूर्वमध्ययुग में पंचसखाओं के साहित्य की प्रधानता है। ये पंचसखा हैं--बलरामदास, जगन्नाथदास, यशोवंतदास, अनंतदास और अच्युतानंददास। चैतन्यदास के साथ सख्य स्थापित करने के कारण ये पंचसखा कहलाए। वे पंच शाखा भी कहलाते हैं। इनके उपास्य देवता थे पुरी के जगन्नाथ, जिनकी उपासना शून्य और कृष्ण के रूप में ज्ञानमिश्रा योग-योगप्रधान भक्ति तथा कायसाधना द्वारा की गई। पंचसखाओं में से प्रत्येक ने अनेक ग्रंथ लिखे, जिनमें से कुछ तो मुद्रित हैं, कुछ अमुद्रित और कुछ अप्राप्य भी।

16वीं शताब्दी के प्रथमार्ध में दिवाकरदास ने 'जगन्नाथचरितमृत' के नाम से पंचसखाओं के जगन्नाथदास की जीवनी लिखी तथा ईश्वरदास ने चैतन्यभागवत लिखा। सालवेग नामक एक मुसलमान भक्तकवि के भी भक्तिरसात्मक अनेक पद प्राप्त हैं।

इसी युग में शिशुशंकरदास, कपिलेश्वरदास, हरिहरदास, देवदुर्लभदास, तथा प्रतापराय की क्रमश : 'उषाभिलाष', 'कपटकेलि', 'चद्रावलिविलास', 'रहस्यमंजरी' और 'शशिसेणा' नामक कृतियाँ भी उपलब्ध हैं।

रीतियुग में पौराणिक और काल्पनिक दोनों प्रकार के काव्य हैं। नायिकाओं में सीता और राधा का नखशिख वर्णन किया गया है। इस युग का काव्य, शब्दालंकार, क्लिष्ट शब्दावली और श्रृंगाररस से पूर्ण है। काव्यलक्षण, नायक-नायिका-भेद आदि को विशेष महत्व दिया गया। उपेंद्रभंज ने इसको पराकाष्ठा पर पहुँचा दिया, अत: इस युग का नाम भंजयुग पड़ गया, किंतु यह काल इसके पहले शुरू हो गया था। उपेंद्रभंज के पूर्व के कवि निम्नांकित हैं :

धनंजयभंज-ये उपेंद्रभंज के पितामह और घुमसर के राजा थे। इनकी कृतियाँ हैं : रघुनाथविलास काव्य, त्रिपुरसुंदरी, मदनमंजरी, अनंगरेखा, इच्छावती, रत्नपरीक्षा, अश्व और गजपरीक्षा आदि। कुछ लक्षणग्रंथ और चौपदीभूषण आदि संगीतग्रंथ भी हैं।

दीनकृष्णदास (1651-1703)-व्यक्तित्व के साथ साथ इनका काव्य भी उच्च कोटि का था। 'रसकल्लोल', 'नामरत्नगीता', 'रसविनोद', 'नावकेलि', 'अलंकारकेलि', 'आर्तत्राण', 'चौतिशा' आदि इनकी अनेक कृतियाँ प्राप्य हैं।

वृंदावती दासी, भूपति पंडित तथा लोकनाथ विद्यालंकार की क्रमश : 'पूर्णतम चंद्रोदय', प्रेमपंचामृत' तथा 'एक चौतिशा' और 'सर्वागसुंदरी', 'पद्मावती परिणय', 'चित्रकला', 'रसकला' और 'वृंदावन-विहार-काव्य', नाम की रीतिकालीन काव्यलक्षणों से युक्त कृपियाँ मिलती हैं।

उपेंद्रभंज (1685-1725)-ये रीतिकाल के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। इनके कारण ही रीतियुग को भंजयुग भी कहा जाता है। शब्दवैलक्षण्य, चित्रकाव्य एवं छंद, अलंकार आदि के ये पूर्ण ज्ञाता थे। इनकी अनेक प्रतिभाप्रगल्भ कृतियों ने उड़िया साहित्य में इनकों सर्वश्रेष्ठ पद पर प्रतिष्ठित किया है। 'वैदेहीशविलास', 'कलाकउतुक', 'सुभद्रापरिणय', 'ब्रजलीला', 'कुंजलीला', आदि पौराणिक काव्यों के अतिरिक्त लावण्यवती, कोटि-ब्रह्मांड-सुंदरी, रसिकहारावली आदि अनेक काल्पनिक काव्यग्रंथ भी हैं। इन काव्यों में रीतिकाल के समस्त लक्षणों का संपूर्ण विकास हुआ है। कहीं कहीं सीमा का अतिक्रमण कर देने के कारण अश्लीलता भी आ गई है। इनका 'बंधोदय' चित्रकाव्य का अच्छा उदाहरण है। 'गीताभिधान' नाम से इनका एक कोशग्रंथ भी मिलता है जिसमें कांत, खांत आदि अंत्य अक्षरों का नियम पालित है। 'छंदभूषण' तथा 'षड्ऋतु' आदि अनेक कृतियाँ और भी पाई जाती हैं।

भंजकालीन साहित्य के बाद उड़िया साहित्य में चैतन्य प्रभावित गौड़ीय वैष्णव धर्म और रीतिकालीन लक्षण, दोनों का समन्वय देखने में आता है। इस काल के काव्य प्राय: राधाकृष्ण-प्रेम-परक हैं और इनमें कहीं कहीं अश्लीलता भी आ गई है। इनमें प्रधान हैं : सच्चिदानंद कविसूर्य (साधुचरणदास), भक्तचरणदास, अभिमन्युसामंत सिंहार, गोपालकृष्ण पट्टनायक, यदुमणि महापात्र तथा बलदेव कविसूर्य आदि।

इस क्रम में प्रधानतया और दो व्यक्ति पाए जाते हैं : (1) ब्रजनाथ बडजेना और (2) भीमभोई। ब्रजनाथ बडजेना ने 'गुंडिचाविजे' नामक एक खोरता (हिंदी) काव्य भी लिखा था। उनके दो महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं : 'समरतंरग' और 'चतुरविनोद'। भीमभोई जन्मांध थे और जाति के कंध (आदिवासी) थे। वे निरक्षर थे, लेकिन उनके रचित 'स्तुतिचिंतामणि', 'ब्रह्मनिरूपण गीता' और अनके भजन पाए जाते हैं। उड़िया में वे अत्यंत प्रख्यात हैं।

3. आधुनिक युग - यद्यपि ब्रिटिश काल से प्रारंभ होता है, किंतु अंग्रेजी का मोह होने के साथ ही साथ प्राचीन प्रांतीय साहित्य और संस्कृत से साहित्य पूरी तरह अलग नहीं हुआ। फारसी और हिंदी का प्रभाव भी थोड़ा बहुत मिलता है। इस काल के प्रधान कवि राधानाथ राय हैं। ये स्कूल इंस्पेक्टर थे। इनपर अंग्रेजी साहित्य का प्रभाव स्पष्ट है। इनके लिखे 'पार्वती'द्व 'नंदिकेश्वरी', 'ययातिकेशरी', आदि ऐतिहासिक काव्य हैं। 'महामात्रा' प्रथम अमित्राक्षर छंद में लिखित महाकाव्य है, जिस पर मिल्टन का प्रभाव है। इन्होंने मेघदूत, वेणीसंहार और तुलसी पद्यावली का अनुवाद भी किया था। इनकी अनेक फुटकल रचानाएँ भी हैं। आधुनिक युग को कुछ लोग राधानाथ युग भी कहते हैं।

बंगाल से राजेंद्रलाल मित्र द्वारा चलनेवाले 'उड़िया एक स्वतंत्र भाषा नहीं है' आंदोलन का करारा जवाब देनेवालों में उड़िया के उपन्यास सम्राट् फकीरमोहन प्रमुख हैं। उपन्यास में ये बेजोड़ हैं। 'लछमा', 'मामु', 'छमाण आठगुंठ' आदि उनके उपन्यास हैं। 'गल्पस्वल्प' नाम से दो भागों में उनके गल्प भी हैं। उनकी कृति 'प्रायश्चित्त' का हिंदी में अनुवाद भी हुआ है। पद्य में 'उत्कलभ्रमण', 'पुष्पमाला' आदि अनेक ग्रंथ हैं। उन्होंने छांदोग्यउपनिषद्, रामायण, महाभारत आदि का पद्यानुवाद भी किया है।

इस काल के एक और प्रधान कवि मधुसूदन राय हैं। पाठ्‌य पुस्तकों के अतिरिक्त उन्होंने भक्तिपरक कविताएँ भी लिखी हैं। इनपर रवींद्रनाथ का काफी प्रभाव है।

इस काल में काव्य, उपन्यास और गल्प के समान नाटकों पर भी लोगों की दृष्टि पड़ी। नाटककारों में प्रधान रामशंकर राय हैं। उन्होंने पौराणिक, ऐतिहासिक, सामाजिक, गीतिनाट्य, प्रहसन, और यात्रा आदि भिन्न भिन्न विषयों पर रचनाएँ की हैं। 'कांचिकावेरी', 'वनमाला', 'कंसवध', 'युगधर्म' आदि इनकी प्रसिद्ध कृतियाँ हैं।

राधानाथ युग के अन्य प्रसिद्ध कवि हैं गंगाधर मेहेर, पल्लीकवि नंदकिशोर वल, (प्राबंधिक और संपादक) विश्वनाथ कर, व्यंगकार गोपाल चंद्र प्रहराज आदि।

इसके उपरांत गोपबंधुदास ने सत्यवादी युग का प्रवर्तन किया। इनकी महत्वपूर्ण रचनाएँ 'धर्मपद', 'बंदीर आत्मकथा', 'कारा कविता' आदि हैं। नीलकंठ दास तथा गोदावरीश मिश्र आदि इस युग के प्रधान साहित्यिक हैं। पद्मचरण पट्टनायक और कवयित्री कुंतलाकुमारी सावत छायावादी साहित्यकार और लक्ष्मीकांत महापात्र हास्यरसिक हैं।

सत्यवादी युग के बाद रोमांटिक युग आता है। इसके प्रधान कवि मायाधर मानसिंह हैं। उनके 'धूप', 'हेमशस्य', 'हेमपुष्प' आदि प्रधान ग्रंथ हैं।

कालिंदीचरण पाणिग्राही, वैकुंठनाथ पट्टनायक, हरिहर महापात्र, शरच्चंद्र मुखर्जी और अन्नदाशंकर राय ने 'सबुज कवित्व' से सबुज युग का श्रीगणेश किया है। 'वासंती' उपन्यास इनके संमिलित लेखन का फल है।

इसके बाद प्रगतियुग या अत्याधुनिक युग आता है। सच्चिदानंद राउतराय इस युग के प्रसिद्ध लेखक हैं। इनकी रचनाओं में 'पल्लीचित्र', 'पांडुलिपि' आदि प्रधान हैं। आधुनिक समय में औपन्यासिक गोपीनाथ महांति, कान्हुचरण महांति, नित्यानंद महापात्र, कवि राधामोहन गडनायक, क्षुद्रगाल्पिक, गोदावरीश महापात्र, महापात्र नीलमि


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