उपसर्ग
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उपसर्ग
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 2 |
पृष्ठ संख्या | 124 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | कैलासचंद्र शर्म्मा |
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उपसगर् योगियों की योगसाधना के बीच होनेवाले विघ्न। ये पाँच प्रकार के बताए गए हैं : (1) प्रतिभ, (2) श्रावण, (3) दैव, (4) भ्रम (5) आवर्तक। बौद्ध एवं जैन साहित्य में साधानारत भिक्षिओं तथा मुनियों पर होनेवाले उक्त उपसर्गों के विस्तृत विवरण मिलते हैं। जैन साहित्य में विशेष रूप से इनका उल्लेख रहता है क्योंकि जैन धर्म के अनुसार साधना करते समय उपसर्गो का होना अनिवार्य है और केवल वे ही व्यक्ति अपनी साधना में सफल हो सकते हैं जो उक्त सभी उपसर्गों को अविचलित रहकर झेल लें। हिंदू धर्मकथाओं में भी साधना करनेवाले व्यक्तियों को अनेक विघ्नबाधाओं का सामना करना पड़ता है किंतु वहाँ उन्हें उपसर्ग की संज्ञा यदाकदा ही गई है।
उन शब्दों या अव्ययों को ही भी उपसर्ग कहा जाता है जो किसी शब्द के पहले लगकर उसमें विशेष अर्थापन कर देते हैं, जैसे अनु, अब, उप, उद् आदि।
टीका टिप्पणी और संदर्भ