किला

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लेख सूचना
किला
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3
पृष्ठ संख्या 16-17
भाषा हिन्दी देवनागरी
लेखक सर सैयद अहमद खाँ, शुक्ल, द्विजेंद्रनाथ, रिजवी, ब्राउन पर्सी, फर्ग्युसन, जेम्स, फ़ेशर, सर बैनिस्टर, सिडनी टाय,
संपादक सुधाकर पांडेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1976 ईसवी
स्रोत सर सैयद अहमद खाँ : आसारूस्सनादीद; शुक्ल, द्विजेंद्रनाथ : भारतीय वास्तुशास्त्र : रिजवी : खिलजीकालीन भारत; तुगलककालीन भारत, भाग 1; दि कैंब्रिज हिस्ट्री ऑव इंडिया, भाग 3,4; ब्राउन पर्सी : इंडियन आर्किटेक्चर; फर्ग्युसन, जेम्स : ए शार्ट हिस्ट्री ऑव इंडियन ऐंड ईस्टर्न आर्किटेक्चर; फ़ेशर, सर बैनिस्टर : ए हिस्ट्री ऑव आर्किटेक्चर आन द कं पैरेटिव मेथड; सिडनी टाय: दि कैसिल्स ऑच ग्रेट ब्रिटेन ; ए हिस्ट्री ऑव फोर्टिफ़िकेशन, दि स्ट्रागहोल्ड्स ऑव इंडिया
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक सैयद अतहर अब्बास रिज़वी; परमेश्वरीलाल गुप्त

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किला शत्रु से सुरक्षा के लिए बनाए जानेवाले वास्तु का नाम किला हैं; उसे दुर्ग भी कहते हैं। नगरों, सैनिक छावनियों और राजप्रासादों सुरक्षा के लिये किलों के निर्माण की परंपरा अति प्राचीन काल से चली आ रही है। वैदिककालीन साहित्य में पुरों का जिस रूप में उल्लेख है उससे ज्ञात होता है कि उन दिनों दुर्ग से घिरी बस्तियाँ हुआ करती थीं। पुरातात्विक उत्खनन से मुहें-जोदड़ों, हड़प्पा, रूपड़ आदि पुरा-ऐतिहासिक नगरों के जो अवशेष प्रकाश में आए हैं उनसे ज्ञात होता हैं कि उन दिनों नगरों के दो खंड होते थे; एक खंड ऊँचे प्राचीरों से घिरा होता था। ऐतिहासिक काल के किले के प्राचीनतम अवशेष राजगृह में पत्थरों से बने प्राचीर के रूप में प्राप्त हुए हैं। पाटलिपुत्र के किले के जो कुछ थोड़े से चिह्न मिले हैं, उनसे ऐसा जान पड़ता हैं कि प्राचीरों के निर्माण में लकड़ी का प्रयोग किया गया था। मौर्यकाल में मेगस्थने नामक जो यवन राजदूत आया था उसने इस किले का विशद वर्णन किया हैं। उसने लिखा है कि पाटलिपुत्र नगर नौ मील लंबा और लगभग दो मील चौड़ा है जो चारों ओर 600 हाथ चौड़ी और 30 हाथ गहरी खाँईं से घिरा है। इसके चारों ओर काठ की सुदृढ़ दीवार बनाई गई है जिसमें 500 बुर्ज हैं और 64 मजबूत फाटक लगे हैं। कौशांबी के उत्खनन में किले की दीवार के जो अंशप्रकाश में आए हैं, वे पक्की ईटोंं से जड़े हुए हैं। राजघाट (वाराणसी) के उत्खनन में गंगा के किनारे कच्ची मिट्टी के ठोस प्राचीर के अंश प्रकाश में आए थे। किंतु इन सबसे प्राचीन किलों का पूर्ण स्वरूप सामने नहीं आता। एरण (जिला सागर, मध्य प्रदेश) में, जो गुप्त काल में एक प्रसिद्ध नगर था, काफी दूर तक दुर्ग के अवशेष मिले हैं। उनके अध्ययन से ज्ञात होता है कि उस नगर को इस प्रकार बसाया गया था कि नदियाँ खाईं का काम दें। तीन ओर से वह वीणा नदी से घिरा हुआ था, चौथी ओर दो अन्य छोटी नदियाँ थीं, जो नगर के पश्चिमी भाग में बहती थीं और चौथी ओर वीणा नदी में गिरती थीं। नदियों द्वारा बने इस प्राकृतिक खाई के भीतर दुर्ग का प्राचीर था जो कदाचित्‌ एकदम खड़ी दीवारों से बना था और उनमें ऊँची गोल बुर्जियाँ रही होगी।

कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार छोटे किलों को संग्रहण, उनसे बड़े को द्रोणमुख और सबसे बड़े किलों के दो रूप बताए गए हैं-(1) अकृत्रिम, अर्थात्‌ जल, पर्वत, वन आदि से सुरक्षित और (2) कृत्रिम, ईटं पत्थर आदि से बने। शिल्प शास्त्र के अन्य ग्रंथों में इनका विस्तृत रूप में निम्नलिखित समूहों में विभाजन किया गया है-

  • पर्वतीय दुर्ग-नगरदुर्ग (।) प्रातंर (।।) गिरिसमीपक तथा (।।।) गुहादुर्ग
  • जलदुर्ग (।) अंतर्द्वीपीय (।।) स्थलदुर्ग
  • धान्वनदुर्ग (।)निरूदक (।।) ऐरण
  • वनदुर्ग (।) खाजन (।।) स्तंब गहन
  • महीदुर्ग (।) पारिध (।।) पंक तथा (।।।) मृद्दुर्ग
  • नृदुर्ग (।) सैन्यदुर्ग (।।) सहायदुर्ग
  • मिश्रदुर्ग-(पर्वतवन्य)
  • दैवदुर्ग

भारत के मध्यकालीन किलों के संबंध में बातें कुछ अधिक विस्तार से ज्ञात होती हैं। सामान्यत: किलों की दीवारें बड़ी चौड़ी तथा ऊँची बनाई जाती थीं जिनमें बीच में ऊँची बुर्जे तथा विशाल फाटक होते थे। इस काल के छोटी-छोटी पहाड़ियों पर बनाए गए किले बहुत बड़ी संख्या में पाए जाते हैं। राजस्थान तथा दक्षिणी भारत के किले प्राय: पहाड़ियों पर ही बनाए गए हैं और कुछ किले मीलों की परिधि में बने हैं, जो किले पहाड़ियों पर बने हैं उनमें दोहरी-तीहरी चहारदीवारियाँ हैं। सबसे ऊँची चहारदीवारी के भीतर मुख्य दुर्ग होता था। प्राय: किलों की परिधि में नगर तथा मुख्य दुर्ग दोनों ही रहते थे। मुख्य दुर्ग के एक ओर ऊँची पहाड़ी या नदी का किनारा होता था। दुर्गनिर्माण कराते समय उन मार्गों की रक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाता था जिनसे होकर शत्रु किले में आ सकते थे या आक्रमण कर सकते थे। सामान्य रूप से किले के निर्माण के लिये किसी ऊँची पहाड़ी को चुना जाता था जिसकी ढालू चट्टानों पर पहुँचना कठिन होता था। जिस ओर से शत्रु के चढ़ आने की आशंका होती थी उस ओर की चट्टानों को काटकर ऐसा ढलवाँ मार्ग बना दिया जाता था जिससे एक ही दीवार द्वारा उसकी रक्षा हो जाती थी और दूसरी पहाड़ी बिल्कुल सीधी और खड़ी होती थी। कहीं-कहीं इन ढलवाँ मार्गों में चार से लेकर सात तक दृढ़ द्वार बने होते थे। किलों की बाहरी दीवार समतल भूमि पर बनाई जाती थीं, जिसको चौड़ी और गहरी दीवार की रक्षा खाइयों द्वारा सुरक्षित किया जाता था। यदि किला नदी के किनारे स्थित होता तो एक ओर से नदी उसके रक्षा करती थीं, और शेष और खाइयाँ। खाइयाँ उठवाँ पुल द्वारा पार की जाती थी, जैसा आगरे के किले में है। यदि किला पहाड़ी पर होता था तो उसकी बाहरी दीवारों की रक्षा भी इसी प्रकार होती थी, जैसी जिंजी तथा गोलकुंडा में हैं। दौलताबाद के मुख्य किले के प्रवेश द्वार की रक्षा गहरी खाइयों द्वारा की जाती थी जिनमें सदैव पानी भरा रहता था। बीदर में नगर के चारों ओर खाइयों के अतिरिक्त किलों के रक्षार्थ तेहरी जलदार खाइयाँ बनाई गई थीं। कुछ किलों की दीवारों की मोटाई 31 से 35 फीट तक है, विशेषकर उन दीवारों की जो समतल भूमि पर बनाई गई हैं। पहाड़ी किलों में पहाड़ी को ढलवाँ बना दिया जाता था। ये दीवारें अंदर तथा बाहर की ओर पत्थर के बड़े-बड़े टुकड़ों से बनाई जाती थी और इन दोनों के बीच मार्ग प्राय: मिट्टी से भर दिया जाता था। कुछ किलों में दोहरी दीवारें रखी गई थीं जिनके बीच बहुत कम दूरी है और अंदरवाली दीवार से काफी ऊँची है, जैसा गोलकुंडा तथा तुगलकाबाद और आगरा के किलों में है। दीवार को गरगजों या बुर्जों द्वारा और भी दृढ़ बना दिया जाता था।

किले की रक्षा मोर्चा बंदीवाली दीवारों से होती थी। इनमें प्राय: आकार में साढे तीन इंच चौड़े तीन फुट ऊँचे समानांतर झरोखे होते थे। चित्तौड़ के किले में ये झरोखे 31/2 चौड़े तथा 3 फुट ऊँचे और तुगलकाबाद के किले में 6 चौड़े तथा 6 फुट ऊँचे हैं। दिल्ली के पुराने किले में झरोखों की तीन और तुगलकाबाद में चार पंक्तियाँ हैं। प्राय: किलों में छाती तक ऊँचे परकोटे ईटं द्वारा पुन: निर्मित हुए हैं जिनमें से बहुत से ऊपर की ओर वर्गाकार है जिन्हें संभवत: गोली बरसाने के उद्देश्य से बनाया गया होगा। बीजापुर, फतहपुर सीकरी तथा आगरा जैसे कुछ किलों में झरोखों के बाहरी भाग में गोली चलाने के लिए सैनिकों रक्षा के हेतु पत्थर की छतरियाँ बनी हुई हैं।

दृढ़ता की दृष्टि से किले के फाटकों में भी विभिन्नता दिखाई देती हैं, यद्यपि ये प्राय: बड़े, भारी भरकम एवं दृढ बनाए जाते थे। कुछ किलों में तीन-तीन फाटकों की व्यवस्था की गई है जिनके मध्य आँगन भी हैं, जैसे जिंजी तथा दौलताबाद में। दौलताबाद के किले में तीनों द्वारों में से सबसे बाहरी द्वार में दो दरवाजे हैं, एक तो प्रवेश के स्थान पर और दूसरा आँगन में खुलता है और इन दोनों के बीच का स्थान मेहराबदार मार्ग बन जाता है।

किलों के दरवाजे भारी तथा दृढ़ लकड़ी के बनाए जाते थे जो 6 इंच तक मोटे होते थे। पीछे की ओर लकड़ी के मजबूत बेलनों द्वारा दरवाजे को और भी दृढ़ बना दिया जाता था। बाहर की ओर इन लकड़ी के द्वारों पर प्राय: धातु की नुकीली मेखें, जो विभिन्न आकार की तथा 3 इंच से 13 इंच तक लंबी होती थीं, लगाई जाती थीं, ताकि हाथी टक्कर मार मारकर द्वार तोड़ न डालें। दरवाजे के एक पट पर एक खिड़की भी लगा दी जाती थीं जो आकार में 3 फुट चौड़ी तथा 4 फुट ऊँची होती थीं। इस खिड़की में भी नुकीली मेखें ठोंक दी जाती थीं। दरवाजा बंद करने के बाद एक भारी मूसली इस ओर से उस ओर तक हन दी जाती थीं जिससे द्वार बिल्कुल न हिल सकें। बीजापुर के किले के शाहपुर द्वार में तथा अहमदनगर के किले में भी यही व्यवस्था थी। किले के अवरोध के समय दरवाजे के समक्ष एक भारी जंजीर इस सिरे से उस सिरे तक डाल दी जाती थी। दुर्गों में जल तथा खाद्य सामग्री का पर्याप्त प्रबंध होता था। ठोस चट्टानों का काटकर बड़े बड़े जलकुंड भी बना दिए जाते थे ताकि वर्षाकाल में पानी एकत्र हो जाए और आक्रमण के समय किले के निवासियों को पानी की कोई कमी न हो। जीवन की सभी सुविधाएँँ इन किलों में उपलब्ध रहती थीं और से किले छोटे-मोटे सुंदर नगर का रूप धारण किए रहते थे।

ईस्ट इंडिया कंपनी ने यूरोपीय और भारतीय किलों के मिश्रित रूप के किले मद्रास और कलकत्ता में बनवाए थे।

भारत के बाहर अन्यत्र किले का इतिहास अधिक प्राचीन नहीं है। वहाँ किले का प्राचीनतम और विशाल रूप चीन की दीवार के रूप में देखने में आता है। ईसा से लगभग ढाई सौ वर्ष पूर्व चिन वंश के सम्राट् शिह-हांग-त्सी ने चीन देश की सीमा पर चारों ओर एक अत्यंत विशाल, लंबी, चौड़ी और मजबूत प्राचीर का निर्माण आरंभ कराया था। प्राचीन यूनान और रोम में भी किलों का निर्माण हुआ था और उनका अपना महत्व था किंतु यूरोप में किलों का इतिहास मध्य युग से ही आरंभ होता है। प्राचीनकाल किले नगरों की प्रतिरक्षा के उद्देश्य से बनते थे किंतु मध्यकालीन किले टापुओं, पहाड़ियों, दलदल के मध्य सूखी भूमि एवं अन्य दुर्गम स्थानों पर बनाए जाने लगे। जहाँ कहीं प्राकृतिक प्रतिरक्षा के स्थान प्राप्त नहीं थे, खाई खोद ली जाया करती थी। पूर्व के देशों के किलों ने भी क्रूसेड़ों (धर्मयुद्धों) के सैनिकों को अत्यधिक प्रभावित किया जिसके फलस्वरूप उन्होनें अपने किलों की निर्माणविधि में उचित उन्नति की। बारूद के आविष्कार ने यूरोप में किलों के निर्माण की आवश्यकताओं में और भी परिवर्तन कर दिए।

यूरोप की सामंती प्रथा में किलों को विशेष स्थान प्राप्त हुआ। ऐंगलो-सैक्सन युग के किलों में वास्तुकला संबंधी कोई विशेषता नहीं थीं। किंतु 11वीं सदी ईस्वी में नार्मेनयुग के किलों में खास तौर पर वास्तुकला की ओर ध्यान दिया जाने लगा। शार्पशायर के स्टोकसे कैसिल और वारविकशायर के केनिलवर्थ कैसिल उस समय की वास्तुकला के बड़े ही सुंदर उदाहरण हैं। इन किलों की विशेष इनकी खाइयाँ एवं इनके कई कई खंडों के भवन हैं।

आधुनिक युग में युद्ध के साधनों और रण-कौशल में वृद्धि तथा परिवर्तन हो जाने के कारण किलों का महत्व समाप्त हो गया है और इनकी कोई आवशकता नहीं रही।


टीका टिप्पणी और संदर्भ