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०६:३८, ७ अगस्त २०१६ के समय का अवतरण

लेख सूचना
खेल
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड -3
पृष्ठ संख्या 331
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक राम प्रसाद त्रिपाठी
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1976 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक गणेशप्रसाद सिंह

खेल मानव संस्कृति में खेल का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान हैं। भारतीय दार्शनिक तो जीवन को की खेल मानते हैं कहते हैं, परमेश्वर ने खेल खेल में ही सारी सृष्टि रच डाली है। अन्य अनेक देशों में भी इसी प्रकार की मान्यताएँ पाई जाती हैं। दार्शनिक दृष्टि से सृष्टि को या जीवन को खेल समझना मानवीय जीवन के स्वास्थ्य के लिए बहुत ही लाभप्रद सिद्ध हुआ है। यदि ऐसा न होता तो मनुष्य को जीवन की कठिनाइयाँ झेलनी मुश्किल हो जातीं। यही कारण है कि मानवीय जीवन में खेल आदिकाल से आज तक समान रूप से महत्वपूर्ण बना हुआ है। असभ्य तथा सभ्य, सभी जातियों में खेल का महत्व बराबर बना रहा है। प्राचीन कल में जो भी देश महान गिने गए, उन देशों में खेल का महत्व उतना ही बढ़ा।

खेल को पूर्ण व्यवस्थित रूप सर्वप्रथम यूनानियों ने दिया। उनकी नागरिक व्यवस्था में खेल का महत्वपूर्ण स्थान था। उस युग में ओलिंपिक खेलों में विजय मनुष्य की सबसे बड़ी उपलब्धि समझी जाती थी। गीतकार उनकी प्रशंसा में गीत लिखते थे और कलाकार उनके चित्र तथा मूर्ति बनाते थे। राज्य की ओर से उन्हें सम्मान मिलता था और उनका सारा व्यय राज्य सँभालता था। यूनानी खेल की विशेषता यह थी कि पुरस्कारों का कोई भौतिक मूल्य नहीं होता था। यह पुरस्कार प्रतीक मात्र, लारेल वृक्ष की पत्ती, होता था।

यूनान के पश्चात रोम में ऐसे ही सुव्यवस्थित खेल देवताओं की उपासना में खेले जाने लगे। इनके खेलों का भी धर्म से संबंध था। बड़े आदमी की मृत्यु या विजय के उपलक्ष में भी वहाँ खेल होने लगे थे। रोमन जनता की प्रवृत्ति देखकर निर्वाचन के उम्मीदवार प्राय: खेलों का आयोजन करते थे, जिससे जनता उनसे प्रसन्न होकर उनको निर्वाचित करे। इन खेलों को देखने के लिये जनता उमड़ पड़ती थी। यहाँ तक कि स्वयं सम्राट् इन्हें देखते थे।

भारत में खेल

प्राचीन भारत में भी शारीरिक परिश्रम की प्रतिष्ठा थी। हड़प्पा की खुदाई में बच्चों के खेलने के बहुत से मिट्टी के खिलौने मिले हैं। ताँबे की बैलगाड़ी, मिट्टी आदि के अनंत खिलौने, पासों के खेल के पट्टे इत्यादि सिंध सभ्यता के नगरों से प्राप्त हुए हैं। पासों की गोटें बड़े पत्थरों की बनी होती थीं। जुए के खेल, पासे आदि के पट्टे प्राचीन नगरों के खंडहरों से भी मिले हैं, जिससे उस खेल की लोकप्रियता प्रकट है। भारतीय इतिहास में तो इससे अनेक राजवंश नष्ट हो गए थे। नल और पांडव इसी व्यसन से संकटग्रस्त हुए। ऋग्वेद में जुआरी की पत्नी तक को दाँव पर लगाकर हार जाने, उसके तत्पश्चात करु ण विलाप तथा पासों की मोहक शक्ति का बड़ा विशद और मार्मिक वर्णन हुआ है। जुआ लकड़ी के पासों से खेला जाता था। ऋग्वेद में जिस समन नामक मेले का उल्लेख हुआ है, उसमें सामूहिक नृत्यादि रात में और घुड़दौड़, रथधावन आदि खेल दिन में हुआ करते थे। वहीं कुमारियों के लिए वर भी प्राप्त हो जाया करते थे। ऋषि का वाक्य है : नाऽन्य आत्मा बलहीनेन लभ्य:, अर्थात, निर्बल द्वारा आत्मा की उपलब्धि नहीं होती। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष केवल बलवान्‌ को ही मिल सकता है उस समय विनोद और व्यायाम के बहुत से खेल खेले जाते थे। घुड़दौड़ तथा रथों की दौड़ का बहुत प्रचार था।

खेल के प्रकार

जलविहार, जिसका वर्णन संस्कृत महाकाव्यों में बहुधा हुआ है, प्राय: हुआ करते थे। कंस के राज्य में कुश्ती का बड़ा प्रचार था। चाणूर शल, और तोषल नामक मुख्य पहलवान कंस के दरबार में थे। कृष्ण को मारने के लिए कंस ने इन्हीं पहलवानों से उनकी कुश्ती कराई थी। महाभारत के समय गुल्ली डंडे का खेल भी प्रचलित था। पांडव और कौरव इस खेल के प्रति विशेष अनुरक्त थे। मदमत्त हाथी को छेड़ना और उससे बचना भी बहुत प्रचलित था। कृष्ण, बलराम, भीमसेन, आदि ने हाथी से होड़ लिया था। इस खेल को साथामारी कहते थे। घुड़वार भी हाथी को छेड़कर अपने को और घोड़े को बचाते थे। इस खेल को दागदारी कहते थे। यह कला आजकल भी विवाह शादी के अवसरों पर कहीं कहीं देखने को मिलती है। द्वारचार के समय घुड़सवार हाथी के मस्तक पर घोड़ा चढ़ाने का प्रयत्न करते हैं।

बौद्धकाल में भी खेलों की कमी न थी। उस समय दौड़ना, उछलना, कूदना, फाँदना और घूसेबाजी (मुक्की) का विशेष प्रचार था। खेलकूद तथा मालिश के अलग अलग कमरे बने हुए थे और पास ही एक स्नानागार हुआ करता था। समयांतर से तक्षशिला और नालंदा के विश्वविद्यालय खुले। शिक्षा के इन केंद्रों में बहुत से विभाग थे, जिनमें खेलकूद का विशेष स्थान था। तैराकी, कुश्ती, तीरंदाजी, लँगड़ी इत्यादि क्रियाएँ छात्रों से कराई जाती थीं।

चौगान का खेल भी प्राचीन भारतीय है। राम का अपने भाइयों के साथ चौगान खेलने की परंपरा प्रसिद्ध है। पोलो उसी से मिलता जुलता घुड़सवारों का खेल है, जिसका आविष्कार, जैसा उसके नाम पोलो से ध्वनित है, संभवत: तिब्बत में हुआ। संसार के सबसे सुंदर पोलो खेलनेवाले आज भारतीय हैं। जयपुर की टीम इस दिशा में मूर्धन्य है। ईरानियों ने तिब्बतियों से सीखकर इसका विशेष विकास किया था। अकबर के दरबारी चौगान खेलने में प्रसिद्ध थे। उसके दरबार में पहलवानों, नटों तथा अस्त्र शस्त्र में निपुण लोगों का जमघट लगा रहता था। धनुष और तलवार अदि के खेल सभी देशों में युद्ध के अतिरिक्त खेले जाते रहे हैं। पोल ड्रिल का खेल मुगलों की ही देन है। बाबर ने अपने सैनिकों को बहुत से नए नए खेल सिखाए थे जिनमें मेंढक कूद बहुत प्रसिद्ध है। महाराष्ट्र में श्री समर्थ रामदास स्वामी के प्रोत्साहन द्वारा व्यायामशालाओं में लाठी, लेजिम, कुश्ती, मलखम, बनेठी, खोखो और होतूतू आदि खेले जाते थे। 18 वीं शताब्दी के अंत में पेशवा बाजीराव ने बहुत से दंगल कराए और व्यायामशालाएँ खुलवाई। श्री दादा, जिन्होंने मलखम का आविष्कार किया, इन्हीं व्यायामशालाओं में शिक्षित हुए थे। अपने मलखम की बदौलत निजाम के दरबार के अली और गुलाम दो नामी पहलवानों को श्री दादा मिनटों में चित्त कर देते थे। दादा ने कई जगहों में भ्रमण किया। काशी में अनंतराम गुरु इनके शिष्य थे। इनकी अध्यक्षता में काशी भी मलखम कला में अग्रणी हो गई।

विदेशों में क्रिकेट, हाकी, फुटबाल, टेनिस, गोला आदि का प्रचार सदियों पहले हो चुका था। भारत में भी 19 वीं सदी के उत्तरार्ध में लार्ड मेकाले की शिक्षानीति के कारण स्कूलों आदि में खेलों का प्रचार हुआ। कुछ देशी खेलों ने राष्ट्रीय स्तर भी प्राप्त कर लिया है, जैसे कबड्डी और खोखो। खेलकूद का प्रसार भारत में कौंसिल ऑव स्पोर्टस्‌ द्वारा हो रहा है। भारत ने सब विदेशी खेलों, जैसे क्रिकेट, हाकी, फुटबाल, टेनिस तथा दौड़ धूप को खूब अपनाया है और कुछ में तो विश्व भर में सम्मानजनक स्थान प्राप्त कर लिया है। हाकी में 1928ई. से ही भारतीय खिलाड़ी विश्व के आलिंपिक में सर्वोपरि सिद्ध हुए हैं। ध्यान चंद को हाकी का जादूगर कहा गया है। 1960 ई. में पहली बार पाकिस्तान ने रोम की ओलिंपिक हाकी प्रतियोगिता में भारत को हराया। यह खेल भारत के हर भाग में खेला जा रहा है। राजकुमारी कोचिंग स्कीम के अंतर्गत प्रत्येक राज्य में खेलों का प्रशिक्षण चल रहा है। राष्ट्रीय प्रतियोगिताएँ भी चलती है, जिनमें बाइटन कप, आगा खाँ कप और अंतरराज्य प्रतियोगिताएँ प्रमुख हैं।

फुटबाल का खेल बंगाल और दक्षिण भारत में विशेष प्रचलित है। अब उत्तरी भारत ने भी इसे अपना लिया है। इस खेल के प्रशिक्षण की सुविधा भी प्राप्त है। 1963 ई. के चौथे एशियन गेम्स की प्रतियोगिता में भारत की टीम विजयी रही है। राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में आई. एफ. ए. शील्ड, डुरेंड कप प्रमुख हैं। क्रिकेट के खेल में भारत को पहले पहल सन 1932 में टेस्ट स्तर मिला और यह खेल भारत और इंग्लैंड के बीच खेला गया। तब से आज तक भारत और इंग्लैंड के खिलाड़ियों का एक का दूसरे देश में आवागमन बना हुआ है। 1947 ई. में भारत की टीम आस्ट्रेलिया गई थी। उसके बाद वेस्ट इंडीज और कामनवेल्थ की टीमों से टेस्ट स्तर पर मैच खेले जा चुके हैं।

बैंडमिंटन में भी भारत का स्थान विश्वविख्यात है। कहा जाता है, बैडमिंटन विदेशी खेल नहीं है। इसकी उत्पत्ति बंबई प्रांत के पूना शहर में हुई। वहाँ से अंग्रेज इसे विलायत ले गए और उसमें संशोधन तथा परिवर्तन कर आधुनिक रूप ग्लोसेस्टर (इंग्लैंड) में दिया। धीर-धीरे इसका प्रचार बढ़ता गया और अन्य देशों ने भी इसे अपना लिया। अब तो यह अंतरराष्ट्रीय खेल हो गया है। अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में 25 से भी अधिक देश भाग लेते हैं। भारत में इस खेल का स्तर ऊँचा उठता जा रहा है।

टेनिस का खेल भी भारत में खूब पनपा। भारत के खिलाड़ी रामनाथन कृष्णन एक बार अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में सर्वश्रेष्ठ चार खिलाड़ियों तक पहुँच गए थे और उस सेमीफाइनल मैच में नील फ्रेजर के हाथ पराजित हुए। यही नील फ्रेजर अंत में विश्वाविजेता रहा।

दौड़धूप (टैक और फील्ड स्पोर्टस) में अभी भारत पिछड़ा हुआ है। 100 गज और दो सौ गज की दौड़ में लेवी पिंटों का स्थान है। 1958 के टोकियो के एशियन गेम्स में इन दोनों खेलों में ये विजेता रहे। पोलो, गोल्फ, बौक्सिंग, तैराकी, ऐंगलिंग और हंटिग के खेल भी काफी प्रचलित हैं। शतरंज, बिलियर्ड्‌स, टेबिल टेनिस और ताश के खेल भी भारत में राष्ट्रीय स्तर पर खेले जाते हैं।

कुश्ती में भी भारत का स्थान विश्वविख्यात है। भारत का पहलवान गामा विश्वविजयी रहा है और विदेशों में उसका गौरवमय स्थान है।

भारत में कबड्डी का खेल प्राचीन काल से खेला जाता है। देहातों में भी लोग इस खेल को बहुत पसंद करते हैं। स्कूलों, कालेजों और विश्वविद्यालयों में इसने अन्य खेलों के बराबर स्तर प्राप्त कर लिया है। भारत में इस खेल के कई नाम हैं। बंबई और मध्य प्रदेश में इसे होतूतू कहते हैं, मद्रास तथा मैसूर में चेडूगुडू और उत्तर प्रदेश में कबड्डी कहते हैं। 1918-1921 ई. में सतारा के खिलाड़ियों ने इस खेल को एक विशेष रूप दिया और प्रतियोगिताएँ संगठित कीं। 1923 ई. में एच. वी. जिमखाना ने इस खेल की नियमावाली प्रकाशित की। बड़ौदा में राष्ट्रीय स्तर पर प्रतियोगिताएँ की गईं और इसमें पचास टीमों ने भाग लिया। आजकल राष्ट्रीय स्तर पर और अंतर विश्वविद्यालय स्तर पर प्रतियोगिताएँ होती हैं।

देशी खेलों में खोखो खेल का स्थान भी ऊँचा हो गया है। यह खेल महाराष्ट्र की देन है। इस खेल की पहली नियमावली 1914 ई. में डेकन जिमखाना ने पूना में प्रकाशित की। 1924 ई. में एच. वी. जिमखाना ने कुछ परिवर्तन कर इसे पुन: प्रकाशित किया। इस खेल को भी विश्वविद्यालयों में अन्य खेलों के समान उच्च स्तर प्राप्त हो गया है। 1936 ई. में अमरावती व्यायामशाला के कुछ युवकों की टोली जर्मनी गई थी और विश्व खेल प्रदर्शन में इन्होंने खोखो खेल का प्रदर्शन किया था। वहाँ इस खेल की बड़ी सराहना की गई थी। अमरावती की इस टीम को हिटलर पदक और पुरस्कार प्रदान किया गया था।

मुक्की का खेल भी काफी प्रचलित है। मुक्की का खेल काशी में होली और निर्जला एकादशी के अवसर पर खेला जाता है और प्रदर्शकों को पुरस्कार बाँटा जाता है।

आजकल अंतरराष्ट्रीय खेलों का महत्व दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है। ऐसे खेलों के लिए वर्ल्ड ओलिंपिक्स, विंटर स्पोर्टस, एशियन गेम्स इत्यादि संघटन बहुत लोकप्रिय हैं। इनमें संसार के प्राय: सभी देश भाग लेते हैं। ऐसे खेलों से विभिन्न देशों में परस्पर सदभावना बढ़ाने में यथेष्ट सहायता मिलती है। ये खेल बारी बारी से विभिन्न देशों में आयोजित होते हैं और वहाँ की जनता इन खेलों को देखने के लिए उमड़ पड़ती है। एक ही स्थान पर विभिन्न देशों के खिलाड़ी अपनी विभिन्नताओं के साथ इकट्ठा होते हैं और एक दूसरे से मिलकर वे प्रेरणा ग्रहण करते हैं। प्राय: देखा जाता है कि जो देश जितना सुखी और संपन्न है, उतना ही वह खेलों में भी कुशल है, अर्थात्‌ खेल भी देश की संस्कृति तथा सभ्यता के विकास का आजकल मानदंड होता जा रहा है।

नटों के विविधि खेल, बाँसों और रस्सियों पर नृत्य आदि, भारत में अति प्राचीन काल से प्रचलित रहे हैं। अशोक ने जिस समज्जा नामक मेले का उल्लेख अपने अभिलेख में किया है, वह संभवत: ऋग्वेद का मेलासमन ही था, जिसमें नटों के भी विशेष करतब दिखाए जाते थे। कालांतर में नटों के खेल इतने लोकप्रिय होने लगे कि उनमें अनेक अनैतिक असामाजिक कुरीतियाँ आ गईं। इस कारण अशोक को आदेश द्वारा समज्जा को बंद कर देना पड़ा।

जादू के खेल संसार में सर्वत्र सदा से लोकप्रिय रहे हैं। उनमें मिस्र और मास्को विशेष प्रसिद्ध हैं। रोंगटे खड़े कर देनेवाले अनेक आश्चर्यजनक खेल दर्शकों को सर्वथा अवाक्‌ कर दिया करते हैं। भारत के विख्यात जादूगर स्व. पी. सी. सरकार ने अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा अर्जित की थी और आज भी के. लाल की इस क्षेत्र में प्रसिद्धि हो रही है।

साँपों का प्रदर्शन, उनसे नेवलों की लड़ाई, रीछ बंदरों के नाच इत्यादि भारत के अपने खेल हैं, जिनसे इस देश के निवासियों से भी अधिक विदेशी पर्यटकों का कुतूहलपूर्ण मनोरंजन होता है। भेड़ों, मुर्गों, बटेरों की लड़ाई तथा बड़ी बड़ी पतंगों की पतंगबाजी अवध का विशेष व्यसन रहा है। पतंगबाजी तो उत्तर भारत का बड़ा आकर्षक खेल है। कठपुतलियों (देखिए कठपुतली) के खेल तो आज सारे संसार में प्रचलित हैं और नागरिकों का बड़ा मनोरंजन करते हैं। मास्को और पैरिस में तो उनके स्वतंत्र रंगमंच भी हैं। भारत में, विशेषकर राजस्थान में, यह खेल असाधारण जीवित संस्था है। इसी प्रकार शतरंज, चौपड़, आदि का भी एशिया के देशों में विशेष प्रचलन है। शतरंज का आविष्कार भारत ने किया और ईरान से इसका विस्तार हुआ। ताश का खेल तो इतना जनसाधारण है कि उसका उल्लेख करने की आवश्यकता ही नहीं।


टीका टिप्पणी और संदर्भ