"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 128" के अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">14.दिव्य कर्म का सिद्धांत</div>
 
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सो गीता की यज्ञविषयक शिक्षा का अभिप्राय यही है। इसका पूर्ण मार्ग पुरूषोत्तम - तत्व की भावना पर निर्भर है, जिसका विवेचन अभीतक अच्छी तरह नहीं हुआ है - गीता के 18 अध्यायों के शेष भाग में ही इस तत्व का वर्णन स्पष्ट रूप से आया है - और इसीलिये हमें गीता की प्रगतिशील वर्णन - शैली की मर्यादा का अतिक्रम करके भी इस केन्द्रीभूत शिक्षा की चर्चा पहले सी ही करनी पड़ी । अभी भगवान् गुरू ने पुरूषोत्तम की परम सत्ता का अक्षर ब्रह्म के साथ - जिनमें ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त कर पूर्ण शांति और समता की अवस्था में अपने - आपको स्थिर करना पहला काम है और हमारी अति आवश्यक आध्यात्मिक मांग है - क्या संबंध है इसका एक संकेतमात्र दिया है, एक हल्की - सी झलक भर दिखायी है। अभी वे पुरूषोत्तम - भाव की स्पष्ट भाषा में नहीं बोल रहे , बल्कि “मैं” कृष्ण, नारायण, अवतार - रूप से बोल रहे हैं - वह अवतार, जो नर में नारायण हैं, इस विश्व में भी परम प्रभु हैं और कुरूक्षेत्र के सारथी के रूप में अवतरित हुए हैं। पहले आत्मा में पीछे मुझमें , वे यहां यही सूत्र बतलाते हैं जिसका अभिप्राय यह है कि व्यष्टिबद्ध पुरूष - भाव को स्वतः स्थित नैव्र्यक्तिक भ्रम - भाव का ही एक ‘भूत भाव‘ जानकर इस व्यष्टिबंधन से मुक्त होकर इसके परे पहुंचना इन गुह्मतम नैव्र्यक्तिक परम पुरूष को प्राप्त होने का एक साधनमात्र है जो निश्चल , स्थिर और प्रकृति के परे, नैवर्यक्तिक ब्रह्म में आसीन हैं, पर इसके साथ ही इन असंख्य भूतभावों की प्रकृति में भी विद्यमान और क्रियाशील हैं। अपने निम्नतर व्यष्टिबद्ध पूरूष -भाव का नैव्यक्तिक ब्रह्म में लय करके हम अंत में उन परम पुरूष के साथ एकत्व लाभ करते हैं जो पृथक व्यक्ति या व्यष्टिभाव न होते हुए भी सब व्यष्टियों का अभिनय करते हैं। त्रिगुणात्मिका अपरा प्रकृति को पार कर अंतरात्मा को त्रिगुणातीत अक्षर पुरूष में स्थित करके हम अंत में उन अनंत परमेश्वर की परा प्रकृति में पहुंच सकते हैं जो प्रकृति द्वारा कर्म करते हुए भी त्रिगुंण में आबद्ध नहीं होते । शांत पुरूष के आंतर नैष्कम्र्य को प्राप्त होकर और प्रकृति को अपना काम करने के लिये स्वतत्र छोड़कर हम कर्मो के परे उस परम पद को, उस दिव्य प्रभुत्व को प्राप्व्त कर सकते हैं जिसमें सब कर्म किये जा सकते हैं पर बंधन किसी का नहीं होता। इसलिये पुरूषोतम की भावना ही, जो पुरूषोत्तम यहां अवतीर्ण नारायण, कृष्ण रूप में दिखाई देते हैं। इसकी कुंजी हैं। इस कुंजी के बिना निम्न प्रकृति से निवृत्त हाकेर ब्राह्मी स्थिति में चले जाने का अर्थ होगा मुक्त पुरूष का निष्क्रिय , और जगत् के कर्मो से उदासीन हो जाना; और इस कुंजी के होने से यही अलग होना , यही निवृत्ति एक ऐसी प्रगति हो जाती है। जिससे जगत् के कर्म भगवान् के स्वभाव के साथ, भगवान् की स्वतत्र सत्ता में, आत्मा के अदंर ले लिये जाते हैं।  
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सो गीता की यज्ञविषयक शिक्षा का अभिप्राय यही है। इसका पूर्ण मार्ग पुरूषोत्तम - तत्व की भावना पर निर्भर है, जिसका विवेचन अभीतक अच्छी तरह नहीं हुआ है - गीता के 18 अध्यायों के शेष भाग में ही इस तत्व का वर्णन स्पष्ट रूप से आया है - और इसीलिये हमें गीता की प्रगतिशील वर्णन - शैली की मर्यादा का अतिक्रम करके भी इस केन्द्रीभूत शिक्षा की चर्चा पहले सी ही करनी पड़ी । अभी भगवान् गुरू ने पुरूषोत्तम की परम सत्ता का अक्षर ब्रह्म के साथ - जिनमें ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त कर पूर्ण शांति और समता की अवस्था में अपने - आपको स्थिर करना पहला काम है और हमारी अति आवश्यक आध्यात्मिक मांग है - क्या संबंध है इसका एक संकेतमात्र दिया है, एक हल्की - सी झलक भर दिखायी है। अभी वे पुरूषोत्तम - भाव की स्पष्ट भाषा में नहीं बोल रहे , बल्कि “मैं” कृष्ण, नारायण, अवतार - रूप से बोल रहे हैं - वह अवतार, जो नर में नारायण हैं, इस विश्व में भी परम प्रभु हैं और कुरूक्षेत्र के सारथी के रूप में अवतरित हुए हैं। पहले आत्मा में पीछे मुझमें , वे यहां यही सूत्र बतलाते हैं जिसका अभिप्राय यह है कि व्यष्टिबद्ध पुरूष - भाव को स्वतः स्थित नैव्र्यक्तिक भ्रम - भाव का ही एक ‘भूत भाव‘ जानकर इस व्यष्टिबंधन से मुक्त होकर इसके परे पहुंचना इन गुह्मतम नैव्र्यक्तिक परम पुरूष को प्राप्त होने का एक साधनमात्र है जो निश्चल , स्थिर और प्रकृति के परे, नैवर्यक्तिक ब्रह्म में आसीन हैं, पर इसके साथ ही इन असंख्य भूतभावों की प्रकृति में भी विद्यमान और क्रियाशील हैं। <br />
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अपने निम्नतर व्यष्टिबद्ध पूरूष -भाव का नैव्यक्तिक ब्रह्म में लय करके हम अंत में उन परम पुरूष के साथ एकत्व लाभ करते हैं जो पृथक व्यक्ति या व्यष्टिभाव न होते हुए भी सब व्यष्टियों का अभिनय करते हैं। त्रिगुणात्मिका अपरा प्रकृति को पार कर अंतरात्मा को त्रिगुणातीत अक्षर पुरूष में स्थित करके हम अंत में उन अनंत परमेश्वर की परा प्रकृति में पहुंच सकते हैं जो प्रकृति द्वारा कर्म करते हुए भी त्रिगुंण में आबद्ध नहीं होते । शांत पुरूष के आंतर नैष्कम्र्य को प्राप्त होकर और प्रकृति को अपना काम करने के लिये स्वतत्र छोड़कर हम कर्मो के परे उस परम पद को, उस दिव्य प्रभुत्व को प्राप्व्त कर सकते हैं जिसमें सब कर्म किये जा सकते हैं पर बंधन किसी का नहीं होता। इसलिये पुरूषोतम की भावना ही, जो पुरूषोत्तम यहां अवतीर्ण नारायण, कृष्ण रूप में दिखाई देते हैं। इसकी कुंजी हैं। इस कुंजी के बिना निम्न प्रकृति से निवृत्त हाकेर ब्राह्मी स्थिति में चले जाने का अर्थ होगा मुक्त पुरूष का निष्क्रिय , और जगत् के कर्मो से उदासीन हो जाना; और इस कुंजी के होने से यही अलग होना , यही निवृत्ति एक ऐसी प्रगति हो जाती है। जिससे जगत् के कर्म भगवान् के स्वभाव के साथ, भगवान् की स्वतत्र सत्ता में, आत्मा के अदंर ले लिये जाते हैं।  
  
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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०८:१२, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण

गीता-प्रबंध
14.दिव्य कर्म का सिद्धांत

सो गीता की यज्ञविषयक शिक्षा का अभिप्राय यही है। इसका पूर्ण मार्ग पुरूषोत्तम - तत्व की भावना पर निर्भर है, जिसका विवेचन अभीतक अच्छी तरह नहीं हुआ है - गीता के 18 अध्यायों के शेष भाग में ही इस तत्व का वर्णन स्पष्ट रूप से आया है - और इसीलिये हमें गीता की प्रगतिशील वर्णन - शैली की मर्यादा का अतिक्रम करके भी इस केन्द्रीभूत शिक्षा की चर्चा पहले सी ही करनी पड़ी । अभी भगवान् गुरू ने पुरूषोत्तम की परम सत्ता का अक्षर ब्रह्म के साथ - जिनमें ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त कर पूर्ण शांति और समता की अवस्था में अपने - आपको स्थिर करना पहला काम है और हमारी अति आवश्यक आध्यात्मिक मांग है - क्या संबंध है इसका एक संकेतमात्र दिया है, एक हल्की - सी झलक भर दिखायी है। अभी वे पुरूषोत्तम - भाव की स्पष्ट भाषा में नहीं बोल रहे , बल्कि “मैं” कृष्ण, नारायण, अवतार - रूप से बोल रहे हैं - वह अवतार, जो नर में नारायण हैं, इस विश्व में भी परम प्रभु हैं और कुरूक्षेत्र के सारथी के रूप में अवतरित हुए हैं। पहले आत्मा में पीछे मुझमें , वे यहां यही सूत्र बतलाते हैं जिसका अभिप्राय यह है कि व्यष्टिबद्ध पुरूष - भाव को स्वतः स्थित नैव्र्यक्तिक भ्रम - भाव का ही एक ‘भूत भाव‘ जानकर इस व्यष्टिबंधन से मुक्त होकर इसके परे पहुंचना इन गुह्मतम नैव्र्यक्तिक परम पुरूष को प्राप्त होने का एक साधनमात्र है जो निश्चल , स्थिर और प्रकृति के परे, नैवर्यक्तिक ब्रह्म में आसीन हैं, पर इसके साथ ही इन असंख्य भूतभावों की प्रकृति में भी विद्यमान और क्रियाशील हैं।
अपने निम्नतर व्यष्टिबद्ध पूरूष -भाव का नैव्यक्तिक ब्रह्म में लय करके हम अंत में उन परम पुरूष के साथ एकत्व लाभ करते हैं जो पृथक व्यक्ति या व्यष्टिभाव न होते हुए भी सब व्यष्टियों का अभिनय करते हैं। त्रिगुणात्मिका अपरा प्रकृति को पार कर अंतरात्मा को त्रिगुणातीत अक्षर पुरूष में स्थित करके हम अंत में उन अनंत परमेश्वर की परा प्रकृति में पहुंच सकते हैं जो प्रकृति द्वारा कर्म करते हुए भी त्रिगुंण में आबद्ध नहीं होते । शांत पुरूष के आंतर नैष्कम्र्य को प्राप्त होकर और प्रकृति को अपना काम करने के लिये स्वतत्र छोड़कर हम कर्मो के परे उस परम पद को, उस दिव्य प्रभुत्व को प्राप्व्त कर सकते हैं जिसमें सब कर्म किये जा सकते हैं पर बंधन किसी का नहीं होता। इसलिये पुरूषोतम की भावना ही, जो पुरूषोत्तम यहां अवतीर्ण नारायण, कृष्ण रूप में दिखाई देते हैं। इसकी कुंजी हैं। इस कुंजी के बिना निम्न प्रकृति से निवृत्त हाकेर ब्राह्मी स्थिति में चले जाने का अर्थ होगा मुक्त पुरूष का निष्क्रिय , और जगत् के कर्मो से उदासीन हो जाना; और इस कुंजी के होने से यही अलग होना , यही निवृत्ति एक ऐसी प्रगति हो जाती है। जिससे जगत् के कर्म भगवान् के स्वभाव के साथ, भगवान् की स्वतत्र सत्ता में, आत्मा के अदंर ले लिये जाते हैं।


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