"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 144" के अवतरणों में अंतर

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ये आक्षेप जो पहली नजर में बडे़ प्रबल मालूम होते हैं, गीता के वक्ता भगवान् गुरू की दृष्टि के सामने मौजूद रहे होगें जब वे कहते हैं कि, यद्यपि मैं अपनी आत्म - सत्ता में अज हूं, अव्ययय हूं , प्राणि - मात्र का ईश्वर हूं , फिर भी मैं अपनी प्रकृति का अधिष्ठान करके अपनी माया के द्वारा जन्म लिया करता हूं; और जब वे यह कहते हैं कि मूढ़ लोग मनुष्य - शरीर में होने के कारण मुझे तुच्छ गिनते हैं पर यथार्थ में अपनी परम सत्ता के अंदर मैं प्राणिमात्र का ईश्वर हूं, और यह कि मैं अपनी भागवत चेतना की क्रिया में चातुर्वण्र्य का स्त्रष्टा हूं तथ जगत् के कर्मो का कर्ता हूं और यह होते हुए भी अपनी भागवत चेतना की नीरवता में मैं अपनी प्रकृति के कर्मो का उदासीन साक्षी हूँ ,क्योंकि मैं सदा कर्म और अकर्म दोनों के परे हूं ,परम प्रभु हूं, पुरूषोत्तम हूं। और इस तरह गीता अवतार - तत्व के विरूद्ध किये जाने वाले आक्षेपों का पूरा जवाब दे देती है और इन सब निरोधों का समन्वय करने में समर्थ होती है, क्योंकि ईश्वर और जगत् के संबंध में वेदांत - शास्त्र के सिद्धांत से गीता का आरंभ होता है। वेदांत की दृष्टि में ये आपातप्रबल आक्षेप प्रारंभ से ही निरस्सार और निरर्थक हैं। यद्यपि वेदांत की योजना के लिये अवतार की भावना अनिवार्य नहीं है, पर फिर भी यह भावना उसमें सर्वथा युक्तियुक्त और न्यायसंगत धारणा के रूप में सहज भाव से आ जाती है ।  
 
ये आक्षेप जो पहली नजर में बडे़ प्रबल मालूम होते हैं, गीता के वक्ता भगवान् गुरू की दृष्टि के सामने मौजूद रहे होगें जब वे कहते हैं कि, यद्यपि मैं अपनी आत्म - सत्ता में अज हूं, अव्ययय हूं , प्राणि - मात्र का ईश्वर हूं , फिर भी मैं अपनी प्रकृति का अधिष्ठान करके अपनी माया के द्वारा जन्म लिया करता हूं; और जब वे यह कहते हैं कि मूढ़ लोग मनुष्य - शरीर में होने के कारण मुझे तुच्छ गिनते हैं पर यथार्थ में अपनी परम सत्ता के अंदर मैं प्राणिमात्र का ईश्वर हूं, और यह कि मैं अपनी भागवत चेतना की क्रिया में चातुर्वण्र्य का स्त्रष्टा हूं तथ जगत् के कर्मो का कर्ता हूं और यह होते हुए भी अपनी भागवत चेतना की नीरवता में मैं अपनी प्रकृति के कर्मो का उदासीन साक्षी हूँ ,क्योंकि मैं सदा कर्म और अकर्म दोनों के परे हूं ,परम प्रभु हूं, पुरूषोत्तम हूं। और इस तरह गीता अवतार - तत्व के विरूद्ध किये जाने वाले आक्षेपों का पूरा जवाब दे देती है और इन सब निरोधों का समन्वय करने में समर्थ होती है, क्योंकि ईश्वर और जगत् के संबंध में वेदांत - शास्त्र के सिद्धांत से गीता का आरंभ होता है। वेदांत की दृष्टि में ये आपातप्रबल आक्षेप प्रारंभ से ही निरस्सार और निरर्थक हैं। यद्यपि वेदांत की योजना के लिये अवतार की भावना अनिवार्य नहीं है, पर फिर भी यह भावना उसमें सर्वथा युक्तियुक्त और न्यायसंगत धारणा के रूप में सहज भाव से आ जाती है ।  
  
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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०७:२५, २२ सितम्बर २०१५ का अवतरण

गीता-प्रबंध
15.अवतार की संभावना और हेतु

युक्तिवादियों का पक्ष यह है कि ईश्वर यदि है तो विश्वातीत, विश्व के परे है, संसर के मामलों में वह दखल नहीं देता ,बल्कि संसार का अनुशासन एक सुनिश्चित विधान के बने - बनाये यंत्र के द्वारा होने देता है - यथार्थ में वह विश्व से दूर रहने वाला कोई वैधनिक राजा- सा या कोई जढ़भरत - सा आध्यात्मिक राजा है, उसकी अधिक से - अधिक प्रशंसा यही हो सकती है कि वह प्रकृति के पीछे रहने वाला, साख्यवर्णित साधारण और वस्तुनिरपेक्ष साक्षी पुरूष - सा अकर्ता आत्मतम्व है; वह विशुद्ध आत्मा है, वह शरीर धारण नहीं कर सकता; वह अपरिच्छिन्न अनंत है , मनुष्य की तरह सांत परिच्छिन्न नहीं हो सकता; वह अजन्मा सृष्टि करता है , संसार में जन्मा हुआ सृष्ट प्राणी नहीं हो सकता ये बातें उसकी निरपेक्ष शक्तिमत्ता के लिये भी असंभव हैं। कट्टर द्वैतवादी इन बातों में अपनी तरफ से इतनी बात और जोड़ देगा कि ईश्वर हैं पर उनका स्वरूप , उनका कर्म और स्वभाव मनुष्य से भिन्न और पृथक हैं; वे पूर्ण हैं और मनुष्य की अपूर्णता को अपने ऊपर नही ओढ़ सकते; अज अविनाशी साकार परमेश्वर मनुष्य नहीं बन सकते ; सर्वलोकमहेश्वर प्रकृति से बंधे हुए मानवकर्म में और नाशवान मानव - शरीर में सीमाबद्ध नहीं हो सकते ।
ये आक्षेप जो पहली नजर में बडे़ प्रबल मालूम होते हैं, गीता के वक्ता भगवान् गुरू की दृष्टि के सामने मौजूद रहे होगें जब वे कहते हैं कि, यद्यपि मैं अपनी आत्म - सत्ता में अज हूं, अव्ययय हूं , प्राणि - मात्र का ईश्वर हूं , फिर भी मैं अपनी प्रकृति का अधिष्ठान करके अपनी माया के द्वारा जन्म लिया करता हूं; और जब वे यह कहते हैं कि मूढ़ लोग मनुष्य - शरीर में होने के कारण मुझे तुच्छ गिनते हैं पर यथार्थ में अपनी परम सत्ता के अंदर मैं प्राणिमात्र का ईश्वर हूं, और यह कि मैं अपनी भागवत चेतना की क्रिया में चातुर्वण्र्य का स्त्रष्टा हूं तथ जगत् के कर्मो का कर्ता हूं और यह होते हुए भी अपनी भागवत चेतना की नीरवता में मैं अपनी प्रकृति के कर्मो का उदासीन साक्षी हूँ ,क्योंकि मैं सदा कर्म और अकर्म दोनों के परे हूं ,परम प्रभु हूं, पुरूषोत्तम हूं। और इस तरह गीता अवतार - तत्व के विरूद्ध किये जाने वाले आक्षेपों का पूरा जवाब दे देती है और इन सब निरोधों का समन्वय करने में समर्थ होती है, क्योंकि ईश्वर और जगत् के संबंध में वेदांत - शास्त्र के सिद्धांत से गीता का आरंभ होता है। वेदांत की दृष्टि में ये आपातप्रबल आक्षेप प्रारंभ से ही निरस्सार और निरर्थक हैं। यद्यपि वेदांत की योजना के लिये अवतार की भावना अनिवार्य नहीं है, पर फिर भी यह भावना उसमें सर्वथा युक्तियुक्त और न्यायसंगत धारणा के रूप में सहज भाव से आ जाती है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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