"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 185" के अवतरणों में अंतर

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यह समता का सात्विक - तामस सिद्धांत है , इसमें इतनी समता नहीं है - यद्यपि यह सिद्धांत समता की ओर ले जाने वाला हो सकता है - जितनी उदासीनता या समान रूप से अस्वीकृति । वस्तुतः तामसी समता प्रकृति के जुगुप्सा - तत्व का फैलाव है। किसी विशेष कष्ट या यंत्रणा से जी हटता है, वही फैलकर प्रकृति के समस्त जीवन को दुःखमय और यंत्राणामय मानने लगता है और यह समझने लगता है कि यह सारा जीवन दुःख और आत्म - यंत्रणा की ओर प्रभावित हो रहा है , जीव जिस आनंद की इच्छा करता है उसकी ओर नहीं।केवल तामसिक समता में वास्तविक मुक्ति नहीं है ; किंतु जैसा कि भारतीय यतियों ने किया, इसको यदि प्रकृति के परे अक्षर ब्रह्म की महत्तर स्थिति, सत्यतर शक्ति और उच्चतर आनंद के अनुभव द्वारा सात्विक बनाया जा सके तो आरंभ करने के लिये तामसिक समता भी शक्तिशाली साधन हो सकती है । पर इस प्रकार की गति स्वभावतः संन्यास , अर्थात् जीवन और कर्मो के त्याग की ओर ले जाती है न कि कामना के आंतर त्याग के साथ प्रकृति के जगत् की चिरकर्मण्यता के एकत्व की ओर , जो गीता का प्रतिपाद्य विषय है । फिर भी ,गीता इस प्रवृत्ति को स्वीकार करती है, वह जन्म , रोग , मृत्यु , बुढ़ापा , दुःख आदि जागतिक जीवन के दोषों पर आधारित पीछे हटने की वृत्ति को भी स्थान देती है जहां से बुद्ध का ऐतिहासिक त्याग आरंभ हुआ था।
 
यह समता का सात्विक - तामस सिद्धांत है , इसमें इतनी समता नहीं है - यद्यपि यह सिद्धांत समता की ओर ले जाने वाला हो सकता है - जितनी उदासीनता या समान रूप से अस्वीकृति । वस्तुतः तामसी समता प्रकृति के जुगुप्सा - तत्व का फैलाव है। किसी विशेष कष्ट या यंत्रणा से जी हटता है, वही फैलकर प्रकृति के समस्त जीवन को दुःखमय और यंत्राणामय मानने लगता है और यह समझने लगता है कि यह सारा जीवन दुःख और आत्म - यंत्रणा की ओर प्रभावित हो रहा है , जीव जिस आनंद की इच्छा करता है उसकी ओर नहीं।केवल तामसिक समता में वास्तविक मुक्ति नहीं है ; किंतु जैसा कि भारतीय यतियों ने किया, इसको यदि प्रकृति के परे अक्षर ब्रह्म की महत्तर स्थिति, सत्यतर शक्ति और उच्चतर आनंद के अनुभव द्वारा सात्विक बनाया जा सके तो आरंभ करने के लिये तामसिक समता भी शक्तिशाली साधन हो सकती है । पर इस प्रकार की गति स्वभावतः संन्यास , अर्थात् जीवन और कर्मो के त्याग की ओर ले जाती है न कि कामना के आंतर त्याग के साथ प्रकृति के जगत् की चिरकर्मण्यता के एकत्व की ओर , जो गीता का प्रतिपाद्य विषय है । फिर भी ,गीता इस प्रवृत्ति को स्वीकार करती है, वह जन्म , रोग , मृत्यु , बुढ़ापा , दुःख आदि जागतिक जीवन के दोषों पर आधारित पीछे हटने की वृत्ति को भी स्थान देती है जहां से बुद्ध का ऐतिहासिक त्याग आरंभ हुआ था।
  
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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०८:१८, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण

गीता-प्रबंध
19.समत्व

समत्व का यह आरंभ सात्विक हो सकता है अथवा राजस या तामस , क्योंकि मानव - स्वभाव में तामसी समता भी संभव है। यह समता सर्वथा तामसी भी हो सकती है , अर्थात् प्राणवृत्ति अहदी बन गयी हो, जीवन के आघातों का प्रत्युतर जड़ता के कारण बंद हो गया हो तथा एक प्रकार की मंद संज्ञाहीनता के कारण जीवन के सुखों के प्रति अनिच्छा हो गयी हो। अथवा सुखों का बहुत अधिक भोग करते - करते भावावेग और कामनाएं अधा गयी हों, या फिर जीवन की यंत्रणा सहते - सहते जीवन से एक प्रकार की निराशा या घृणा या ग्लानि पैदा हो गयी हो , जगत् से जी ऊब गया हो, वह भयावह त्रास -रूप हो उठा हो , उससे अरूचि हो गयी हो और ये सब कारण मिलकर सामसिक समता को ले आये हों ; पर इस अवस्था में वह मिश्रित राजस - तामस होती है , यद्यपि उसमें तमोगुण की प्रधानता होती है। अथवा तामसी समता सत्वगुण की ओर झुकते हुए इस मानसिक बोध का सहारा ले सकती है कि जीवन की कामनाओं की कभी तृप्ति नहीं हो सकती , जीव में इतनी शक्ति नहीं कि जीवन को अपने वश में करे , यह सब केवल दुःखमय और अनत्यि प्रयास है , इस जीवन में कोई वास्तविक सत्य नहीं है कोई स्वस्ति नहीं , कोई प्रकाश नहीं , कोई सुख नहीं।
यह समता का सात्विक - तामस सिद्धांत है , इसमें इतनी समता नहीं है - यद्यपि यह सिद्धांत समता की ओर ले जाने वाला हो सकता है - जितनी उदासीनता या समान रूप से अस्वीकृति । वस्तुतः तामसी समता प्रकृति के जुगुप्सा - तत्व का फैलाव है। किसी विशेष कष्ट या यंत्रणा से जी हटता है, वही फैलकर प्रकृति के समस्त जीवन को दुःखमय और यंत्राणामय मानने लगता है और यह समझने लगता है कि यह सारा जीवन दुःख और आत्म - यंत्रणा की ओर प्रभावित हो रहा है , जीव जिस आनंद की इच्छा करता है उसकी ओर नहीं।केवल तामसिक समता में वास्तविक मुक्ति नहीं है ; किंतु जैसा कि भारतीय यतियों ने किया, इसको यदि प्रकृति के परे अक्षर ब्रह्म की महत्तर स्थिति, सत्यतर शक्ति और उच्चतर आनंद के अनुभव द्वारा सात्विक बनाया जा सके तो आरंभ करने के लिये तामसिक समता भी शक्तिशाली साधन हो सकती है । पर इस प्रकार की गति स्वभावतः संन्यास , अर्थात् जीवन और कर्मो के त्याग की ओर ले जाती है न कि कामना के आंतर त्याग के साथ प्रकृति के जगत् की चिरकर्मण्यता के एकत्व की ओर , जो गीता का प्रतिपाद्य विषय है । फिर भी ,गीता इस प्रवृत्ति को स्वीकार करती है, वह जन्म , रोग , मृत्यु , बुढ़ापा , दुःख आदि जागतिक जीवन के दोषों पर आधारित पीछे हटने की वृत्ति को भी स्थान देती है जहां से बुद्ध का ऐतिहासिक त्याग आरंभ हुआ था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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