"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 197" के अवतरणों में अंतर

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इससे एक महान् शांति मिलती है, एक तापस सुख मिलता है; परंतु यह वह परम आनंद नहीं है जो मुक्त पुरूष को, किसी नियम के अधीन रहने से नहीं , बल्कि अपनी दिव्य सत्ता की विशुद्ध , सहज - स्वाभविक सिद्धस्थिति में रहने से प्राप्त होता है, यहां वह ‘‘ चाहे जिस तरह रहे , चाहे जो करे भगवान् में ही रहता और कर्म करता है।”<ref>6.31</ref>कारण यहां जो सिद्ध - स्थिति प्राप्त होती है वह केवल प्राप्त ही नहीं होती , स्वाधिकार से सदा अधिकृत भी रहती है, इसकी रक्षा के लिये कोई प्रयास नहीं करना पड़ता, क्योंकि वह जीव का स्वभाव बन जाती है। गीता निम्न प्रकृति के साथ हमारे युद्ध में सहनशक्ति और धैर्य को प्राथमिक साधना के तौर पर स्वीकार करती है; परंतु जहां अपने पुरूषार्थ से एक प्रकार वशित्व प्राप्त होता है वहां इस वशित्व की मुक्तावस्था भगवत्सायुज्य से ही अर्थात् व्यष्टिपुरूष के उन ‘एक‘ अद्वितीय भगवान् में निमज्जित या स्थित होने से और अपनी इच्छा को भगवान् की इच्छा में खो देने से ही प्राप्त होती है। प्रकृति और उसके कर्मो के एक अधीश्वर हैं जो प्रकृति में रहते हुए भी उसके ऊपर हैं, वे ही हमारी सर्वोत्तम सत्ता और हमारी विश्वव्यापी आत्मा हैं; उनके साथ एक हो जाना अपने - आपको दिव्य बनाना है। भगवान् के साथ एकत्व लाभ करके हम परम स्वातंत्र्य और परम प्रभुत्व में प्रवेश पाते हैं। स्टोइक तितिक्षा - धर्म का आदर्श वह मुनि है जो आत्मवशी है, अपना राजा अपने - आप है, क्योंकि वह आत्म - अनुशासन के द्वारा बाह्म परिस्थितियों को अपने वश में कर लेता है। यह आदर्श बाह्मतः वेदांत के ‘स्वराट्’ और ‘सम्राट्’ से मिलता - जुलता है, पर है उससे निम्नतर स्तर का।
 
इससे एक महान् शांति मिलती है, एक तापस सुख मिलता है; परंतु यह वह परम आनंद नहीं है जो मुक्त पुरूष को, किसी नियम के अधीन रहने से नहीं , बल्कि अपनी दिव्य सत्ता की विशुद्ध , सहज - स्वाभविक सिद्धस्थिति में रहने से प्राप्त होता है, यहां वह ‘‘ चाहे जिस तरह रहे , चाहे जो करे भगवान् में ही रहता और कर्म करता है।”<ref>6.31</ref>कारण यहां जो सिद्ध - स्थिति प्राप्त होती है वह केवल प्राप्त ही नहीं होती , स्वाधिकार से सदा अधिकृत भी रहती है, इसकी रक्षा के लिये कोई प्रयास नहीं करना पड़ता, क्योंकि वह जीव का स्वभाव बन जाती है। गीता निम्न प्रकृति के साथ हमारे युद्ध में सहनशक्ति और धैर्य को प्राथमिक साधना के तौर पर स्वीकार करती है; परंतु जहां अपने पुरूषार्थ से एक प्रकार वशित्व प्राप्त होता है वहां इस वशित्व की मुक्तावस्था भगवत्सायुज्य से ही अर्थात् व्यष्टिपुरूष के उन ‘एक‘ अद्वितीय भगवान् में निमज्जित या स्थित होने से और अपनी इच्छा को भगवान् की इच्छा में खो देने से ही प्राप्त होती है। प्रकृति और उसके कर्मो के एक अधीश्वर हैं जो प्रकृति में रहते हुए भी उसके ऊपर हैं, वे ही हमारी सर्वोत्तम सत्ता और हमारी विश्वव्यापी आत्मा हैं; उनके साथ एक हो जाना अपने - आपको दिव्य बनाना है। भगवान् के साथ एकत्व लाभ करके हम परम स्वातंत्र्य और परम प्रभुत्व में प्रवेश पाते हैं। स्टोइक तितिक्षा - धर्म का आदर्श वह मुनि है जो आत्मवशी है, अपना राजा अपने - आप है, क्योंकि वह आत्म - अनुशासन के द्वारा बाह्म परिस्थितियों को अपने वश में कर लेता है। यह आदर्श बाह्मतः वेदांत के ‘स्वराट्’ और ‘सम्राट्’ से मिलता - जुलता है, पर है उससे निम्नतर स्तर का।
  
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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०७:२९, २२ सितम्बर २०१५ का अवतरण

गीता-प्रबंध
20.समत्व और ज्ञान

जहां - जहां वह समता की बात कहती है वहीं - वहीं ज्ञान की बात कहती है जो समता आ आधार है। गीता जिस समता का उपदेश देती है उसका आरंभ और अंत जीव की स्थितिशील अवस्था में ही नहीं होता, यह अवस्था तो केवल आत्म - मुक्ति के लिये ही उपयोगी है। गीता की समता सदा कर्मो की आधरभूमि है। मुक्ति पुरूष में ब्रह्म की शांति नींव है और मुक्त प्रकृति में ईश्वर का विशाल, स्वतंत्र, सम और जगद्व्यापी कर्म उस शक्ति को संचारित करता है जो इस शांति से निःसृत होती है, और इन दोनों का एकीकारण दिव्य कर्म और दिव्य ज्ञान का समन्वय है।गीता की ये बातें अन्य दार्शनिक, नैतिक या धार्मिक जीवन - संबंधी शास्त्रों में भी हैं, किंतु हम तुरत देख सकते हैं कि गीता में इनका अर्थ कितना गंभीर और व्यापक है। हम कह चुके हैं कि तितिक्षा, दार्शनिक उदासीनता और नति तीन प्रकार की समता की नींव हैं; परंतु गीता में जो ज्ञान का सत्य है वह इन तीनों को केवल एक साथ इकट्ठा ही नहीं करता , बल्कि इन्हें अत्यंत गंभीर, अपूर्व एवं उदार सार्थक्य प्रदान करता है। स्टोइक ज्ञान जीव में धैर्य के द्वारा आत्मसंयम से आता है; वह अपनी प्रकृति से युद्ध करके समता लाभ करता है, जिसको वह प्राकृत विद्रोही के संबंध में सतत सावधान रहकर और उन विद्रोहों को दबाकर बनाये रखता है।
इससे एक महान् शांति मिलती है, एक तापस सुख मिलता है; परंतु यह वह परम आनंद नहीं है जो मुक्त पुरूष को, किसी नियम के अधीन रहने से नहीं , बल्कि अपनी दिव्य सत्ता की विशुद्ध , सहज - स्वाभविक सिद्धस्थिति में रहने से प्राप्त होता है, यहां वह ‘‘ चाहे जिस तरह रहे , चाहे जो करे भगवान् में ही रहता और कर्म करता है।”[१]कारण यहां जो सिद्ध - स्थिति प्राप्त होती है वह केवल प्राप्त ही नहीं होती , स्वाधिकार से सदा अधिकृत भी रहती है, इसकी रक्षा के लिये कोई प्रयास नहीं करना पड़ता, क्योंकि वह जीव का स्वभाव बन जाती है। गीता निम्न प्रकृति के साथ हमारे युद्ध में सहनशक्ति और धैर्य को प्राथमिक साधना के तौर पर स्वीकार करती है; परंतु जहां अपने पुरूषार्थ से एक प्रकार वशित्व प्राप्त होता है वहां इस वशित्व की मुक्तावस्था भगवत्सायुज्य से ही अर्थात् व्यष्टिपुरूष के उन ‘एक‘ अद्वितीय भगवान् में निमज्जित या स्थित होने से और अपनी इच्छा को भगवान् की इच्छा में खो देने से ही प्राप्त होती है। प्रकृति और उसके कर्मो के एक अधीश्वर हैं जो प्रकृति में रहते हुए भी उसके ऊपर हैं, वे ही हमारी सर्वोत्तम सत्ता और हमारी विश्वव्यापी आत्मा हैं; उनके साथ एक हो जाना अपने - आपको दिव्य बनाना है। भगवान् के साथ एकत्व लाभ करके हम परम स्वातंत्र्य और परम प्रभुत्व में प्रवेश पाते हैं। स्टोइक तितिक्षा - धर्म का आदर्श वह मुनि है जो आत्मवशी है, अपना राजा अपने - आप है, क्योंकि वह आत्म - अनुशासन के द्वारा बाह्म परिस्थितियों को अपने वश में कर लेता है। यह आदर्श बाह्मतः वेदांत के ‘स्वराट्’ और ‘सम्राट्’ से मिलता - जुलता है, पर है उससे निम्नतर स्तर का।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 6.31

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