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गीता-प्रबंध
22.त्रैगुणातीत्य

और गीता के अनुसार पुरूष की मुक्ति का अर्थ है किसी महान् , निःस्वार्थ और दिव्य कर्म का होना। सांख्य- सिद्धांत में पुरूष और प्रकृति दो भिन्न सत्ताएं हैं, गीता में ये दोनों एक ही स्वतः सिद्ध सत्ता के दो पहलू हैं, दो शक्तियों हैं; पुरूष यहां केवल अनुमता ही नहीं , बल्कि प्रकृति का ईश्वर है जो प्रकृति के द्वारा जगत् - लीला को भोगता है, प्रकृति के द्वारा दिव्य संकल्प और ज्ञान को जगत् की उस योजना में क्रियान्वित करता है जिसे वह अपनी अनुमति द्वारा धारण किये रहता है और जो उसी का सर्वव्यापी अवस्थिति से उसी की सत्ता में स्थित है, जो उसीकी सत्ता के विधान से तथा उसके सचेनत संकल्प से संचालित है। इस पुरूष की दिव्य सत्ता और स्वभाव को जानना, उसके अनुकूल होना और उसमें रहना ही अहंकार और उसके कर्म से निवृत्त होने का हेतु है। इससे मनुष्य त्रिगुण की निम्न प्रकृति से ऊपर उठ उच्च्तर दिव्य प्रकृति को प्राप्त होता है। यह ऊपर उठना जिस क्रिया के द्वारा नियंत्रित होता है वह प्रकृति के साथ पुरूष के संबंध में पुरूष की जटिल स्थिति से पैदा होती है; त्रिविध पुरूष का गीतोक्त सिद्धांत ही इसका आधर है।
जो पुरूष प्रकृति की क्रिया को, उसके परिवर्तनों को, उसके आनुक्रमिक भूतभावों को सीधा अनुप्रणित करता है वह क्षर पुरूष है जो प्रकृति के परिवर्तनों के साथ परिवर्तित होता - सा और प्रकृति की गति के साथ चलता - सा मालूम होता है, वह व्यष्टि पुरूष है जो प्रकृति के सतत कर्म- प्रवाह से अपने व्यक्तित्व में होने वाले परिवर्तनों के साथ तदाकार हुआ चलता है। यहां प्रकृति क्षर है, जो कल के अंदर सतत प्रवाहित और परिवर्तित होती रहती है, उसका सदा उद्भव होता रहता है।परंतु यह प्रकृति पुरूष की केवल कार्यकारिणी शक्ति है; क्योंकि पुरूष जो कुछ है उसीसे प्रकृति का भूतभाव बन सकता है, उसकी संभूति की संभावनाओं के अनुसर ही वह कर्म कर सकती है; यह उसकी सत्ता के भूत भाव को ही कार्यन्वित करती है। उसका कर्म स्वभाव द्वारा, पुरूष की आत्म - संभूति के विधान द्वारा , नियंत्रित होता है, यद्यपि , प्रकृति पुरूष के भूतभाव को व्यक्त करने वाली कार्यकारिणी शक्ति है अतः प्रायः ऐसा दीखता है कि कम्र ही स्वभाव को नियत करता है । जो कुछ हम हैं उसी के अनुसार कर्म करते हैं, और अपने कर्म के द्वारा विकसित होते हैं तथा जो कुछ हम हैं उसे सिद्ध करते हैं। प्रकृति कर्म है, परिवर्तन है, भूतभाव है और वह शक्ति है जो इन सबको कार्य में परिणत करती है; परंतु पुरूष वह चित्स्वरूप् सत् है जिससे यह शक्त् निसृतः होती है जिसकी प्रकाशमान चेतना से ही उसने यह इच्छा पाई है जो परिवर्तित होती रहती है और अपने परिवर्तनों को उस प्रकृति के कर्मो में अभिव्यक्त करती रहती है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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