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गीता-प्रबंध
23.निर्वाण और संसार में कर्म

मानसिक दुःख का अति प्रचंड आक्रमण भी उसे विचलित नहीं कर सकता - क्योंकि मानसिक दुःख हमारे पास बाहर से आता है, वह बाह्म स्पर्शो की प्रतिक्रियाओं का ही फल होता है - यह उन लोगों का आंतरिक स्वतःसिद्ध आंनद है जो बाह्म स्पर्शो की चंचल मानसिक प्रतिक्रयाओं के दासत्व को अब और स्वीकार नहीं करते। यह दुःख के साथ संबंध विच्छेद करना है, मन का उसे तलाक देना है, इसी विच्छेद्य आध्यात्मिक आनंद की सुदृढ़ प्राप्ति का नाम योग , अर्थात् भगवान् से ऐक्य है; यही लाभों में सबसे बड़ा लाभ है, यह वह धन है जिसके सामने अन्य सब संपत्तियों का कोई मूल्य नहीं रह जाता। इसलिये पूर्ण निश्चय के साथ, कठिनाई या विफलता जिस उत्साहहीनता को लाते हैं उसके अधीन हुए बिना, इस योग को तब तक किये जाना चाहिये जबतक मुक्ति न मिले, ब्रह्मनिर्वाण का आनंद सदा के लिये प्राप्त न हो जाये। यहां मुख्यतया भावनामय मन, काममूलक मन और इन्द्रियों के निरोध पर ही जोर है, क्योंकि ये बाह्म स्पर्शो को ग्रहण करते और हमारी अभ्यस्त भावावेगमयी प्रतिक्रियाओं के द्वारा उनका प्रत्युत्तर देते हैं; परंतु इसके साथ ही मानसिक विचार को भी स्वतःसिद्ध आत्मसत्ता की शांति में ले जाकर निश्चेष्ट करना होगा।
पहले सब कामनाओं को, जो कामनामूलक संकल्प से उठती हैं, एकदम त्याग देना होगा और मन के द्वारा इनिद्रयों को इतना वश में करना होगा कि वे अपनी हमेशा की अव्यवस्थित और चंचल आदत के कारण चारों ओर दौड़ती न फिरें; परंतु इसके बाद मन को ही बुद्धि से पकड़कर अंतर्मुख करना होगा। निश्चल बुद्धि के द्वारा मानस कर्म करना धीरे - धीरे बंद कर देना होगा और मन को आत्मा में स्थित करके किसी बारे में कुछ भी न सोचना होगा। जब - जब चंचल अस्थिर मन निकल भागे तब - तब उसका नियमन करके उसे पकड़कर आत्मा के अधीन लाना होगा। जब मन पूर्ण रूप से शंत हो जाये तो योगी को ब्रह्मभूत आत्मा का उच्चतम, निष्कलंक, निर्विकार परमानंद प्राप्त होता है। ‘‘इस प्रकार आवेगों और आवेशों के कलंक से छूटकर और सतत योग में लगे रहकर योगी अनायास और सुखपूर्वक ब्रह्मसंस्पर्शरूप आत्यंतिक आदंन को प्राप्त होता है।”[१]फिर भी जब तक यह शरीर है तब तक इस अवस्था का फल निर्वाण नहीं है, क्योंकि निर्वाण संसार में कर्म करने की हर एक संभावना को, संसार के प्रणियों के साथ हर एक संबंध को दूर कर देता है। प्रथम दृष्टि में यही जान पड़ता है कि यह स्थिति निर्वाण ही होनी चाहिये। क्योंकि जब सब वासनाएं और सब विकार बंद हो गये, जब मन को विचार करने की इजाजत नहीं रही, जब इसी मौन और ऐकांतिक योग का अभ्यास ही नियम हो गया, तब कर्म करना , बाह्म संस्पर्शोवाले इस जगत् और अनित्य संसार से किसी प्रकार का संबंध रखना संभव ही कहां?


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 6.28

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