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गोपाल कृष्ण गोखले (१८६६-१९१५ ई.) ९ मई, १८६६ को रत्नागिरि में जन्म। १८८४ में एलफिंस्टन कालेज, बंबई से ग्रेजुएट हुए। फर्ग्युसन कालेज, पूना में इतिहास एवं अर्थशास्त्र के प्राध्यापक रहे। बाद में इसी कालेज के प्राचार्य (प्रिंसिपल) नियुक्त हुए। पहली बार सन्‌ १८८० में, दूसरी बार १८८७ में विवाहित हुए। १८८६ में डेकन एजूकेशन सोसइटी के जीवन सदस्य बने। श्री महादेव गोविंद रानडे से १८८८ में तथा गांधी जी से १८९६ में प्रथम साक्षात्कार हुआ। राजकीय एवं सर्वजनिक कार्यों के सिलसिले में सात बार इंग्लैंड की यात्रा की। १८९९ में बंबई विधानसभा के सदस्य चुने गए। सन्‌ १९०२ में ३० रुपए की पेंशन लेकर फर्ग्युसन कालेज से अवकाश ग्रहण किया तथा उसी वर्ष इंपीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल के सदस्य चुने गए। १९०४ में सी.आई.ई. की उपाधि मिली किंतु १९१४ में के.सी.आई.ई. की उपाधि अस्वीकार कर दी।
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गोपाल कृष्ण गोखले (1८६६-1९1५ ई.) ९ मई, 1८६६ को रत्नागिरि में जन्म। 1८८४ में एलफिंस्टन कालेज, बंबई से ग्रेजुएट हुए। फर्ग्युसन कालेज, पूना में इतिहास एवं अर्थशास्त्र के प्राध्यापक रहे। बाद में इसी कालेज के प्राचार्य (प्रिंसिपल) नियुक्त हुए। पहली बार सन्‌ 1८८० में, दूसरी बार 1८८७ में विवाहित हुए। 1८८६ में डेकन एजूकेशन सोसइटी के जीवन सदस्य बने। श्री महादेव गोविंद रानडे से 1८८८ में तथा गांधी जी से 1८९६ में प्रथम साक्षात्कार हुआ। राजकीय एवं सर्वजनिक कार्यों के सिलसिले में सात बार इंग्लैंड की यात्रा की। 1८९९ में बंबई विधानसभा के सदस्य चुने गए। सन्‌ 1९०२ में ३० रुपए की पेंशन लेकर फर्ग्युसन कालेज से अवकाश ग्रहण किया तथा उसी वर्ष इंपीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल के सदस्य चुने गए। 1९०४ में सी.आई.ई. की उपाधि मिली किंतु 1९1४ में के.सी.आई.ई. की उपाधि अस्वीकार कर दी।
  
यद्यपि गोखले सन्‌ १८८९ में लोकमान्य तिलक के साथ कांग्रेस में प्रविष्ट हुए किंतु गोखले पर श्री रानडे का प्रभाव था। तिलक की भाँति वह कभी गरम दलीय न हो सके, पर थे वे अपने विचारों में तेजस्वी और तेजस्विता तथा निर्भीकता से ही वे उन्हें व्यक्त भी करते थे। इसीलिये नमक कर पर बोलते हुए गोखले ने अपने तथ्यों एवं आँकड़ों के द्वारा सरकारी नीति की भर्त्सना की और बताया कि किस प्रकार एक पैसे की नमक की टोकरी की कीमत पाँच आने हो जाती है। गोखले की देशसेवा का आरंभ भी रानडे की 'सार्वजनिक सभा' में हुआ। संयत, शिष्ट और मधुर व्यक्तित्व एवं भाषा गोखले को श्री रानडे से तथा तथ्यात्मकता एवं विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण श्री जी.वी. जोशी से मिला।
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यद्यपि गोखले सन्‌ 1८८९ में लोकमान्य तिलक के साथ कांग्रेस में प्रविष्ट हुए किंतु गोखले पर श्री रानडे का प्रभाव था। तिलक की भाँति वह कभी गरम दलीय न हो सके, पर थे वे अपने विचारों में तेजस्वी और तेजस्विता तथा निर्भीकता से ही वे उन्हें व्यक्त भी करते थे। इसीलिये नमक कर पर बोलते हुए गोखले ने अपने तथ्यों एवं आँकड़ों के द्वारा सरकारी नीति की भर्त्सना की और बताया कि किस प्रकार एक पैसे की नमक की टोकरी की कीमत पाँच आने हो जाती है। गोखले की देशसेवा का आरंभ भी रानडे की 'सार्वजनिक सभा' में हुआ। संयत, शिष्ट और मधुर व्यक्तित्व एवं भाषा गोखले को श्री रानडे से तथा तथ्यात्मकता एवं विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण श्री जी.वी. जोशी से मिला।
  
भारतीय अर्थनीति की जाँच के लिये १८९६ में 'वेल्वी कमीशन' बैठाया गया था जिसमें अनेक प्रमुख लोग गवाही के लिये बुलाए गए थे। चूँकि श्री रानडे एवं जोशी दोनों ही नहीं जा सकते थे इसलिये गोखले को गवाही के लिये भेजा गया। इस पहली ही परीक्षा में वह संपूर्ण रूप से सफल हुए। इसी समय पूना में ताऊन फैला। गोखले को इंग्लैंड में सारी खबर मिली। सरकार लोगों को ताऊन से बचाने के लिये सेना की सहायता से घरों से हटा रही थी। इसी बात को गोखले ने इंग्लैंड के अखबारों में स्पष्ट किया। इसपर इंग्लैंड की संसद् में तूफान आ गया। फलस्वरूप भारत लौटने पर रानडे के कहने से गोखले ने पूरी तरह अपनी गलती स्वीकार की।
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भारतीय अर्थनीति की जाँच के लिये 1८९६ में 'वेल्वी कमीशन' बैठाया गया था जिसमें अनेक प्रमुख लोग गवाही के लिये बुलाए गए थे। चूँकि श्री रानडे एवं जोशी दोनों ही नहीं जा सकते थे इसलिये गोखले को गवाही के लिये भेजा गया। इस पहली ही परीक्षा में वह संपूर्ण रूप से सफल हुए। इसी समय पूना में ताऊन फैला। गोखले को इंग्लैंड में सारी खबर मिली। सरकार लोगों को ताऊन से बचाने के लिये सेना की सहायता से घरों से हटा रही थी। इसी बात को गोखले ने इंग्लैंड के अखबारों में स्पष्ट किया। इसपर इंग्लैंड की संसद् में तूफान आ गया। फलस्वरूप भारत लौटने पर रानडे के कहने से गोखले ने पूरी तरह अपनी गलती स्वीकार की।
  
सन्‌ १९०१ में श्री रानडे का देहावसान हुआ और १९०२ में गोखले इंपीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल के सदस्य चुने गए। सदस्यों को उन दिनो केवल बहस करने का ही अधिकार था। इन सीमाओं के बावजूद गोखले अत्यंत निर्भीकता के साथ सारी सांवैधानिक मर्यादा का पालन करते हुए अपनी तथा अपने देश की बात खुलकर शासकों के समने रखते थे। वह अपने युग के अद्वितीय संसदीय व्यक्ति (पार्लियामेंटेरियन) माने गए हैं। गोखले अपने सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन एवं विचारों में पूर्ण आदर्शवादी तथा मर्यादावादी होते हुए भी स्पष्ट थे, इसलिये शासकों के साथ व्यवहार करते हुए वह कभी भी अतिवादी या असंभववादी दृष्टिकोण नहीं अपनाते थे जिस उनके विरोधी समझौतावादी दृष्टिकोण कहा करते थे। इसका मूल कारण यह था कि वह वैधानिक प्रगति के द्वारा ही अपने देश और समाज की प्रगति एवं कल्याणकामना करते थे। क्रांति में उनका विश्वास नहीं था। उन्नति और समृद्धि के लिये वह सामाजिक और राजनीतिक शांति एवं व्यवस्था को अनिवार्य मानते थे इसीलिये उनके समकालीन लोकमान्य तिलक अथवा लाला लाजपतराय से वैचारिक मतभेद था। उनके असंतुलित समकालीन कांग्रेसी उन्हें दकियानूस, समझौतावादी या नरम दल का स्तंभ कहते थे जबकि विदेशी शासक उनकी प्रखर व्याख्यान शैली एवं शिष्ट अभिव्यजंना को तथ्यात्मक आक्रमण और उग्र मानते थे। संभवत: अपने युग में उनपर दोनों ही ओर से खुलकर प्रहार किया जाता रहा, किंतु जिस प्रकार बांरबार वह शासकों को वैधानिक तरीके से अपनी बात समझाते थे उसी प्रकार अपने समकालीनों को भी उत्तेजनारहित रूप से समझाने की चेष्टा करते थे।
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सन्‌ 1९०1 में श्री रानडे का देहावसान हुआ और 1९०२ में गोखले इंपीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल के सदस्य चुने गए। सदस्यों को उन दिनो केवल बहस करने का ही अधिकार था। इन सीमाओं के बावजूद गोखले अत्यंत निर्भीकता के साथ सारी सांवैधानिक मर्यादा का पालन करते हुए अपनी तथा अपने देश की बात खुलकर शासकों के समने रखते थे। वह अपने युग के अद्वितीय संसदीय व्यक्ति (पार्लियामेंटेरियन) माने गए हैं। गोखले अपने सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन एवं विचारों में पूर्ण आदर्शवादी तथा मर्यादावादी होते हुए भी स्पष्ट थे, इसलिये शासकों के साथ व्यवहार करते हुए वह कभी भी अतिवादी या असंभववादी दृष्टिकोण नहीं अपनाते थे जिस उनके विरोधी समझौतावादी दृष्टिकोण कहा करते थे। इसका मूल कारण यह था कि वह वैधानिक प्रगति के द्वारा ही अपने देश और समाज की प्रगति एवं कल्याणकामना करते थे। क्रांति में उनका विश्वास नहीं था। उन्नति और समृद्धि के लिये वह सामाजिक और राजनीतिक शांति एवं व्यवस्था को अनिवार्य मानते थे इसीलिये उनके समकालीन लोकमान्य तिलक अथवा लाला लाजपतराय से वैचारिक मतभेद था। उनके असंतुलित समकालीन कांग्रेसी उन्हें दकियानूस, समझौतावादी या नरम दल का स्तंभ कहते थे जबकि विदेशी शासक उनकी प्रखर व्याख्यान शैली एवं शिष्ट अभिव्यजंना को तथ्यात्मक आक्रमण और उग्र मानते थे। संभवत: अपने युग में उनपर दोनों ही ओर से खुलकर प्रहार किया जाता रहा, किंतु जिस प्रकार बांरबार वह शासकों को वैधानिक तरीके से अपनी बात समझाते थे उसी प्रकार अपने समकालीनों को भी उत्तेजनारहित रूप से समझाने की चेष्टा करते थे।
  
प्रसिद्ध 'मार्ले मिंटो सुधार' में अकेले गोखले का बहुत बड़ा हाथ था। तत्कालीन राजनीतिक चेतना को देखते हुए गोखले की 'स्वराज्य' की कल्पना 'डोमीनियन' स्थिति की थी। अंग्रेजों के प्रति इतनी सहानुभूति रखनेवाले गोखले को भी लार्ड कर्जन की प्रतिगामी नीतियों ने क्षुब्ध कर दिया था। बंग भंग, कलकत्ता कारपोरेशन के अधिकारों में कमी, कार्य की सुचारुता के नाम पर विश्वविद्यालयों पर सरकारी अफसरों का अवांछित नियंत्रण, शिक्षा की उत्तरोत्तर व्ययशीलता तथा आफीशियल सीक्रेट्स ऐक्ट आदि नीतियों के कारण उन्हें अगत्या कहना पड़ा कि 'मैं तो अब इतना ही कह सकता हूँ कि लोकहित के लिये इस वर्तमान नौकरशाही से किसी तरह के सहयोग की सारी आशाओं को नमस्कार है'। फिर भी परिणामत: वह नरमदलीय ही बने रहे। १९०५ में कांग्रेस के उग्रवादी दल ने उनके सभापति बनाए जाने का विरोध किया था लेकिन वह बनारस में होनेवाले उस कांग्रेस अधिवेशन के सभापति चुन ही लिए गए थे। अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्हांने राजनीतिशास्त्री के रूप में बहिष्कार का समर्थन यह कहकर किया था कि यदि सहयोग के सारे मार्ग अवरुद्ध हो जायँ और देश की लोकचेतना इसके अनुकूल हो तो बहिष्कार का प्रयोग संर्वथा उचित है। इसी वर्ष उन्होंने अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण रचनात्मक कार्य 'भारत-सेवक-समाज'<ref>सर्वेट्स्‌ ऑव इंडिया सोसाइटी</ref>आरंभ किया। पूना में इसकी स्थापना अत्यंत नैतिक आधार तथा मानवीय धरातल पर हुई जिसमें सदस्य नाम मात्र के वेतन पर आजीवन देशसेवा का व्रात लेते थे। राइट आनरेबुल श्रीनिवास शास्त्री जी गोखले के कुल काल तक निजी सचिव (प्राइवेट सेक्रेटरी) भी रहे थे। गोखले गांधी जी को भी इसका सदस्य बनाना चाहते थे किंतु सदस्यों में इस बारे में मतभेद रहा। श्रीमती एनी बेसेंट की संस्था 'भारत के पुत्र' के पीछे उक्त समाज ही प्रेरक था। गाँधी जी को साबरमती आश्रम के लिये गोखले ने पूरी आर्थिक सहायता दी।
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प्रसिद्ध 'मार्ले मिंटो सुधार' में अकेले गोखले का बहुत बड़ा हाथ था। तत्कालीन राजनीतिक चेतना को देखते हुए गोखले की 'स्वराज्य' की कल्पना 'डोमीनियन' स्थिति की थी। अंग्रेजों के प्रति इतनी सहानुभूति रखनेवाले गोखले को भी लार्ड कर्जन की प्रतिगामी नीतियों ने क्षुब्ध कर दिया था। बंग भंग, कलकत्ता कारपोरेशन के अधिकारों में कमी, कार्य की सुचारुता के नाम पर विश्वविद्यालयों पर सरकारी अफसरों का अवांछित नियंत्रण, शिक्षा की उत्तरोत्तर व्ययशीलता तथा आफीशियल सीक्रेट्स ऐक्ट आदि नीतियों के कारण उन्हें अगत्या कहना पड़ा कि 'मैं तो अब इतना ही कह सकता हूँ कि लोकहित के लिये इस वर्तमान नौकरशाही से किसी तरह के सहयोग की सारी आशाओं को नमस्कार है'। फिर भी परिणामत: वह नरमदलीय ही बने रहे। 1९०५ में कांग्रेस के उग्रवादी दल ने उनके सभापति बनाए जाने का विरोध किया था लेकिन वह बनारस में होनेवाले उस कांग्रेस अधिवेशन के सभापति चुन ही लिए गए थे। अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्हांने राजनीतिशास्त्री के रूप में बहिष्कार का समर्थन यह कहकर किया था कि यदि सहयोग के सारे मार्ग अवरुद्ध हो जायँ और देश की लोकचेतना इसके अनुकूल हो तो बहिष्कार का प्रयोग संर्वथा उचित है। इसी वर्ष उन्होंने अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण रचनात्मक कार्य 'भारत-सेवक-समाज'<ref>सर्वेट्स्‌ ऑव इंडिया सोसाइटी</ref>आरंभ किया। पूना में इसकी स्थापना अत्यंत नैतिक आधार तथा मानवीय धरातल पर हुई जिसमें सदस्य नाम मात्र के वेतन पर आजीवन देशसेवा का व्रात लेते थे। राइट आनरेबुल श्रीनिवास शास्त्री जी गोखले के कुल काल तक निजी सचिव (प्राइवेट सेक्रेटरी) भी रहे थे। गोखले गांधी जी को भी इसका सदस्य बनाना चाहते थे किंतु सदस्यों में इस बारे में मतभेद रहा। श्रीमती एनी बेसेंट की संस्था 'भारत के पुत्र' के पीछे उक्त समाज ही प्रेरक था। गाँधी जी को साबरमती आश्रम के लिये गोखले ने पूरी आर्थिक सहायता दी।
  
सन्‌ १९१२ में गाँधी जी ने गोखले से दक्षिण अफ्रीका की समस्या सुलझाने के लिये कहा और वह वहाँ गए। वहाँ की सरकार ने प्रत्येक भारतीय पर तीन पौंड का 'जजिया' कर लगा रखा था। अधिकांश भारतीय वहाँ मजदूरी करते थे जिनके लिये इतना कर दे सकना संभव नहीं था। गोखले ने वहाँ के शासकों को इस कर को बंद कर देने के लिये राजी कर लिया था, शर्त यह थी कि भारतीयों के निष्क्रमण पर रोक लगा दी जाए। जब गोखले स्वदेश लौटे तब अफ्रीकी शासकों ने कर हटाने से इनकार कर दिया। फलस्वरूप देश में गोखले पर खूब प्रहार हुआ कि निष्क्रमण का सिद्धांत मानकर गोखले ने भारी भूल की तथा कर भी नहीं हटा। पर गोखले तो मानते थे कि उस काल की देशसेवा असफलताओं पर अधिक निर्भर करती है। लगभग यही स्थिति हिंदू मुस्लिम समस्या के बारे में भी हुई। मुसलमानों के लिये पृथक्‌ निर्वाचन मानकर उनहोंने भूल की किंतु तत्कालीन परिस्थितियों एवं जिस सांवैधानिक रीति को वह नीति मानते थे उसमें क्रांतिकारी आचरण की संभावना थी।
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सन्‌ 1९1२ में गाँधी जी ने गोखले से दक्षिण अफ्रीका की समस्या सुलझाने के लिये कहा और वह वहाँ गए। वहाँ की सरकार ने प्रत्येक भारतीय पर तीन पौंड का 'जजिया' कर लगा रखा था। अधिकांश भारतीय वहाँ मजदूरी करते थे जिनके लिये इतना कर दे सकना संभव नहीं था। गोखले ने वहाँ के शासकों को इस कर को बंद कर देने के लिये राजी कर लिया था, शर्त यह थी कि भारतीयों के निष्क्रमण पर रोक लगा दी जाए। जब गोखले स्वदेश लौटे तब अफ्रीकी शासकों ने कर हटाने से इनकार कर दिया। फलस्वरूप देश में गोखले पर खूब प्रहार हुआ कि निष्क्रमण का सिद्धांत मानकर गोखले ने भारी भूल की तथा कर भी नहीं हटा। पर गोखले तो मानते थे कि उस काल की देशसेवा असफलताओं पर अधिक निर्भर करती है। लगभग यही स्थिति हिंदू मुस्लिम समस्या के बारे में भी हुई। मुसलमानों के लिये पृथक्‌ निर्वाचन मानकर उनहोंने भूल की किंतु तत्कालीन परिस्थितियों एवं जिस सांवैधानिक रीति को वह नीति मानते थे उसमें क्रांतिकारी आचरण की संभावना थी।
  
अंतिम दिनों में वह पब्लिक सर्विस कमीशन के सदस्य का काम करने लगे थे। शासकों ने उनसे पूछा कि भारत को और क्या राजनीतिक सुविधाएँ दी जायँ, पर वह इसका कोई समुचित उत्तर देने के पूर्व ही १९ फरवरी, १९१५ को स्वर्गवासी हो गए।
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अंतिम दिनों में वह पब्लिक सर्विस कमीशन के सदस्य का काम करने लगे थे। शासकों ने उनसे पूछा कि भारत को और क्या राजनीतिक सुविधाएँ दी जायँ, पर वह इसका कोई समुचित उत्तर देने के पूर्व ही 1९ फरवरी, 1९1५ को स्वर्गवासी हो गए।
  
 
गोपालकृष्ण गोखले की राजनीति की छाप २०वीं सदी के आरंभ के वयस्क भारतीय राजनीतिक कार्यकर्ताओं पर भरपूर पड़ी। महात्मा गांधी को अपनी राजनीतिक दृष्टि के लिये गुरु चाहिए था। एक ओर तिलक सा अपरिमेय क्षुब्ध सागर था, दूसरी ओर सर फीरोज शाह मेहता सा तुंग पर्वत। दोनां के बीच बहनेवाली सुरसरि की शीतल धारा गोखले का मान गांधी जी ने उनकी शिष्यता स्वीकार की। गोखले की सहिष्णुता की अनेक कहानियाँ कही जाती हैं। एक इस प्रकार है - वे इंग्लैंड में थे। एक मित्र के पत्र के आधार पर उन्होंने वहाँ एक वक्तव्य दिया। पुलिस ने उसका प्रमाण माँगा। प्रमाण बगैर मित्र का उल्लेख किए नहीं दिया जा सकता था। मित्र की रक्षा के लिये वे मौन हो गए। बंबई पहुँचते ही पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार करना चाहा। मित्र की रक्षा के लिये उन्होंने सरकार से यह कहकर क्षमा माँग ली कि वह वक्तव्य अनुचित था। गुरुवर रानडे को सब बातें गोखले ने स्पष्ट कर दीं और यद्यपि सारा देश उन्हें कायर कहने लगा था, रानडे से प्रणबद्ध होने के कारण उन्होंने कोई सफाई नहीं दी और चुपचाप दूसरे की रक्षा के लिये लांछन का वह गरल पी लिया। जीवन भर उन्होंने यह भेद नहीं खोला।  
 
गोपालकृष्ण गोखले की राजनीति की छाप २०वीं सदी के आरंभ के वयस्क भारतीय राजनीतिक कार्यकर्ताओं पर भरपूर पड़ी। महात्मा गांधी को अपनी राजनीतिक दृष्टि के लिये गुरु चाहिए था। एक ओर तिलक सा अपरिमेय क्षुब्ध सागर था, दूसरी ओर सर फीरोज शाह मेहता सा तुंग पर्वत। दोनां के बीच बहनेवाली सुरसरि की शीतल धारा गोखले का मान गांधी जी ने उनकी शिष्यता स्वीकार की। गोखले की सहिष्णुता की अनेक कहानियाँ कही जाती हैं। एक इस प्रकार है - वे इंग्लैंड में थे। एक मित्र के पत्र के आधार पर उन्होंने वहाँ एक वक्तव्य दिया। पुलिस ने उसका प्रमाण माँगा। प्रमाण बगैर मित्र का उल्लेख किए नहीं दिया जा सकता था। मित्र की रक्षा के लिये वे मौन हो गए। बंबई पहुँचते ही पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार करना चाहा। मित्र की रक्षा के लिये उन्होंने सरकार से यह कहकर क्षमा माँग ली कि वह वक्तव्य अनुचित था। गुरुवर रानडे को सब बातें गोखले ने स्पष्ट कर दीं और यद्यपि सारा देश उन्हें कायर कहने लगा था, रानडे से प्रणबद्ध होने के कारण उन्होंने कोई सफाई नहीं दी और चुपचाप दूसरे की रक्षा के लिये लांछन का वह गरल पी लिया। जीवन भर उन्होंने यह भेद नहीं खोला।  

११:०५, १२ अगस्त २०११ का अवतरण

लेख सूचना
गोपाल कृष्ण गोखले
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4
पृष्ठ संख्या 15
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक फूलदेव सहाय वर्मा
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक नरेश मेहता


गोपाल कृष्ण गोखले (1८६६-1९1५ ई.) ९ मई, 1८६६ को रत्नागिरि में जन्म। 1८८४ में एलफिंस्टन कालेज, बंबई से ग्रेजुएट हुए। फर्ग्युसन कालेज, पूना में इतिहास एवं अर्थशास्त्र के प्राध्यापक रहे। बाद में इसी कालेज के प्राचार्य (प्रिंसिपल) नियुक्त हुए। पहली बार सन्‌ 1८८० में, दूसरी बार 1८८७ में विवाहित हुए। 1८८६ में डेकन एजूकेशन सोसइटी के जीवन सदस्य बने। श्री महादेव गोविंद रानडे से 1८८८ में तथा गांधी जी से 1८९६ में प्रथम साक्षात्कार हुआ। राजकीय एवं सर्वजनिक कार्यों के सिलसिले में सात बार इंग्लैंड की यात्रा की। 1८९९ में बंबई विधानसभा के सदस्य चुने गए। सन्‌ 1९०२ में ३० रुपए की पेंशन लेकर फर्ग्युसन कालेज से अवकाश ग्रहण किया तथा उसी वर्ष इंपीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल के सदस्य चुने गए। 1९०४ में सी.आई.ई. की उपाधि मिली किंतु 1९1४ में के.सी.आई.ई. की उपाधि अस्वीकार कर दी।

यद्यपि गोखले सन्‌ 1८८९ में लोकमान्य तिलक के साथ कांग्रेस में प्रविष्ट हुए किंतु गोखले पर श्री रानडे का प्रभाव था। तिलक की भाँति वह कभी गरम दलीय न हो सके, पर थे वे अपने विचारों में तेजस्वी और तेजस्विता तथा निर्भीकता से ही वे उन्हें व्यक्त भी करते थे। इसीलिये नमक कर पर बोलते हुए गोखले ने अपने तथ्यों एवं आँकड़ों के द्वारा सरकारी नीति की भर्त्सना की और बताया कि किस प्रकार एक पैसे की नमक की टोकरी की कीमत पाँच आने हो जाती है। गोखले की देशसेवा का आरंभ भी रानडे की 'सार्वजनिक सभा' में हुआ। संयत, शिष्ट और मधुर व्यक्तित्व एवं भाषा गोखले को श्री रानडे से तथा तथ्यात्मकता एवं विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण श्री जी.वी. जोशी से मिला।

भारतीय अर्थनीति की जाँच के लिये 1८९६ में 'वेल्वी कमीशन' बैठाया गया था जिसमें अनेक प्रमुख लोग गवाही के लिये बुलाए गए थे। चूँकि श्री रानडे एवं जोशी दोनों ही नहीं जा सकते थे इसलिये गोखले को गवाही के लिये भेजा गया। इस पहली ही परीक्षा में वह संपूर्ण रूप से सफल हुए। इसी समय पूना में ताऊन फैला। गोखले को इंग्लैंड में सारी खबर मिली। सरकार लोगों को ताऊन से बचाने के लिये सेना की सहायता से घरों से हटा रही थी। इसी बात को गोखले ने इंग्लैंड के अखबारों में स्पष्ट किया। इसपर इंग्लैंड की संसद् में तूफान आ गया। फलस्वरूप भारत लौटने पर रानडे के कहने से गोखले ने पूरी तरह अपनी गलती स्वीकार की।

सन्‌ 1९०1 में श्री रानडे का देहावसान हुआ और 1९०२ में गोखले इंपीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल के सदस्य चुने गए। सदस्यों को उन दिनो केवल बहस करने का ही अधिकार था। इन सीमाओं के बावजूद गोखले अत्यंत निर्भीकता के साथ सारी सांवैधानिक मर्यादा का पालन करते हुए अपनी तथा अपने देश की बात खुलकर शासकों के समने रखते थे। वह अपने युग के अद्वितीय संसदीय व्यक्ति (पार्लियामेंटेरियन) माने गए हैं। गोखले अपने सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन एवं विचारों में पूर्ण आदर्शवादी तथा मर्यादावादी होते हुए भी स्पष्ट थे, इसलिये शासकों के साथ व्यवहार करते हुए वह कभी भी अतिवादी या असंभववादी दृष्टिकोण नहीं अपनाते थे जिस उनके विरोधी समझौतावादी दृष्टिकोण कहा करते थे। इसका मूल कारण यह था कि वह वैधानिक प्रगति के द्वारा ही अपने देश और समाज की प्रगति एवं कल्याणकामना करते थे। क्रांति में उनका विश्वास नहीं था। उन्नति और समृद्धि के लिये वह सामाजिक और राजनीतिक शांति एवं व्यवस्था को अनिवार्य मानते थे इसीलिये उनके समकालीन लोकमान्य तिलक अथवा लाला लाजपतराय से वैचारिक मतभेद था। उनके असंतुलित समकालीन कांग्रेसी उन्हें दकियानूस, समझौतावादी या नरम दल का स्तंभ कहते थे जबकि विदेशी शासक उनकी प्रखर व्याख्यान शैली एवं शिष्ट अभिव्यजंना को तथ्यात्मक आक्रमण और उग्र मानते थे। संभवत: अपने युग में उनपर दोनों ही ओर से खुलकर प्रहार किया जाता रहा, किंतु जिस प्रकार बांरबार वह शासकों को वैधानिक तरीके से अपनी बात समझाते थे उसी प्रकार अपने समकालीनों को भी उत्तेजनारहित रूप से समझाने की चेष्टा करते थे।

प्रसिद्ध 'मार्ले मिंटो सुधार' में अकेले गोखले का बहुत बड़ा हाथ था। तत्कालीन राजनीतिक चेतना को देखते हुए गोखले की 'स्वराज्य' की कल्पना 'डोमीनियन' स्थिति की थी। अंग्रेजों के प्रति इतनी सहानुभूति रखनेवाले गोखले को भी लार्ड कर्जन की प्रतिगामी नीतियों ने क्षुब्ध कर दिया था। बंग भंग, कलकत्ता कारपोरेशन के अधिकारों में कमी, कार्य की सुचारुता के नाम पर विश्वविद्यालयों पर सरकारी अफसरों का अवांछित नियंत्रण, शिक्षा की उत्तरोत्तर व्ययशीलता तथा आफीशियल सीक्रेट्स ऐक्ट आदि नीतियों के कारण उन्हें अगत्या कहना पड़ा कि 'मैं तो अब इतना ही कह सकता हूँ कि लोकहित के लिये इस वर्तमान नौकरशाही से किसी तरह के सहयोग की सारी आशाओं को नमस्कार है'। फिर भी परिणामत: वह नरमदलीय ही बने रहे। 1९०५ में कांग्रेस के उग्रवादी दल ने उनके सभापति बनाए जाने का विरोध किया था लेकिन वह बनारस में होनेवाले उस कांग्रेस अधिवेशन के सभापति चुन ही लिए गए थे। अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्हांने राजनीतिशास्त्री के रूप में बहिष्कार का समर्थन यह कहकर किया था कि यदि सहयोग के सारे मार्ग अवरुद्ध हो जायँ और देश की लोकचेतना इसके अनुकूल हो तो बहिष्कार का प्रयोग संर्वथा उचित है। इसी वर्ष उन्होंने अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण रचनात्मक कार्य 'भारत-सेवक-समाज'[१]आरंभ किया। पूना में इसकी स्थापना अत्यंत नैतिक आधार तथा मानवीय धरातल पर हुई जिसमें सदस्य नाम मात्र के वेतन पर आजीवन देशसेवा का व्रात लेते थे। राइट आनरेबुल श्रीनिवास शास्त्री जी गोखले के कुल काल तक निजी सचिव (प्राइवेट सेक्रेटरी) भी रहे थे। गोखले गांधी जी को भी इसका सदस्य बनाना चाहते थे किंतु सदस्यों में इस बारे में मतभेद रहा। श्रीमती एनी बेसेंट की संस्था 'भारत के पुत्र' के पीछे उक्त समाज ही प्रेरक था। गाँधी जी को साबरमती आश्रम के लिये गोखले ने पूरी आर्थिक सहायता दी।

सन्‌ 1९1२ में गाँधी जी ने गोखले से दक्षिण अफ्रीका की समस्या सुलझाने के लिये कहा और वह वहाँ गए। वहाँ की सरकार ने प्रत्येक भारतीय पर तीन पौंड का 'जजिया' कर लगा रखा था। अधिकांश भारतीय वहाँ मजदूरी करते थे जिनके लिये इतना कर दे सकना संभव नहीं था। गोखले ने वहाँ के शासकों को इस कर को बंद कर देने के लिये राजी कर लिया था, शर्त यह थी कि भारतीयों के निष्क्रमण पर रोक लगा दी जाए। जब गोखले स्वदेश लौटे तब अफ्रीकी शासकों ने कर हटाने से इनकार कर दिया। फलस्वरूप देश में गोखले पर खूब प्रहार हुआ कि निष्क्रमण का सिद्धांत मानकर गोखले ने भारी भूल की तथा कर भी नहीं हटा। पर गोखले तो मानते थे कि उस काल की देशसेवा असफलताओं पर अधिक निर्भर करती है। लगभग यही स्थिति हिंदू मुस्लिम समस्या के बारे में भी हुई। मुसलमानों के लिये पृथक्‌ निर्वाचन मानकर उनहोंने भूल की किंतु तत्कालीन परिस्थितियों एवं जिस सांवैधानिक रीति को वह नीति मानते थे उसमें क्रांतिकारी आचरण की संभावना थी।

अंतिम दिनों में वह पब्लिक सर्विस कमीशन के सदस्य का काम करने लगे थे। शासकों ने उनसे पूछा कि भारत को और क्या राजनीतिक सुविधाएँ दी जायँ, पर वह इसका कोई समुचित उत्तर देने के पूर्व ही 1९ फरवरी, 1९1५ को स्वर्गवासी हो गए।

गोपालकृष्ण गोखले की राजनीति की छाप २०वीं सदी के आरंभ के वयस्क भारतीय राजनीतिक कार्यकर्ताओं पर भरपूर पड़ी। महात्मा गांधी को अपनी राजनीतिक दृष्टि के लिये गुरु चाहिए था। एक ओर तिलक सा अपरिमेय क्षुब्ध सागर था, दूसरी ओर सर फीरोज शाह मेहता सा तुंग पर्वत। दोनां के बीच बहनेवाली सुरसरि की शीतल धारा गोखले का मान गांधी जी ने उनकी शिष्यता स्वीकार की। गोखले की सहिष्णुता की अनेक कहानियाँ कही जाती हैं। एक इस प्रकार है - वे इंग्लैंड में थे। एक मित्र के पत्र के आधार पर उन्होंने वहाँ एक वक्तव्य दिया। पुलिस ने उसका प्रमाण माँगा। प्रमाण बगैर मित्र का उल्लेख किए नहीं दिया जा सकता था। मित्र की रक्षा के लिये वे मौन हो गए। बंबई पहुँचते ही पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार करना चाहा। मित्र की रक्षा के लिये उन्होंने सरकार से यह कहकर क्षमा माँग ली कि वह वक्तव्य अनुचित था। गुरुवर रानडे को सब बातें गोखले ने स्पष्ट कर दीं और यद्यपि सारा देश उन्हें कायर कहने लगा था, रानडे से प्रणबद्ध होने के कारण उन्होंने कोई सफाई नहीं दी और चुपचाप दूसरे की रक्षा के लिये लांछन का वह गरल पी लिया। जीवन भर उन्होंने यह भेद नहीं खोला।



टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सर्वेट्स्‌ ऑव इंडिया सोसाइटी