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जीवाणु या बैक्टीरिया जीवित पदार्थ हैं। ये बहुत ही छोटे होते हैं। इनकी छोटाई का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि अनुस्वार चिह्न की एक बिंदी में औसत आकार के लगभग 2,५०,००० जीवाणु रह सकते हैं। इनकी चौड़ाई ०.से 2.० माइक्रो और लंबाई 1.० से ८.० माइक्रा होती है। इस छोटाई के कारण ही उन्हें सूक्ष्म जीव या जीवाणु कहते हैं। कुछ जीवाणु इतने छोटे होते हैं कि उच्चतम आवर्धन के प्रबलतक सूक्ष्मदर्शी से भी ये देखे नहीं जा सकते हैं। इनकी उपस्थिति इनसे उत्पन्न परिणामों से ही जानी जाती है।
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जीवाणु या बैक्टीरिया जीवित पदार्थ हैं। ये बहुत ही छोटे होते हैं। इनकी छोटाई का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि अनुस्वार चिह्न की एक बिंदी में औसत आकार के लगभग 2,5०,००० जीवाणु रह सकते हैं। इनकी चौड़ाई ०.5 से 2.० माइक्रो और लंबाई 1.० से ८.० माइक्रा होती है। इस छोटाई के कारण ही उन्हें सूक्ष्म जीव या जीवाणु कहते हैं। कुछ जीवाणु इतने छोटे होते हैं कि उच्चतम आवर्धन के प्रबलतक सूक्ष्मदर्शी से भी ये देखे नहीं जा सकते हैं। इनकी उपस्थिति इनसे उत्पन्न परिणामों से ही जानी जाती है।
  
 
जीवाणु सब एककोशिक होते हैं; ये जीवद्रव्य (Protoplasm) से बने होते हैं। इस कारण इनकी गणना एक समय जंतुओं में होती थी, पर पीछे मालूम हुआ कि ये वास्तव में वनस्पति जगत्‌ के सदस्य हैं; किंतु ये अन्य वनस्पतियों से इस बात में भिन्न हैं कि इनमें हरित वर्णक नहीं होता। इस संबंध में ये कवक से समानता रखते हैं।
 
जीवाणु सब एककोशिक होते हैं; ये जीवद्रव्य (Protoplasm) से बने होते हैं। इस कारण इनकी गणना एक समय जंतुओं में होती थी, पर पीछे मालूम हुआ कि ये वास्तव में वनस्पति जगत्‌ के सदस्य हैं; किंतु ये अन्य वनस्पतियों से इस बात में भिन्न हैं कि इनमें हरित वर्णक नहीं होता। इस संबंध में ये कवक से समानता रखते हैं।
  
जीवाणु बड़ी शीघ्रता से बढ़ते हैं। इनमें लिंग जनन का सर्वथा अभाव है। जीवाणुओं के आकार प्रधानता चार प्रकार के होते हैं। कुछ गोल होते हैं, जिन्हें 'कोकस' (Coccus) कहते हैं। कुछ दंड या बेलन के आकार के होते हैं, जिन्हें दंडाणु (Bacillus) कहते हैं और कुछदृढ़ सर्पिल आकार के होते हैं, जिन्हें स्पाइरिलम (Spirillum) कहते हैं। साधारणतया ५० से ६० सें. तक गरम करने से ये शीघ्र नष्ट हो जाते हैं परंतु इनके कुछ बीजाणुओं (spores) को नष्ट करने के लिये अधिक समय तक और 12० से 1५० सेंo तक दबाव वाष्प में गरम करने की आवश्यकता पड़ती है।
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जीवाणु बड़ी शीघ्रता से बढ़ते हैं। इनमें लिंग जनन का सर्वथा अभाव है। जीवाणुओं के आकार प्रधानता चार प्रकार के होते हैं। कुछ गोल होते हैं, जिन्हें 'कोकस' (Coccus) कहते हैं। कुछ दंड या बेलन के आकार के होते हैं, जिन्हें दंडाणु (Bacillus) कहते हैं और कुछदृढ़ सर्पिल आकार के होते हैं, जिन्हें स्पाइरिलम (Spirillum) कहते हैं। साधारणतया 5० से ६० सें. तक गरम करने से ये शीघ्र नष्ट हो जाते हैं परंतु इनके कुछ बीजाणुओं (spores) को नष्ट करने के लिये अधिक समय तक और 12० से 15० सेंo तक दबाव वाष्प में गरम करने की आवश्यकता पड़ती है।
  
 
पहले पहल जिन जीवाणुओं का अध्ययन हुआ था वे सामान्यत: रोगोत्पादक (देखें जैवाणुक एवं संक्रामक रोग) थे। इससे यह गलत धारणा बनी कि सभी जीवाणु रोगोत्पादक होते हैं; पर पीछे अनेक ऐसे जीवाणु पाए गए जो मनुष्य और जंतुओं के लिये सर्वथा निर्दोष ही नहीं थे, वरन्‌ उनके लिये अत्यावश्यक थे। वस्तुत: जीवाणुओं की सक्रियता पर ही मनुष्य का जीवन निर्भर करता है।
 
पहले पहल जिन जीवाणुओं का अध्ययन हुआ था वे सामान्यत: रोगोत्पादक (देखें जैवाणुक एवं संक्रामक रोग) थे। इससे यह गलत धारणा बनी कि सभी जीवाणु रोगोत्पादक होते हैं; पर पीछे अनेक ऐसे जीवाणु पाए गए जो मनुष्य और जंतुओं के लिये सर्वथा निर्दोष ही नहीं थे, वरन्‌ उनके लिये अत्यावश्यक थे। वस्तुत: जीवाणुओं की सक्रियता पर ही मनुष्य का जीवन निर्भर करता है।

०७:३६, १८ अगस्त २०११ का अवतरण

लेख सूचना
जीवाणु
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 5
पृष्ठ संख्या 17-18
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक फूलदेवसहाय वर्मा
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1965 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक फूलदेव सहाय वर्मा

जीवाणु या बैक्टीरिया जीवित पदार्थ हैं। ये बहुत ही छोटे होते हैं। इनकी छोटाई का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि अनुस्वार चिह्न की एक बिंदी में औसत आकार के लगभग 2,5०,००० जीवाणु रह सकते हैं। इनकी चौड़ाई ०.5 से 2.० माइक्रो और लंबाई 1.० से ८.० माइक्रा होती है। इस छोटाई के कारण ही उन्हें सूक्ष्म जीव या जीवाणु कहते हैं। कुछ जीवाणु इतने छोटे होते हैं कि उच्चतम आवर्धन के प्रबलतक सूक्ष्मदर्शी से भी ये देखे नहीं जा सकते हैं। इनकी उपस्थिति इनसे उत्पन्न परिणामों से ही जानी जाती है।

जीवाणु सब एककोशिक होते हैं; ये जीवद्रव्य (Protoplasm) से बने होते हैं। इस कारण इनकी गणना एक समय जंतुओं में होती थी, पर पीछे मालूम हुआ कि ये वास्तव में वनस्पति जगत्‌ के सदस्य हैं; किंतु ये अन्य वनस्पतियों से इस बात में भिन्न हैं कि इनमें हरित वर्णक नहीं होता। इस संबंध में ये कवक से समानता रखते हैं।

जीवाणु बड़ी शीघ्रता से बढ़ते हैं। इनमें लिंग जनन का सर्वथा अभाव है। जीवाणुओं के आकार प्रधानता चार प्रकार के होते हैं। कुछ गोल होते हैं, जिन्हें 'कोकस' (Coccus) कहते हैं। कुछ दंड या बेलन के आकार के होते हैं, जिन्हें दंडाणु (Bacillus) कहते हैं और कुछदृढ़ सर्पिल आकार के होते हैं, जिन्हें स्पाइरिलम (Spirillum) कहते हैं। साधारणतया 5० से ६० सें. तक गरम करने से ये शीघ्र नष्ट हो जाते हैं परंतु इनके कुछ बीजाणुओं (spores) को नष्ट करने के लिये अधिक समय तक और 12० से 15० सेंo तक दबाव वाष्प में गरम करने की आवश्यकता पड़ती है।

पहले पहल जिन जीवाणुओं का अध्ययन हुआ था वे सामान्यत: रोगोत्पादक (देखें जैवाणुक एवं संक्रामक रोग) थे। इससे यह गलत धारणा बनी कि सभी जीवाणु रोगोत्पादक होते हैं; पर पीछे अनेक ऐसे जीवाणु पाए गए जो मनुष्य और जंतुओं के लिये सर्वथा निर्दोष ही नहीं थे, वरन्‌ उनके लिये अत्यावश्यक थे। वस्तुत: जीवाणुओं की सक्रियता पर ही मनुष्य का जीवन निर्भर करता है।

जीवाणु अनुकूल अवस्था में बड़ी शीघ्रता से वृद्धि करते हैं। कुछ घंटों में ही इनकी संख्या लाखों करोड़ों हो जाती है। इस वृद्धि के लिये इन्हें उपयुक्त वातावरण और खाद्य मिलना चाहिए। दूध इनका सर्वोत्कृष्ट खाद्य है। प्रकाश इनके लिये घातक होता है, पर बैंगनी प्रकाश तो और अधिक घातक होता है। अंधकार में ही ये पनपते और वृद्धि करते हैं।