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जुल्फिकार खाँ नसरतजंग का वास्तविक नाम मोहम्मद इस्माइल था। यह असद खाँ आसुफद्दौला का बेटा था। इसकी माँ मेहरुन्निसा बेगम, आसफ खाँ यमीनुद्दौला की बेटी थी। यह सन्‌ 1657 ई. उत्पन्न हुआ था।
 
जुल्फिकार खाँ नसरतजंग का वास्तविक नाम मोहम्मद इस्माइल था। यह असद खाँ आसुफद्दौला का बेटा था। इसकी माँ मेहरुन्निसा बेगम, आसफ खाँ यमीनुद्दौला की बेटी थी। यह सन्‌ 1657 ई. उत्पन्न हुआ था।
  
औरंगजेब शासन के 11वें वर्ष यह 3०० सवारों के मनसब पर नियुक्त हुआ, और 2०वें वर्ष इसने शाइस्ता खाँ अमीर उल उमरा की पुत्री से विवाह किया। इस समय इसके पद में वृद्धि की गई और एतकाद खाँ की उपाधि दी गई। 25वें वर्ष के आरंभ में जब शाही सेना अजमेर से दक्षिण की ओर गई, और असद खाँ जुमुलतुल्मुल्क सुलतान मोहम्मद आजिम के साथ अजमेर में नियुक्त कर दिया गया, उस समय एतक़ाद खाँ भी दक्षिण की ओर गया। इसने वहाँ जाकर क्रांतिकारी राठौरों पर आक्रमण कर दिया, जो कि मेड़ता में अशांति मचा रहे थे। भीषण युद्ध हुआ जिसमें इसने लगभग 5०० शत्रुओं को नष्ट कर दिया जिनमें स्वर्गीय महाराज जसवंत सिंह के सोयक और सांबल दास भी सम्मिलित थे जो कि अशांति के नेता थे। इसके पुरस्कार स्वरूप इसके पद में वृद्धि की गई। शंभा पर आक्रमण करने से पहले उसे आदेश दिया गया था कि वह राहेरी के दुर्ग पर अधिकार करे जिसमें शंभा जी का परिवार रहता था। अक्तूबर सन्‌ 16८९ ई. में इसने उस महान दुर्ग को जीत लिया, और शंभा को उसके निकट संबंधियों के साथ कैद कर लिया। सम्राट् ने उसे तीन हजारी 2,००० सवार का मसंब देकर सम्मानित किया, साथ ही जुल्फिकार खाँ की उपाधि दी। 35वें वर्ष निरमल किले को जीतने के फलस्वरूप उसके मसंब में वृद्धि करके चार हजारी कर दिया गया। इसके पश्चात्‌ उसे जिंजी किले पर आक्रमण करने के लिये नियुक्त किया गया, जहाँ शंभा के भाई राजाराम ने भागकर शरण ली थी और 1 लाख सेना एकत्र कर ली थी। खान ने बड़े साहस के साथ बढ़कर दुर्ग घेर लिया किंतु खाद्य सामग्री की कमी के कारण और मराठा लुटेरों के उपद्रव के कारण इसे अपनी स्थिति में परिवर्तन करना पड़ा, और इसने उस दुर्ग से 24 मील हटकर घेरा डाला। शाहजादा कामबख्श और जुम्लतुल्मुल्क बड़ी सेनाओं के साथ भेजे गए। जुल्फिकार ने आगे बढ़कर शाहजादे का स्वागत किया। किंतु शाहजादे और जुम्लतुल्मुल्क के बीच द्वेष इस सीमा तक बढ़ गया कि शाहजादा गुप्त समाचार जुम्लतुल्मुल्क को न देकर राजाराम को भेजने लगा और इसने दुर्ग के अंदर जाना चाहा। जुम्लतुल्मुल्क ने अन्य अधिकारियों से सहयोग का आश्वासन पाकर शाहजादे को जो दुर्ग घेरे पड़े थे, हटाकर अपने डेरे पर बुलवा लिया। शत्रुओं ने साहस पाकर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में हार जीत के निर्णय कई बार बदले, किंतु अंत में जुल्फिकार खाँ के हाथ विजय रही। तत्पश्चात्‌ इसने जिंजी दुर्ग विजय किया। 46वें वर्ष यह बहरामंद खाँ के स्थान पर मीरबख्शी नियुक्त किया गया। 4८वें वर्ष वाकन्कीरा दुर्ग पर जिसपर अन्य सरदारों का वश नहीं चल रहा था इसने बड़ी तीव्रता के साथ शीघ्र ही अधिकार कर लिया।
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औरंगजेब शासन के 11वें वर्ष यह 3०० सवारों के मनसब पर नियुक्त हुआ, और 2०वें वर्ष इसने शाइस्ता खाँ अमीर उल उमरा की पुत्री से विवाह किया। इस समय इसके पद में वृद्धि की गई और एतकाद खाँ की उपाधि दी गई। 25वें वर्ष के आरंभ में जब शाही सेना अजमेर से दक्षिण की ओर गई, और असद खाँ जुमुलतुल्मुल्क सुलतान मोहम्मद आजिम के साथ अजमेर में नियुक्त कर दिया गया, उस समय एतक़ाद खाँ भी दक्षिण की ओर गया। इसने वहाँ जाकर क्रांतिकारी राठौरों पर आक्रमण कर दिया, जो कि मेड़ता में अशांति मचा रहे थे। भीषण युद्ध हुआ जिसमें इसने लगभग 5०० शत्रुओं को नष्ट कर दिया जिनमें स्वर्गीय महाराज जसवंत सिंह के सोयक और सांबल दास भी सम्मिलित थे जो कि अशांति के नेता थे। इसके पुरस्कार स्वरूप इसके पद में वृद्धि की गई। शंभा पर आक्रमण करने से पहले उसे आदेश दिया गया था कि वह राहेरी के दुर्ग पर अधिकार करे जिसमें शंभा जी का परिवार रहता था। अक्तूबर सन्‌ 168९ ई. में इसने उस महान दुर्ग को जीत लिया, और शंभा को उसके निकट संबंधियों के साथ कैद कर लिया। सम्राट् ने उसे तीन हजारी 2,००० सवार का मसंब देकर सम्मानित किया, साथ ही जुल्फिकार खाँ की उपाधि दी। 35वें वर्ष निरमल किले को जीतने के फलस्वरूप उसके मसंब में वृद्धि करके चार हजारी कर दिया गया। इसके पश्चात्‌ उसे जिंजी किले पर आक्रमण करने के लिये नियुक्त किया गया, जहाँ शंभा के भाई राजाराम ने भागकर शरण ली थी और 1 लाख सेना एकत्र कर ली थी। खान ने बड़े साहस के साथ बढ़कर दुर्ग घेर लिया किंतु खाद्य सामग्री की कमी के कारण और मराठा लुटेरों के उपद्रव के कारण इसे अपनी स्थिति में परिवर्तन करना पड़ा, और इसने उस दुर्ग से 24 मील हटकर घेरा डाला। शाहजादा कामबख्श और जुम्लतुल्मुल्क बड़ी सेनाओं के साथ भेजे गए। जुल्फिकार ने आगे बढ़कर शाहजादे का स्वागत किया। किंतु शाहजादे और जुम्लतुल्मुल्क के बीच द्वेष इस सीमा तक बढ़ गया कि शाहजादा गुप्त समाचार जुम्लतुल्मुल्क को न देकर राजाराम को भेजने लगा और इसने दुर्ग के अंदर जाना चाहा। जुम्लतुल्मुल्क ने अन्य अधिकारियों से सहयोग का आश्वासन पाकर शाहजादे को जो दुर्ग घेरे पड़े थे, हटाकर अपने डेरे पर बुलवा लिया। शत्रुओं ने साहस पाकर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में हार जीत के निर्णय कई बार बदले, किंतु अंत में जुल्फिकार खाँ के हाथ विजय रही। तत्पश्चात्‌ इसने जिंजी दुर्ग विजय किया। 46वें वर्ष यह बहरामंद खाँ के स्थान पर मीरबख्शी नियुक्त किया गया। 48वें वर्ष वाकन्कीरा दुर्ग पर जिसपर अन्य सरदारों का वश नहीं चल रहा था इसने बड़ी तीव्रता के साथ शीघ्र ही अधिकार कर लिया।
  
 
औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात्‌ शाहजादा मोहम्मद आजम ने इसे मीरबख्शी के पद पर बहाल रखा किंतु हरावल के युद्ध में इसने स्वामिभक्ति नहीं दिखाई और अपने पिता के पास ग्वालियर चला गया, जिससे यह शाहजादा आजमशाह का कोपभाजन बना। अंत में बहादुरशाह ने इसपर कृपा की और बहुत बड़ा मंसब तथा ''समसामुद्दौला अमीर-उल-उमरा-बहादुर नसरत जंग'' की उपाधि के साथ दक्षिण की सूबेदारी पर बख्शीगीरी के पद पर नियुक्त किया। मुनइम खाँ खानखाना की मृत्यु के पश्चात्‌ जुल्फिकार खाँ को मंत्री पद सौंपा गया। बहादुरशाह की मृत्यु के पश्चात्‌ राज्य में अत्यंत अशांति मची, बहुत से सरदार विद्रोह करने लगे। किंतु जुल्फिकार खाँ ने अत्यंत कपटपूर्ण चतुरता से सारी स्थिति पर अधिकार कर लिया। तमाम उथल-पुथल के पश्चात्‌ साम्राज्य का अधिकार जहाँदारशाह के हाथ में आया। जहाँदारशाह विलासी प्रकृति का था, अतएव जुल्फिकार खाँ भी सारा प्रबंध अपने सहायकों को सौंप कर निश्चिंत हो गया। इसी स्थिति में फर्रूखसियर ने जहाँदार पर आक्रमण किया। युद्ध हुआ। परिस्थितियाँ निरंतर बदलती गईं। जहाँदारशाह को भागना पड़ा। जब फर्रूखसियर दिल्ली के समीप पहुँचा तो जुल्फिकार खाँ उसकी सेवा में उपस्थित हुआ। फर्रूखसियर ने इसे निर्दयतापूर्वक मरवा डाला। कहते हैं कि जुल्फिकार खाँ एक अनुभवी व्यक्ति और गंभीर सम्मतिदाता था, जिसके फलस्वरूप इसने अपने जीवन में बहुत सम्मान और यश अर्जित किया।
 
औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात्‌ शाहजादा मोहम्मद आजम ने इसे मीरबख्शी के पद पर बहाल रखा किंतु हरावल के युद्ध में इसने स्वामिभक्ति नहीं दिखाई और अपने पिता के पास ग्वालियर चला गया, जिससे यह शाहजादा आजमशाह का कोपभाजन बना। अंत में बहादुरशाह ने इसपर कृपा की और बहुत बड़ा मंसब तथा ''समसामुद्दौला अमीर-उल-उमरा-बहादुर नसरत जंग'' की उपाधि के साथ दक्षिण की सूबेदारी पर बख्शीगीरी के पद पर नियुक्त किया। मुनइम खाँ खानखाना की मृत्यु के पश्चात्‌ जुल्फिकार खाँ को मंत्री पद सौंपा गया। बहादुरशाह की मृत्यु के पश्चात्‌ राज्य में अत्यंत अशांति मची, बहुत से सरदार विद्रोह करने लगे। किंतु जुल्फिकार खाँ ने अत्यंत कपटपूर्ण चतुरता से सारी स्थिति पर अधिकार कर लिया। तमाम उथल-पुथल के पश्चात्‌ साम्राज्य का अधिकार जहाँदारशाह के हाथ में आया। जहाँदारशाह विलासी प्रकृति का था, अतएव जुल्फिकार खाँ भी सारा प्रबंध अपने सहायकों को सौंप कर निश्चिंत हो गया। इसी स्थिति में फर्रूखसियर ने जहाँदार पर आक्रमण किया। युद्ध हुआ। परिस्थितियाँ निरंतर बदलती गईं। जहाँदारशाह को भागना पड़ा। जब फर्रूखसियर दिल्ली के समीप पहुँचा तो जुल्फिकार खाँ उसकी सेवा में उपस्थित हुआ। फर्रूखसियर ने इसे निर्दयतापूर्वक मरवा डाला। कहते हैं कि जुल्फिकार खाँ एक अनुभवी व्यक्ति और गंभीर सम्मतिदाता था, जिसके फलस्वरूप इसने अपने जीवन में बहुत सम्मान और यश अर्जित किया।
 
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०८:३४, १८ अगस्त २०११ का अवतरण

लेख सूचना
जुल्फिकार ख़ाँ नसरतजंग
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 5
पृष्ठ संख्या 27-28
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक फूलदेवसहाय वर्मा
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1965 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी

जुल्फिकार खाँ नसरतजंग का वास्तविक नाम मोहम्मद इस्माइल था। यह असद खाँ आसुफद्दौला का बेटा था। इसकी माँ मेहरुन्निसा बेगम, आसफ खाँ यमीनुद्दौला की बेटी थी। यह सन्‌ 1657 ई. उत्पन्न हुआ था।

औरंगजेब शासन के 11वें वर्ष यह 3०० सवारों के मनसब पर नियुक्त हुआ, और 2०वें वर्ष इसने शाइस्ता खाँ अमीर उल उमरा की पुत्री से विवाह किया। इस समय इसके पद में वृद्धि की गई और एतकाद खाँ की उपाधि दी गई। 25वें वर्ष के आरंभ में जब शाही सेना अजमेर से दक्षिण की ओर गई, और असद खाँ जुमुलतुल्मुल्क सुलतान मोहम्मद आजिम के साथ अजमेर में नियुक्त कर दिया गया, उस समय एतक़ाद खाँ भी दक्षिण की ओर गया। इसने वहाँ जाकर क्रांतिकारी राठौरों पर आक्रमण कर दिया, जो कि मेड़ता में अशांति मचा रहे थे। भीषण युद्ध हुआ जिसमें इसने लगभग 5०० शत्रुओं को नष्ट कर दिया जिनमें स्वर्गीय महाराज जसवंत सिंह के सोयक और सांबल दास भी सम्मिलित थे जो कि अशांति के नेता थे। इसके पुरस्कार स्वरूप इसके पद में वृद्धि की गई। शंभा पर आक्रमण करने से पहले उसे आदेश दिया गया था कि वह राहेरी के दुर्ग पर अधिकार करे जिसमें शंभा जी का परिवार रहता था। अक्तूबर सन्‌ 168९ ई. में इसने उस महान दुर्ग को जीत लिया, और शंभा को उसके निकट संबंधियों के साथ कैद कर लिया। सम्राट् ने उसे तीन हजारी 2,००० सवार का मसंब देकर सम्मानित किया, साथ ही जुल्फिकार खाँ की उपाधि दी। 35वें वर्ष निरमल किले को जीतने के फलस्वरूप उसके मसंब में वृद्धि करके चार हजारी कर दिया गया। इसके पश्चात्‌ उसे जिंजी किले पर आक्रमण करने के लिये नियुक्त किया गया, जहाँ शंभा के भाई राजाराम ने भागकर शरण ली थी और 1 लाख सेना एकत्र कर ली थी। खान ने बड़े साहस के साथ बढ़कर दुर्ग घेर लिया किंतु खाद्य सामग्री की कमी के कारण और मराठा लुटेरों के उपद्रव के कारण इसे अपनी स्थिति में परिवर्तन करना पड़ा, और इसने उस दुर्ग से 24 मील हटकर घेरा डाला। शाहजादा कामबख्श और जुम्लतुल्मुल्क बड़ी सेनाओं के साथ भेजे गए। जुल्फिकार ने आगे बढ़कर शाहजादे का स्वागत किया। किंतु शाहजादे और जुम्लतुल्मुल्क के बीच द्वेष इस सीमा तक बढ़ गया कि शाहजादा गुप्त समाचार जुम्लतुल्मुल्क को न देकर राजाराम को भेजने लगा और इसने दुर्ग के अंदर जाना चाहा। जुम्लतुल्मुल्क ने अन्य अधिकारियों से सहयोग का आश्वासन पाकर शाहजादे को जो दुर्ग घेरे पड़े थे, हटाकर अपने डेरे पर बुलवा लिया। शत्रुओं ने साहस पाकर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में हार जीत के निर्णय कई बार बदले, किंतु अंत में जुल्फिकार खाँ के हाथ विजय रही। तत्पश्चात्‌ इसने जिंजी दुर्ग विजय किया। 46वें वर्ष यह बहरामंद खाँ के स्थान पर मीरबख्शी नियुक्त किया गया। 48वें वर्ष वाकन्कीरा दुर्ग पर जिसपर अन्य सरदारों का वश नहीं चल रहा था इसने बड़ी तीव्रता के साथ शीघ्र ही अधिकार कर लिया।

औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात्‌ शाहजादा मोहम्मद आजम ने इसे मीरबख्शी के पद पर बहाल रखा किंतु हरावल के युद्ध में इसने स्वामिभक्ति नहीं दिखाई और अपने पिता के पास ग्वालियर चला गया, जिससे यह शाहजादा आजमशाह का कोपभाजन बना। अंत में बहादुरशाह ने इसपर कृपा की और बहुत बड़ा मंसब तथा समसामुद्दौला अमीर-उल-उमरा-बहादुर नसरत जंग की उपाधि के साथ दक्षिण की सूबेदारी पर बख्शीगीरी के पद पर नियुक्त किया। मुनइम खाँ खानखाना की मृत्यु के पश्चात्‌ जुल्फिकार खाँ को मंत्री पद सौंपा गया। बहादुरशाह की मृत्यु के पश्चात्‌ राज्य में अत्यंत अशांति मची, बहुत से सरदार विद्रोह करने लगे। किंतु जुल्फिकार खाँ ने अत्यंत कपटपूर्ण चतुरता से सारी स्थिति पर अधिकार कर लिया। तमाम उथल-पुथल के पश्चात्‌ साम्राज्य का अधिकार जहाँदारशाह के हाथ में आया। जहाँदारशाह विलासी प्रकृति का था, अतएव जुल्फिकार खाँ भी सारा प्रबंध अपने सहायकों को सौंप कर निश्चिंत हो गया। इसी स्थिति में फर्रूखसियर ने जहाँदार पर आक्रमण किया। युद्ध हुआ। परिस्थितियाँ निरंतर बदलती गईं। जहाँदारशाह को भागना पड़ा। जब फर्रूखसियर दिल्ली के समीप पहुँचा तो जुल्फिकार खाँ उसकी सेवा में उपस्थित हुआ। फर्रूखसियर ने इसे निर्दयतापूर्वक मरवा डाला। कहते हैं कि जुल्फिकार खाँ एक अनुभवी व्यक्ति और गंभीर सम्मतिदाता था, जिसके फलस्वरूप इसने अपने जीवन में बहुत सम्मान और यश अर्जित किया।