जैमिनीय ब्राह्मण

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जैमिनीय ब्राह्मण सामवेद के प्रवर्तक जैमिनि थे, अतएव सामवेद का प्राचीनतम ब्राह्मण जैमिनि के नाम से ही प्रसिद्ध हुआ। तांड्यमहाब्राह्मण से भी यह प्राचीन है। इसके दो स्वरूप हैं-जैमिनीय आर्षेय ब्राह्मण' जिसे १८७८ ईo में बनेल ने तथा 'जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण' जिसे १९२१ में एर्टल ने प्रकाशित करवाया।

'जैमिनि ब्राह्मण' लुप्त था इसलिये इसका पठन पाठन में प्रचार नहीं हुआ। इसकी कोई टीका भी नहीं है। यह ग्रंथ है तो बड़े महत्व का, किंतु कठिन है। इस ब्राह्मण में यज्ञ, साम, मनुष्य के शरीर के अंग, आकाश आदि भूतों के साथ रूपक में विषयों का वर्णन है।

सबसे पहले दक्षिण भारत में बर्नेल ने इसकी पांडुलिपि प्राप्त की। हिव्टनी, एर्टेल, कैलेंड आदि पाश्चात्य विद्वानों ने इसपर विशेष कार्य किया और अनेक निबंध अनुसंधान पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। १९२४ में प्रोफेसर वेदव्यास ने इस ब्राह्मण को प्रकाशित करने का विशेष यत्न किया था परंतु 'जैमिनीय ब्राह्मण' के प्रथम और द्वितीय कांडों के प्रकाशन का श्रेय डाo रघुबीर ही को है। द्वितीय कांड के केवल १-८० खंडों का ही प्रकाशन अभी तक हो सका है। डाक्टर रघुवीर ने अपने संस्करण में तृतीय कांड से भी उद्धरण दिए हैं। इससे स्पष्ट है कि जैमिनीय ब्राह्मण के प्रथम तीन कांड प्राप्य हैं।

प्रथम कांड में ३६४, द्वितीय में ४४२ तथा तृतीय में ३८५ खंड हैं। प्रथम कांड के १ से ६५ खंडों में 'अग्निहोत्र' तथा ६६ से ३६४ खंडों में 'अग्निष्टोम' का विचार है। साथ ही ३४२ से ३६४ में प्रायश्चित्तों का निरूपण है। दूसरे कांड के १ से ८० खंडों में 'गवायमन'[१] तथा ८१ से २३४ में 'एकाह' सोमयागों के विचार हैं। इन्हीं एकाहों की प्रकृति 'ज्योतिष्टोम' है। २३५ से ३३३ पर्यंत १२ दिन के अवधिसमय में संपन्न होनेवाले 'अहीन' नाम के तथा ३३४ से ३७० खंडों में १२ दिन से अधिक समय में संपन्न होनेवाले 'सत्र नाम के एवं ३७१ से ४४२ खंड पर्यंत में 'गवायमयन' नाम के यागों का निरूपण है। इसी प्रकार तृतीय कांड में 'द्वादशाह' नाम के यागों का विवरण है।

प्रथम और द्वितीय कांडों से कुछ जानने की बातें यहाँ उद्धृत करना उचित मालूम होता है--

प्रथम कांड

पशु दस महीने गर्भधारण करते हैं। गदहे 'द्विरेतस्‌' होते हैं, इसीलिये बडवा (गदही) भी 'द्विरेतस्‌' होती है। इसीलिये पशु को दो संतानें एक साथ होती है।[२] जल से सभी शांति की जाती है।[३] चक्षु ज्योतिरूप है। इसलिये उसी में ज्योति स्थित है।[४] बिना रेतस्‌ के गर्भ होते हैं, मरे हुए गर्भ होते हैं, अंधे गर्भ होते हैं, बहरे गर्भ होते हैं, बिना जीभ के गर्भ होते हैं (१।१०३)। गाँव के पशु प्रात: बंधन से खोल दिए जाते हैं और वे सायंकाल को लौट आते हैं।[५] बृहस्पति देवताओं के तथा शुक्र असुरों के पुरोहित हैं।[६] एक तरफ दाँतवाले तथा दोनों तरफ दाँतवाले पशु हैं।[७] चौदह महीने (वर्ष में) होते हैं।[८] सामवेद के मंत्रों के गान के स्वरों के रथ, मेघ, गांव, पशु, अग्नि, जल तथा दुंदुभी के स्वरों के नाम होते हैं, जैसे रथघोष, पर्यन्य-घोष, ग्रामघोष इत्यादि।[९] रात्रि के बिना दिन नहीं और दिन के बिना रात्रि नहीं होती।[१०]

रस्सी से बाँधकर (गाय को) दुहना चाहिए।[११] हाथी पर बगल से चढ़ना चाहिए।[१२] होनेवाले मनुष्य के मातृगर्भ में प्रवेश करने के पहले उसमें प्राण प्रवेश करता है। यही प्राण आकाश रूप में वहाँ रहता है। उसके पश्चात्‌ गर्भ में रेतस्‌ जाता है और उसीके समान उसमें जीव उत्पन्न होता है अर्थात्‌ उत्पन्न होनेवाले जीव का चरित्र आदि गुण और स्वरूप उस प्राण ही पर निर्भर होता है न कि केवल रेतस पर (१।१७, २।१८)। जंगली पशु से श्रेष्ठ ग्राम्य पशु होते हैं, उनसे भी श्रेष्ठ शूद्र हैं।[१३][१४]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अयनों की प्रकृति
  2. १।६७
  3. १।८२
  4. १।१०२
  5. १।१०६
  6. १।१२५
  7. १।१३२
  8. १।१३२
  9. १।१४३
  10. १।२०७
  11. २।३
  12. २।१२
  13. २।३२
  14. देखे 'ब्राह्मण ग्रंथ'