तानिकाएँ, प्रमस्तिष्क मेरूद्रव तथा तानिकाशोथ

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
लेख सूचना
तानिकाएँ, प्रमस्तिष्क मेरूद्रव तथा तानिकाशोथ
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 5
पृष्ठ संख्या 332-334
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक फूलदेवसहाय वर्मा
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1965 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक मुकुंदस्वरूप वर्मा

तानिकाएँ, प्रमस्तिष्क मेरुद्रव तथा तानिकाशोथ करोटि के भीतर स्थित मस्तिष्क अत्यंत कोमल अंग है। साथ ही यह अत्यंत महत्व का अंग है। संपूर्ण शरीर का तथा समस्त अभयतरांगों का संचालन और उनके भीतर होनेवाली क्रियाओं का नियंत्रण मस्तिष्क ही करता है। इस कारण मस्तिष्क को प्रकृति ने बहुत ही सुरक्षित रखा है। करोटि के ऊपरी भाग, कपाल में अस्थियों का एक संदूक है, जिसमें मस्तिष्क बंद है। फिर अस्थियों के भीतर झिल्लियों से निर्मित तीन तानिकाएँ (Meninges) हैं, जो मस्तिष्क पर आवरण की भाँति फैली हुई हैं। सबसे भीतर मस्तिष्क पर चिपटी हुई, उससे पृथक न हो सकनेवाली, सौत्रिक ऊतक (fibrous tissue) के तंतुओं से निर्मित मृदुतानिका (Piamater) हैं। इसके बाहर थोड़े अवकाश द्वारा पृथक्‌ जालतानिका (Arachnoid) है। दोनों के बीच का अवकाश, अधोजालतानिका अवकाश (Subarachnoid space) कहलाता है। इसके बाहर दृढ़ातानिका (Duramater) आवरण है।

जालतानिका

थोड़े अवकाश द्वारा मृदुतानिका से पृथक्‌ और उसके बाहर जालतानिका का आवरण है। यह कहीं मोटी और कहीं सूक्ष्म है और निरंतर होने के कारण सहज में दिखाई देती है। दोनों तानिकाओं के बीच का अवकाश अधोजालतानिका अवकाश कहलाता है। यह अत्यंत बारीक तानिका पारदर्शी है और मस्तिष्क पर एक थैले की भाँति चढ़ी हुई है। यह भी सोत्रिक ऊतक की बनी हुई है और बहुपृष्ठी कोशिकाओं के एक स्तर से बाहर की ओर आच्छादित है। इससे जहाँ तहाँ तार सद्श सूक्ष्म तंतु मृदुतानिका में चले जाते हैं।

दृढ़तानिका

यह सबसे बाहर का अत्यंत दृड़ सौत्रिक आवरण है, जिसपर मस्तिष्क से रक्त को ले जानेवाली शिराएँ फैली हुई है। इस तानिका के बाहर ही अस्थियों का अंत:पृष्ठ है। जालतानिका को आवृत करती हुई इस सघन, सौत्रिक तंतुनिर्मित कला से एक फलक निकलकर, पट्ट की भाँति मस्तिष्क के दोनों गोलार्धों के बीच चला जाता है, जो प्रमस्तिष्क दात्र (Falx cerebri) कहलाता है। पीछे और नीचे की ओर पहुँच, यह कला अनुमस्तिष्क को ढँक देती है और अनुमस्तिष्क छदि (Tentorium cerebelli) कहलाती है। इससे एक फलक निकलकर अनुमस्तिष्क के दोनों गोलार्घों के बीच स्थित हो जाता है। यह अनुमस्तिष्क दात्र (Falx cerebelli) कहा जाता है। इसका बाहरी पृष्ठ कपाल में अस्थियों की पर्यस्थि (Periosteum) कला की भाँति काम करता है। कशेरुक दंड की नलिका में पहुँचकर यह कला दो स्तरों में विभक्त हो जाती है। बाहरी स्तर केशेरुकों की पर्यस्थिकला की भाँति काम करता है। भीतरी स्तर जालतानिका से कुछ अवकाश द्वारा पृथक्‌ रहता है। दोनों स्तरों के बीच बसा के कण और शिराएँ रहती हैं।

तानिकाएँ और प्रमस्तिष्क मेरुद्रव

मस्तिष्क के चारों निलयों और अधोजालतानिका अवकाश में यह द्रव भरा रहता है। यह स्वच्छ, पारदर्शी द्रव जल के समान दिखाई देता है। इसमें प्लाविका (plasma) सब घटक विद्यमान रहते हैं, किंतु प्रोटीन नहीं होता। श्वेत कणिकाएँ भी प्रति घन मिलीमीटर में ६ से १० तक रहती हैं। यह निलयों में उपस्थित रक्तक जालिका (Choroid plexus) से बनता है। मृदुतानिका की रक्त केशिकाएँ भी इस द्रव को उत्पन्न करने मे भाग लेती हैं। इनसे बना हुआ द्रव अधेजालक अवकाश में होता हुआ निलयों में उत्पन्न हुए द्रव के साथ मिल जाता है। इस प्रकार उत्पन्न हुए द्रव का अवशोषण भी आवश्यक है। यह वहशोषण का काम अधोजालक तानिका के वे प्रवर्ध करते हैं जो अंगुलियों की भाँति दृढ़तानिका में उपस्थित बड़ी बड़ी शिराओं में निकले रहते हैं। अधोजालिका अवकाश से यह द्रव छन छनकर, रक्त में मिलकर, उसका भाग बन जाता है।

प्रमस्तिष्क मेरुद्रव का परिसंचरण

प्रमस्तिष्क के पार्श्व कोष्ठों से द्रव निलयांतरतीय छिद्र द्वारा तीसरे निलय में और वहाँ से सूक्ष्म सिल्वियस नलिका (Aqueduct of Sylvius) द्वारा चतुर्थ निलय में पहुँचता है और यहाँ से इस निलय की छत बनानेवाली मृदुतानिका के तीन छिद्रों द्वारा अधोजालक अवकाश में जाकर, फिर कमाल के शिखर की ओर चला जाता है। कुछ द्रव मेरु के अधोजालक अवकाश में चला जाता है, जहाँ से अंकुरों द्वारा अवशोषित होकर वह रक्त में पहुँच जाता है।

प्रमस्तिष्क मेरुद्रव का कार्य

शरीर के अन्य अंगों में लिंफ का जो कार्य है, केंद्रीय तंत्रिकाओं में वही कार्य इस द्रव का है। यह कोशिकाओं को पोषण पहुँचाता है, एकत्र हुए द्रवों का अपहरण करता है, अंग के आयाम में परिवर्तनों पर स्वयं घट बढ़कर आवश्यक स्थान उपलब्ध करता है और तंत्रिकामंडल को आघात से बचाता है।

तानिकाशोथ

किसी भी जीवाणु के तानिकाओं में पहुँचने से तानिकाशोथ उत्पन्न हो सकता है, किंतु प्राय: मिनिंगोकॉकस (Meningococcus) नामक जीवाणु इस रोग का कारण होता है। बहुधा रोग महामारी के रूप में फैलता रहता है। रोग की उस अवस्था को, जब तक जीवाणु रक्त में ही रहता है, पहचानना संभव नहीं होता।

जीवाणु प्रथम नासिका और गले की श्लेष्मल कला में पहुँचता है, जहाँ उसकी संख्या में वृद्धि होती है। इस समय रोगी की नाक और गले से निकलनेवाले स्रावों में जीवाणु भरे रहते हैं जो अत्यंत संक्रामक होते हैं। मिनिंगोकॉकस के दो बड़े समूहों को पहचाना गया है, जिनको समूह १ और २ कहा गया। इन समूहों में भी प्रकार माने गए हैं। ८५ प्रतिशत महामारियों का कारण समूह १ ही होता है।

निम्नलिखित जीवाणुओं द्वारा भी रोग उत्पन्न हो जाता है : नाईसेरिया गोनोरी (Neoisseria gonarhoeaer गोनोरिया, या पूय मेह का जीवाणु), तथा हीमोफाइलस इनफल्युएंजी (Hemophilus influenzae), न्यूमोकॉकस, (Pneumococcus), स्ट्रिप्टोकॉकस (Streptococcus) या स्टेफिलकोकस (Staphylococcus) प्राय: अन्य अंगों से तानिकाओं में पहुँच जाते हैं। माइकोबैक्टीरियम ट्चूबर्क्युलोलिस (Mycobacterium tuberculosis, राजयक्ष्मा का जीवाणु) जन्य रोग शिशुओं तथा बालकों में अधिक होता है। सिफिलिस (Syphilis) का जीवाणु भी रोग उत्पन्न कर देता है।

रोग के लक्षण

भिन्न भिन्न रोगियों में रोग की उग्रता में बहुत भिन्नता पाई जाती है। रोग का उद्भवनकाल (incubation period), अर्थात्‌ जीवाणु के शरीर में प्रविष्ट होने और रोग के लक्षणों के प्रकट होने का अंतरकाल, पाँच दिन के लगभग होता है। इसमें भी बहुत भिन्नता पाई जाती है।

प्रथम अवस्था में जब तक संक्रमण नाक या गले की श्लेष्मक कला में परिमित रहता है, जुकाम, गले का शोथ, नाक का बहना आदि साधारण लक्षण होते हैं। कितने ही रोगियों में इससे अधिक रोग नहीं बढ़ता।

दूसरी अवस्था में जीवाणु रक्त में पहुँचते हैं, जिससे विषाक्तता (toxaemia) के लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं। रोगी बेहोश सा रहता हैं। उसका क्रमहीन प्रकार का ज्वर होता है। रोगी की स्थिति विशेष प्रकार की होती है। घुटनों को पेट में लगाकर रोगी शय्या में एक करवट पड़ा रहता है। कुछ ही घंटों में त्वचा पर लाल रंग के चकत्ते निकल आते हैं, जिनसे उग्र अवस्थाओं में रक्तस्राव होकर रक्त जमा हो जाता है। जितना रोग उग्र होता है, उतने ही रक्तस्राव युक्त चकत्ते अधिक होते हैं। रोग की उग्रता से कुछ घंटों में मृत्यु हो सकती है। ऐसे रोगियों में तानिकाशोथ का संदेह तक नहीं होता। इसके विरुद्व रोग इतना मृदु हो सकता है कि वह आगे बढ़े ही नहीं, अर्थात्‌ तानिकाशोथ की दशा ही न उत्पन्न हो, रोग यहीं समाप्त हो जाए और रोगी नीरोग हो जाए। मिर्निगोकॉकस के समूह के कारण उत्पन्न रोग मृदु होता है।

तीसरी अवस्था में जीवाणु रक्त से लुप्त हो जाते हैं और तानिकाओं में पहुँचकर तानिकाशोथ के वास्तविक लक्षण उत्पन्न कर देते हें। वमन और दारुण सिर पीड़ा से रोग प्रारंभ होता है। रोगी को प्रतीत होता है कि सिर फटा जा रहा है। तीसरा विशेष लक्षण गर्दन का पीछे की और को खिंचाव है। सिर पीछे को खिंच जाता है। इसका कारण गर्दन के पीछे की ओर की पेशियों का कड़ापन है, जो मस्तिष्क के तल से निकलनेवाली तंत्रिकाओं के क्षोभ के कारण होता है। पेशियों का संकोच इतना तीव्र हो सकता है कि सिर का पश्च भाग पीठ पर लग जाए। सिर को सामने की ओर झुकाना कठिन होता है। रोगी को ज्वर १०३° से १०४° फा. तक होता है। वह नेत्र बंद करते मुड़ा हुआ पड़ा रहता है। बाह्य प्रकाश या उत्तेजनाएँ उसे सह्य नहीं होतीं। कब्ज रहता है। दशा विषम होती है।

कपाल के भीतर मस्तिष्क के निलयों में द्रव की मात्रा बढ़ जाती है, जिससे अतर्कपाली दाब बढ़ जाती है। प्रमस्तिष्क मेरुद्रव पूययुक्त हो जाता है। कभी कभी पूय इतना गाढ़ा होता है कि वह निलयों में संचार नहीं कर पाता। निलयों में उपस्थित रक्तक जालिका भी शोथयुक्त हो जाती है। तानिकाएँ भी सूज जाती हैं और जहाँ तहाँ उनके बीच में पूय एकत्र हो जाता है।

चिकित्सा

सल्फा और प्रतिजीवाणु योगों के आविष्कार के पश्चात्‌ ऐंटिसीरम बंद ही हो गया है। सल्फा योगों में भी सल्फाडाइज़ीन सर्वोत्तम है। यदि रोगी बेहोश होता है, तो नितंब प्रांत में औषधि का इजेक्शन दिया जाता है। सल्फस मेरिजिन, या तीनों सल्फा मिलाकर, देने की रीति बहुत प्रचलित हो गई। उपयुक्त रक्तस्तर बनाए रखने के लिये प्रति छह घंटे पर इंजेक्शन देना पड़ना है। यदि रोगी मुँह से खा सकता है, तो सल्फा की टिकिया, आयु और मात्रानुसार प्रत्येक चार चार, छह-छह घंटे पर खिलाई जाती है।

पेनिसिलिन भी उपयोगी है, किंतु उसको मेरु में प्रविष्ट करना चाहिए। ओरोमाइसिन, क्लोरमाइसिटिन तथा टेट्रामाइक्लिन का भी उत्तम प्रभाव होता है। अंतकंपाली दाब अधिक होने पर कटिवेधन द्वारा प्रमस्तिष्क मेरुद्रव की आवश्यक मात्रा निकालना जरूरी है। संदिग्ध दशाओं मे रक्त का सवर्धन रोग पहचानने के लिये आवशक है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ