"भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 12" के अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
छो (Text replace - "भगवद्गीता -राधाकृष्णन भाग-" to "भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. ")
छो (भगवद्गीता -राधाकृष्णन भाग-12 का नाम बदलकर भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 12 कर दिया गया है: Text replace - "भगव...)
 
(कोई अंतर नहीं)

१०:५३, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण

4.सर्वोच्च वास्तविकता

उपनिषदों में हमें भगवान् का वर्णन अविकार्य और अचिन्त्य के रूप में मिलता है और साथ ही यह दृष्टिकोण भी मिलता है कि वह विश्व का स्वामी है। यद्यति वह समस्त वस्तुओं का स्त्रोत है, फिर भी वह अपने-आप में सदा अविचल रहता है।[१]शाश्वत वास्तविकता न केवल अस्तित्व को संभाले रखती है, अपितु वह संसार में सक्रिय शक्ति भी है। परमात्मा अनुभवातीत, दुष्प्राप्य, प्रकाश में निवास करने वाला है, पर साथ ही वह ऑगस्टाइन के शब्दों में, “आत्मा के साथ उससे भी अधिक घनिष्ठ है, जितना कि आत्मा स्वयं आत्मा के साथ है।” उपनिषद् में एक वृक्ष पर बैठे दो पक्षियों का उल्लेख है, जिनमें से एक तो फल खाता है, परन्तु दूसरा खाता नहीं है; वह देखता-भर है। वह आनन्द से दूर रहने वाला मौन साक्षी है।[२]अव्यक्तिकता (निर्गुण) और व्यक्तिकता (सगुण) मन की मनमानी रचनाएं या कल्पनाएं नहीं, ये तो शाश्वत को देखने की दो विधियां है। भगवान् अपने परम, स्वतः विद्यमान रूप में ब्रह्म है परब्रह्म; और संसार का स्वामी और सृजन करने वाला भगवान् जिसके अन्दर सब विद्यमान है और जो सबका नियन्त्रण करता है, वह ईश्वर कहलाता है।
“चाहे भगवान् को निर्गुण माना जाए, चाहे सगुण, इस शिव को सनातन समझना चाहिए। जब उसे सृष्टि से पृथक् करके देखा जाता है, तो वह निर्गुण होता है और जब उसे सब वस्तुओं के रूप में देखा जाता है, तब वह सगुण होता है।”[३]यदि यह संसार एक विश्व है और कोई अरूप अनिश्चितता नहीं है, तो यह परमात्मा की देख रेख के कारण ही है। भागवत में बताया गया है कि वह एक वास्तविकता, जो अविभक्त चेतना के ढंग की है, ब्रह्म, भगवान्, आत्मा या परमात्मा कहलाती है।[४]वह सर्वोच्च मूल तत्त्व है; वही हमारे विद्यमान् आत्मा है और साथ ही वही पूजनीय परमात्मा है। भगवान् अनुभवातीत भी है, विश्वरूप भी है और वैयक्तिक वास्तविकता भी है। अपने अनुभवातीत रूप में वह विशुद्ध आत्म है, जिस पर किसी कर्म या अनुभव का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वह अलिप्त और असंग है। अपने गतिशील विश्व रूप में वह न केवल सारे विश्व की क्रिया को संभालता है, बल्कि उसका शासन करता है; और यही वह आत्म है, जो सबके अन्दर एक ही है और सबसे ऊपर है और व्यक्ति के अन्दर विद्यमान है। [५] परमात्मा बुराई के लिए अप्रत्यक्ष रीति के सिवाय और किसी प्रकार उत्तरदायी नहीं है। यदि यह विश्व ऐसे सक्रिय व्यक्तियों से बना हुआ है, जो अपने कर्म का चुनाव स्वयं करते हैं, जिनको प्रभावित तो किया जा सकता है, किन्तु नियन्त्रित नहीं किया जा सकता, क्योंकि परमात्मा कोई तानाशाह नहीं है, तो इसमें संघर्ष अवश्यम्भावी है। यह मानने का, कि संसार में स्वतन्त्र आत्माएं विद्यमान हैं, अर्थ यह है कि बुराई सम्भव और सम्भाव्य है।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. रूमी से तुलना कीजिएः “तेरा प्रकाश सब वस्तुओं से साथ-ही-साथ मिला हुआ है और सबसे अलग भी है।” शम्स-ए-तबरीज (निकल्सनकृत अंग्रेज़ी अनुवाद) गीता19।
  2. मुण्डकोपनिषद् 3, 1, 1-3। बोएहमी से तुलना कीजिएः “अन्धकार का गम्भीर समुद्र उतना ही विशाल है, जितना कि प्रकाश का निवास-स्थान; और वे एक-दूसरे से ज़रा भी दूर नहीं हैं, बल्कि एक-दूसरे से मिले-जुले साथ-साथ विद्यमान हैं और उनमें से किसी का भी न आदि है,न अन्त।” थ्री प्रिंसिपल्स, 14, 76
  3. निर्गुणः सगुणश्चेति शिवो ज्ञेयः सनातनः। निर्गुणः प्रकृतेरन्यः सगुणः सकलः स्मृतः।।
  4. वदन्ति तत् तत्त्वविदः तत्त्व यज्ज्ञानमद्वयम्।
    ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्दद्यते।।

    साथ ही तुलना कीजिएः उत्पत्तिं च विनाशं च भूतानामग्तिं गतिम्। वेत्ति विद्यामविद्यां च स वाच्यो भगवानिति।।

  5. बृहदारण्यक उपनिषद् पर शंकराचार्य की टीका से तुलना कीजिए; 3, 8, 12। मोटे तौर पर हम कह सकते हैं कि अपने अनुभवातीत, विश्वरूप और व्यक्तिगत पक्ष की दृष्टि से परमात्मा ईसाई धर्म के पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा की त्रयी से मेल खाता है।

संबंधित लेख

साँचा:भगवद्गीता -राधाकृष्णन