भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 226

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अध्याय-13
सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक सर्वोच्च ज्ञान

   
20.गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्धवान्।
जन्ममृत्युजरादुः खैर्विमुक्तोअमृतमश्नुते।।
जब शरीरधारी आत्मा शरीर से उत्पन्न होने वाले इन तीन गुणों से ऊपर उठ जाती है, तब वह जन्म, मरण, वृद्धावस्था और दुःखों से मुक्त हो जाती है और उसे शाश्वत जीवन प्राप्त हो जाता है।
देहसमुद्भवान्: इसमें यह अर्थ निहित है कि गुण शरीर के कारण उत्पन्न होते हैं। ’’ये वे बीज हैं, जिनमें से शरीर विकसित होता है।’’ - शंकराचार्य।[१] सात्विक अच्छाई भी अपूर्ण है, क्योंकि इस अच्छाई के लिए भी इसके विरोध के साथ संघर्ष की शर्त लगी हुई। ज्योंही वह अच्छाई नहीं रहती और वह सब नैतिक बाधाओं से ऊपर उठ जाती है। सत्व की प्रकृति का विकास करने के द्वारा हम उससे ऊपर उठ जाते हैं और लोकातीत ज्ञान को प्राप्त करते हैं।[२] जो त्रिगुणातीत है, उसकी विशेषताएं
 
अर्जुन उवाच
21.कैर्लिंगैस्त्रीन्गुणानेतानतीतो भवित प्रभो।
किमाचारः कथं चैचांस्त्रीन्गुणानतिर्वते।।
अर्जुन ने कहा:हे प्रभु, जो इन तीन गुणों से ऊपर उठ जाता है, उसकी क्या पहचान होती है? उसका रहन-सहन कैसा होता है? वह इन तीनों गुणों से परे किस प्रकार पहुंचता है?जीवन्मुक्त की, जो व्यक्ति वर्तमान जीवन में ही पूर्णता को प्राप्त कर चुका है, उसकी क्या विशेषताएं होती हैं? ये विशेषताएं बहुत कुछ वही हैं, जो स्थित-प्रज्ञ की हैं (2, 25 से आगे) और जो भक्त की हैं, (12, 13 से आगे)।इससे यह स्पष्ट है कि पूर्णता की विशेषताएं एक-सी ही हैं, चाहे उस पूर्णता को किसी भी प्रकार प्राप्त कर लिया जाए।

श्रीभगवानुवाच
22.प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव।
न द्वेष्टि संप्रवृत्तानि न निवृत्तानि काड्क्षति।।
श्री भगवान् ने कहा:हे पाण्डव (अर्जुन), जो व्यक्ति प्रकाश, गतिविध और मूढ़ता के उत्पन्न होने पर उन्हें बुरा नहीं मानता और जब वे न हों, तब उनके लिए इच्छा नहीं करता;
 
23.उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते।
गुणा वर्तन्त इत्येव योअविष्ठति नेगंते।।
जो उदासीन (निस्पृह या तटस्थ) की भांति गुणों द्वारा विचलित न होता हुआ बैठा रहता है, जो यह समझता हुआ, कि केवल गुण ही कर्म कर रहे हैं, अविचिलित भाव से अलग रहता है;वह प्रकृति के परिवर्तनों को देखता है, परन्तु उनमें उलझता नहीं। गुणों का विशुद्ध प्रकाश, दिव्य गतिविधि और पूर्ण शान्ति के रूप में उन्नयन किया जाता है।
 
24.समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाच्चनः।
तुल्याप्रियाप्रियो धीरेस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः।।
जो सुख और दुःख को समान समझता है, जो अपने आत्मा में ही स्थिति रहता है, जो मिट्टी के ढेले, पत्थर और स्वर्णखण्ड को समान समझता है, जो प्रिय और अप्रिय वस्तुओं में एक-सा रहता है,जिसका मन स्थितर है और जो निन्दा और स्तुति को एक जैसा समझता है;

25.मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते।।
जो मान और अपमान से समान रहता है और जो मित्रों और शत्रुओं के प्रति एक-सा है और जिसने सब कर्मों का परित्याग कर दिया है, उसे गुणातीत अर्थात् गुणों से ऊपर उठा हुआ कहा जाता है।
 
26.मां च योअव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते।
स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते।।
जो अनन्य भक्तियोग से मेरी सेवा करता है, वह तीनों गुणों से ऊपर उठ जाता है और वह ब्रह्म बन जाने के योग्य हो जाता है,वह मुक्ति के उपयुक्त हो जाता है।
 
27.ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च ।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च।।
(क्योंकि) मैं अमर और अनश्वर ब्रह्म का, शाश्वत धर्म और परम आनन्द का निवास-स्थान हूं।यहां पर व्यक्तिक ईश्वर को परब्रह्म का आधार बताया गया है। शंकराचार्य ने इसका अर्थ यह निकाला है कि परमेश्वर इस अर्थ में ब्रह्म है कि वह ब्रह्म का व्यक्त रूप है। ब्रह्म अपने भक्तों पर अपनी करुणा ईश्वर-भक्ति के द्वारा दिखाता है और वह परमेश्वर व्यक्त शक्ति है और इसलिए वह स्वयं ब्रह्म ही है। शंकराचार्य ने एक और वैकल्पिक व्याख्या भी प्रस्तुत की है: ब्रह्म व्यक्तिक ईश्वर है और इस श्लोक का अर्थ है, ’’मैं जो कि अनिर्देश्य और अनिर्वचनीय हूं, उस निर्दिष्ट ब्रह्म का निवास- स्थान हूं, जो कि अमर और अविनाश्य है।’’ नीलकण्ठ ने ब्रह्म का अर्थ वेद माना है। रामानुज ने ब्रह्म की व्याख्या मुक्त आत्मा के रूप में और मध्व ने माया के रूप में की है। मधुसूदंन ने इसे व्यक्तिक ईश्वर माना है कृष्ण ने अपने-आप को परम, अनिर्दिष्ट ब्रह्म के साथ तद्रूप कर लिया है।
इति ’ ’ ’ गुणत्रयविभागयोगो नाम चतुर्दशोअध्यायः।
यह है ’तीनों गुणों के विभेद का योग’ नामक चैदहवां अध्याय।
 


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. देहोत्पत्तिबीजभूतम्।
  2. जिस प्रकार हम कांटे से कांटे को निकालते हैं, उसी प्रकार सांसरिक वस्तुओं का त्याग करने के द्वारा हमें त्याग को भी त्याग देना चाहिए। कण्टकं कण्टकेनेव येन त्यजसिं तं त्यंज। सत्व-गुण के द्वारा हम रजस् और तमस् पर विजय पाते हैं और उसके बाद स्वयं सत्व से भी ऊपर उठ जाते हैं।

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