भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 227

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अध्याय-15
जीवन का वृक्ष विश्ववृक्ष

   
श्रीभगवानुवाच
1.ऊध्र्वमूलमधः शाखमश्वत्यं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्।।
श्री भगवान् ने कहाः लोग उस अनश्वर अश्वत्थ (पीपल का पेड़) के विषय में बताते हैं, जिसकी जडे़ ऊपर की ओर हैं और शाखाएं नीचे की ओर हैं। उसके पत्ते वेद हैं; और जो इस बात को जान लेता है, वह वेदो का ज्ञाता है।कठोपनिषद् से तुलना कीजिए: ’’यह विश्व-वृक्ष, जिसकी कि जडें ऊपर की ओर हैं और शाखाएं नीचे की ओर, शाश्वत है।’’[१] की मजबूत तलवार द्वारा काटा जा सकता है, ज्ञानेन परमासिना।[२] क्योंकि इस वृक्ष का उद्गम परमात्मा से होता है, इसलिए यह कहा गया है कि इसकी जड़े ’ऊपर’ हैं; क्योंकि यह संसार के रूप में फैलता है, इसलिए इसकी शाखाएं ’नीचे की ओर’ कही जाती हैं। यह संसार एक जीवित शरीर है, जो भगवान् के साथ संयुक्त है।प्राचीन विश्वास के अनुसार यह कहा जाता है कि वैदिक यज्ञ संसार को बनाए रखता है, इसलिए मन्त्र उसके पत्ते हैं जो कि तने और शाखाओं समेत इस वृक्ष को जीवित रखते हैं। यह संसार-वृक्ष है। महाभारत में विश्व की प्रक्रिया की तुलना एक वृक्ष से की गई है, जिसे कि ज्ञान
   
2.अधश्चोध्र्व प्रसृतास्तस्य शाखा
गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि,
कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके।।
इसकी शाखाएं ऊपर और नीचे फैली हुई हैं, जिनका पोषण गुणों द्वारा होता है। इन्द्रियों के विषय इसकी टहनियां हैं और नीचे मनुष्यलोक में इसकी जड़ें फैली हुई हैं, जिनके परिणामस्वरूप कर्म होते हैं।शंकराचार्य ने इसका यह अर्थ किया है कि नीचे की ओर फैली हुई जड़े गौण हैं। ये वासनाएं हैं, जिन्हें कि आत्मा अपने पूर्वकर्मों के फल के रूप में साथ ले जाती है।
 
3.न रूपमस्येह तथोपलभ्यते,
नान्तोन चादिर्न च संप्रतिष्ठा।
अश्वत्थमेनं सुविरूढ़मूल-
मसंगशस्त्रेण दृढ़ेन छित्वा।।
इस प्रकार इसका वास्तविक रूप यहां दिखाई नहीं पड़ता; न इसका अन्त, न आदि और न इसका आधार ही दिखाई पड़ता है। इस पक्की जड़ों वाले अश्वत्थ (पीपल के वृक्ष) को अनासक्ति की दृढ़ तलवार से काटकर;

4.ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं,
यस्तिन् गता नं निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये,
यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी।।
तब यह कहते हुए कि ’’मैं उस आद्य पुरुष मे शरण लेता हूं, जिससे यह विश्व की प्राचीन धारा निकली है,’’ उस मार्ग की खोज करनी चाहिए, जिस पर गए हुए लोग फिर वापस नहीं लौटते।शिष्य अपने-आप को वस्तु-रूप से पृथक् करके उस आद्य चेतना में शरण लेता है जिससे विश्व की ऊर्जाएं निकलती हैं।
 
5.निर्मानमोहा जितसंगदोषा
अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञै-
र्गच्छन्त्यमूढ़ाः पदमव्ययं तत्।।
जो लोग अभिमान और मोह से मुक्त हो गए हैं, जिन्होंने बुरी आसक्तियों को जीत लिया है, जिनकी सब इच्छाएं शान्त हो गई हैं, जो सदा परमात्मा की भक्ति में लगे रहते हैं, जो सुख और दुःख के रूप से ज्ञात द्वैतों से मुक्त हो गए हैं और मूढ़ता से रहित हो गए हैं, वे उस शाश्वत पद (दशा) को प्राप्त होते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 5, 1। साथ ही देखिए ऋग्वेद, 1, 24, 7 मैं संसार-वृक्ष का मूल हूं। तैत्तिरीय उपनिषद्, 1, 10 पैटैलिया और्फिक तालिका यह संकेत करती है कि हमारा शरीर पृथ्वी से आता है और हमारी आत्मा स्वर्ग से आती है। ’’मैं पृथ्वी का और तारों वाले आकाश का पुत्र हूं; परन्तु मेरी जाति केवल स्वर्ग की ही है।’’ प्लेटो से तुलना कीजिए: ’’जहां तक हमारी आत्मा के सबसे अधिक प्रभुत्वशील अंश का सम्बन्ध है, उसको हमें इस रूप में समझना चाहिए; हम यह घोषणा करते हैं कि परमात्मा ने हममें से प्रत्येक को अपनी मित्रतापूर्ण आत्मा के रूप में उस प्रकार की आत्मा दी है, जो हमारे शरीर के ऊपर सिरे में स्थित है और जो यह देखकर कि हम पार्थिव नहीं, अपतिु स्वर्गिक वनस्पति हैं, हमें पृथ्वी से ऊपर उस स्वर्ग की ओर उठाती है, जो हमारा आत्मीय है।’’ टिमेइयस, 90ए।
  2. अश्वमेधपर्व 47, 12-15

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