भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 228

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अध्याय-15
जीवन का वृक्ष विश्ववृक्ष

   
व्यक्त जीवन केवल एक अंश है
6.न तद्धासयते सूर्या न शशांको न पावकः।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मंम।।
उसे न तो सूर्य प्रकाशित करता है, न चन्द्रमा और न अग्नि। वह मेरा परम धाम है, जहां पहुचकर फिर वापस नहीं लौटना होता ।तुलना कीजिए; कठोपनिषद् 5, 15; मुण्डकोपनिषद् 2, 2-10।इस श्लोक में अपरिवर्तनशील ब्रह्म की ओर संकेत किया गया है, जिसे तपस्या के अभ्यास द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।

ईश्वर संसार का जीवन है
7.ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।।
मेरा अपना ही एक अंश नित्य जीव बनकर जीवन के संसार में पांच इन्द्रियों को और उनके साथ छठे मन को, जो कि प्रकृति में स्थित हैं, अपनी ओर खींच लेता है।ममैवांश:: मेरा अपना ही एक अंश। इसका यह अर्थ नहीं है कि भगवान् को टुकड़ों में विभक्त या खाण्डित किया जा सकता है। व्यष्टि भगवान की एक गति है, एक महान् जीवन का केन्द्र। आत्मा वह नाभिक है, जो अपने-आप को विस्तारित कर सकती है और हृदय और मन द्वारा, एक घनिष्ठ संयोग द्वारा, सारे संसार को आत्मसात् कर सकती है। वास्तविक अभिव्यक्तियां, सम्भव है कि, आंशिक हों, परन्तु व्यष्टि आत्मा की वास्तविकता ब्रह्म है, जो मानवीय प्रकट-रूप में पूरी तरह सामने नहीं आता। मनुष्य में विद्यमान परमात्मा की मूर्ति स्वर्ग और पृथ्वी के मध्य बना एक सेतु है। विश्व में प्रत्येक व्यष्टि का शाश्वत महत्व है। जब वह अपनी सीमितताओं से ऊपर उठ जाती है, तब वह अतिव्यक्तिक (सुपरर्सनल) परब्रह्म में विलीन नहीं हो जाती, अपितु भगवान् [१] में निवास करती रहती है और विश्व की गतिविधि में परमात्मा की एक हिस्सेदार बन जाती है।शंकराचार्य ने यह अर्थ निकाला है कि आत्मा ईश्वर का उसी रूप में एक अंश है, जिस प्रकार एक घडे़ या घर के अन्दर का आकाश सम्पूर्ण आकाश का अंश है। रामानुज की दृष्टि में आत्मा परमात्मा का वस्तुतः एक अंश है। वह संसार में तत्वतः एक व्यष्टि आत्मा बन जाता है और इन्द्रियों के विषयों का सेवन करने के कारण बन्धन में फंस जाता है।जीवभूतः: एक जीवित आत्मा बनकर। शंकरानन्द का कथन है: ’’शाश्वत अंश क्षेत्रज्ञ की दशा को प्राप्त करके नाम और रूप को व्यक्त करने के उद्देश्य से ज्ञाता बन जाता है।’’[२] भगवान् किसी रीति से (प्रकारान्तेरण) जीव बन जाता है। सारतः वह जीव नहीं होता, अपितु उसका रूप धारण कर लेता है। वह जीवभूत होता है, जीवात्मक नहीं।जीवात्मा नानाविध ब्रह्म का एक केन्द्र है और दिव्य चेतना के एक पहलू को ही अभिव्यक्त करती है। जीव का सम्बन्ध व्यक्त संसार से है और वह उस एक (ब्रह्म) पर आश्रित है। आत्मा वह एक है, जो इस सारे व्यक्त विश्व को संभाले हुए है। जीव की पूर्णता अपनी विशिष्ट प्रकृति की अभिव्यक्ति में ही है। यदि वह ब्रह्म के प्रति सही मनोवृत्ति रखता है, तो उसका स्वभाव उन प्रभावों से रहित होकर शुद्ध हो जाता है, जो उसे घटाते और विकृत करते हैं और उस जीव का व्यक्तित्व स्पष्टता से सामने आ जाता है। जहां व्यक्ति तत्वतः परमात्मा के साथ एक है, वहां व्यक्त जगत् में प्रत्येक व्यक्ति ब्रह्म का एक आंशिक व्यक्त रूप है। हममें से प्रत्येक उस दिव्य चेतना की एक किरण है, जिसमें कि हमारा अस्तित्व, यदि हम होने दें, तो रूपान्तरित हो सकता है।रकृतिस्थानि: उनके स्वाभाविक स्थानों में। - शंकराचार्य। प्रकृति से बने हुए शरीरों में रहते हुए। - रामानुज।
 
8.शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वः।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्।।
जब ईश्वर शरीर धारण करता है और जब वह शरीर को छोड़ता है, तब वह इन (इन्द्रियों और मन) को साथ ले जाता है, जैसे कि वायु सुगन्धों को उनके स्थानों से ले जाती है।विश्व अस्तित्व में जब आत्माह भटकती रहती है, तब सूक्ष्म शरीर उसके साथ रहता है।
 
9.श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च।
अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते।।
वह कान, आंख, स्पर्श की इन्द्रिय, स्वाद की इन्द्रिय और नासिका तथा मन का उपयोग करता हुआ इन्द्रियों के विषयों का आनन्द लेता है।

10.उत्क्रामंन्तं स्थितं वापि भुज्जानं वा गुणान्वितमू्।
विमूढ़ा नानुपश्यन्ति पश्चन्ति ज्ञानचक्षुषः।।
 जब वह शरीर को छोड़ता है या उसमें रहता है या गुणों के सम्पर्क में आकर उपभोग करता है, उस समय मूढ़ लोग (अन्तर्वासी आत्मा को) नहीं देख पाते। परन्तु जिनके ज्ञान की आंख है (या ज्ञान जिनकी आंख है), वे उसे देख पाते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. निवसिष्यसि मय्येव, 12, 8
  2. नामरूपव्याकरणाय क्षेत्रज्ञतां गतः प्रमाता भूत्वा तिष्ठति।

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