भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 238

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अध्याय-17
धार्मिक तत्व पर लागू किए गए तीनों गुण श्रद्धा के तीन प्रकार

   
24.तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपः क्रियाः।
प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम्।।
इसलिए ब्रह्मवादी लोगों द्वारा शास्त्रों द्वारा बताई गई यज्ञ, दान और तप की क्रियाएं ’ओम’ शब्द का उच्चारण करके की जाती हैं।

25. तदित्यनभिसन्धाय फलं यज्ञतपः क्रियाः।
दानक्रियाश्च विविधाः क्रियन्ते मोक्षकाड्क्षिभिः।।
’तत्’ शब्द का उच्चारण करके यज्ञ और तप और दान की विविध क्रियांए प्रतिफल की इच्छा रखे बिना मोक्ष की इच्छा रखने वाले लोगों द्वारा की जाती हैं।

26.सद्धावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते।
’सत’ शब्द का प्रयोग वास्तविकता और अच्छाई के अर्थ में किया जाता है; और हे पार्थ (अर्जुन), ’सत्’ शब्द का प्रयोग प्रशंसनीय कार्य के लिए भी किया जाता है।
 
27.यज्ञे तपसि दाने च स्थितः सदिति चोच्यते।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते।।
यज्ञ, तप और दान में दृढ़ता से स्थित रहना भी ’सत्’ कहलाता है और इसी प्रकार इन प्रयोजनों के लिए किया गया कोई काम भी ’सत्’ कहलाता है।
 
28.अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह।।
बिना श्रद्धा के जो यज्ञ किया जाता है, जो दान दिया जाता है जो तप किया जाता है या कोई कर्म किया जाता है, हे पार्थ (अर्जुन), वह ’असत्’ कहलाता है; उसका न तो इस लोक में और न परलोक में ही कोई लाभ होता हैं
इति’ ’ ’ श्रद्धात्रविभागयोगो नाम सप्तदशोअध्यायः।
यह है ’श्रद्धा के तीन प्रकार के भेद का योग’ नामक सत्रहवां अध्याय।
 


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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