भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 242

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अध्याय-18
निष्कर्ष संन्यास कर्म का ही नहीं, अपितु कर्म के फल का किया जाना चाहिए

   
17.यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि स इमांल्लोकान्न हन्ति न निबध्ययते।।
जो अहंकार की भावना से मुक्त है, जिसकी बुद्धि मलिन नहीं है, वह इन सब मनुष्यों को मारता हुआ भी मारता नहीं है और वह (अपने कर्मों के कारण) बन्धन में नहीं पड़ता।मुक्त मनुष्य अपने कार्य को विश्वात्मा के उपकरण के रूप में और विश्व की व्यवस्था को बनाए रखने के लिए करता है। वह भयंकर कर्मों को भी किसी स्वार्थपूर्ण उद्देश्य या इच्छा के बिना करता है; केवल इसलिए कि वह उसका आदिष्ट कत्र्तव्य है। महत्व कर्म का नहीं, अपितु उस भावना का है, जिसके साथ वह किया गया है। ’’यद्यपि वह लौकिक दृष्टि से मारता है, फिर भी वह वस्तुतः नहीं मारता।’’ - शंकराचार्य।[१] इस स्थल का यह अर्थ नहीं है कि हम दंड से मुक्त होकर अपराध करते रह सकते हैं। जो व्यक्ति विशाल आत्मिक चेतना में जीवन-यापन करता है, उसे कोई पाप करने की आवश्यकता ही न होगी। बुरे काम अज्ञान और पृथक् चेतना के फलस्वरूप उत्पन्न होते हैं और परमात्मा के साथ एकता की चेतना के फलस्वरूप केलव अच्छे काम ही किए जा सकते हैं।
 
ज्ञान और कर्म
18.ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना।
करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसंग्रहः।।
ज्ञान, ज्ञान का उद्देश्य और जानने वाला कर्ता; कर्म के लिए प्रेरणा इन तीन प्रकारों की होती है। साधन, कर्म और कर्ता, यह तीन प्रकार का कर्म संग्रह है। देखिए 13, 20।’कर्मचोदना’ का अभिप्राय मानसिक आयोजना, और ’कर्मसंग्रह’ का अभिप्राय कर्म के वास्तविक कार्यान्वयन से है और इन दोनों के तीन-तीन पहलू हैं।
 
19.ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः।
प्रोच्यते गुणसंख्याने यथावच्छृगु तान्यपि।।
गुणों के विज्ञान में ज्ञान, कर्म और कर्ता गुणों के अन्तर के अनुसार केवल तीन प्रकार के कहे गए हैं। अब तू इनके विषय में ठीक-ठीक सुन।
यहां सांख्य-दर्शन का निर्देश किया गया है और वह कुछ मामलों में प्रामाणिक है, हालांकि सर्वाच्च सत्य के मामले में प्रामाणिक नहीं है।
 
तीन प्रकार का ज्ञान
20.सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते।
अविभक्तं विभकतेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्विकम्।।
जिस ज्ञान के द्वारा सब वस्तुओं और प्राणियों में एक ही अनश्वर सत्ता दिखाई पड़ती है, जो विभक्तों में भी अविभक्त रूप में विद्यमान है, उस ज्ञान को तू सात्विक ज्ञान समझ।
 
21.पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान्।
वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम्।।
जिस ज्ञान के द्वारा विभिन्न प्राणियों में उनकी पृथकता के कारण अस्तित्व की विविधता दिखाई पड़ती है, उस ज्ञान को राजसिक समझना चाहिए।

22.यत्तु कृत्स्नदेकस्मिन् कार्ये सक्तमहैतुकत्।
अतत्वार्थवदल्पं च तत्तामसमुदाहृम्।।
परन्तु जो ज्ञान किसी एक कार्य को ही सब-कुछ मान लेता है और उसके कारण का कोई ध्यान नहीं रखता और तत्वार्थ को नहीं समझ पाता और जो संकीर्ण है, वह तामसिक ढंग का ज्ञान कहलाता है।
 
तीन प्रकार का कर्म
23.नियतं संगरहितमरागद्वेषतः कृतम्।
अफलपे्रप्सुना कर्म यत्तत्सात्विकमुच्यते।।
वह कर्म, जिसे करना आवश्यक है, जिसे आसक्ति के बिना किया जाता है और जिसे राग-द्वेष से शून्य होकर, फल की इच्छा से रहित व्यक्ति द्वारा किया जाता है, सात्विक कर्म कहलाता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. लौकिकीं दृष्टिम् आश्रित्य हत्वापि ’ ’ ’ पारमार्थिकीं दृष्टिम् आश्रित्य न हन्ति।

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