भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 41

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10.ज्ञानमार्ग

मनुष्य अपने अस्तित्व के केवल एक अंश को, अपनी ऊपरी सतह की मनोवृत्ति को ही जानता है। इस सतह के नीचे भी बहुत कुछ है, जिसे वह बिलकुल नहीं जानता, हालांकि उस नीचे वाली वस्तु का उसके आचरण पर अनेक रूपों में प्रभाव पड़ता है। कभी-कभी हम पूर्णतया अपने मनोवेगों के, सहज वृत्ति के और अस्वैच्छिक प्रतिक्रियाओं के वशीभूत हो जाते हैं, जो सचेत विवेक के नियम को उलट देती हैं। पागल व्यक्ति जहां इन मनोवेगों के पूर्णतया अधीन होता है, वहां हममें से अनेक भी उनके प्रभाव के वशवर्ती होते हैं, हालांकि सामान्य व्यक्तियों में इस प्रकार की दशाएं अस्थायी होती हैं। प्रेम या विद्वैष की प्रबल भावना के आवेश में हम ऐसी बातें कह या कर जाते हैं, जिनके बारे में जब हम बाद में अपने आपे में आते हैं, तब हमें पश्चाताप होता है। हमारी भाषा ‘वह आपे से बाहर हो गया’ वह अपने-आप को भूल बैठा’, ‘वह तो मानो वह ही नहीं रहा’, पुरातन दृष्टिकोणों की इस सचाई का संकेत करती है कि जो मनुष्य किसी तीव्र भावना से अभिभूत रहता है, उसमें कोई शैतान या भूत आ घुसा होता है।[१] जब तीव्र मनोवेग जाग उठते हैं, तब हम अधिकाधिक उद्दीप्य हो जाते हैं और सब प्रकार के असंयत विचार हम पर हावी हो जाते हैं।
साधारणतया अचेतन चेतन के साथ सहयोग करता है और हमें कभी इस बात का सन्देह तक नहीं होता कि अचेतन विद्यमान भी है। परन्‍तु अगर हम अपने मूल सहज-वृत्तिजन्य नमूने के मार्ग से हट जाते हैं, तब हमें अचेतन की पूरी शक्ति का अनुभव होता है। जब तक व्यक्ति पूरी तरह आत्मसजग न हो जाए, तब तक वह अपने जीवन का स्वामी नहीं बन सकता। इसके अलावा, शरीर, प्राण और मन का समेकन किया जाना चाहिए। वस्तुतः आत्मचेतन प्राणी के रूप में मनुष्य को अपने अन्दर विद्यमान गम्भीरतर विरोधों का ज्ञान है। वह सामान्यतया कामचलाऊ-से समझौते कर लेता है और अनिश्चित जीवन बिताता है।
परन्तु जब तक उसकी बहुपक्षीय सम्भावनाओं में एक पूर्ण समस्वरता, एक सांग सन्तुलन न हो जाए, तब तक वह पूरी तरह अपना स्वामी नहीं है। जब तक वह लालसाओं का वशवर्ती है, जैसे कि अर्जुन था, तब तक समेकन की प्रक्रिया कभी पूरी नहीं हो सकती। एक बढ़ते हुए व्यक्तित्व के लिए अविराम देख-रेख और संभाल की आवश्यकता है। संकल्प की शुद्धता के विकास द्वारा सांसारिक वस्तुओं के प्रति वासनाएं मर जाती है और मन में एक ऐसी शान्ति उत्पन्न हो जाती है; जिससे एक आन्तरिक निःशब्दता पैदा होती है, जिसमें आत्मा उस सनातन के साथ अपना सम्पर्क स्थापित करने लगती है, जिससे वह पृथक् हो गई है और अन्तर्वासी परमात्मा को उपस्थिति का अनुभव करने लगती है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. “आकर्षण, मुग्धता, अपने-आप को खो बैठना, अध्किार करना और इसी प्रकार अन्य भावनाएं अचेतन तत्वों द्वारा चेतना के विषंग (संग से पृथक् करना), नियन्त्रण और दमन के तत्व हैं।”—जुंगः इण्टैग्रेशन ऑफ़ पर्सनैलिटी, अंग्रेज़ी अनुवाद (1940), पृ. 12

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