"भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 58" के अवतरणों में अंतर

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केवल तभी कर्म स्वतन्त्र, सरल और स्वतः प्रवृत्त हो सकेगा। परमात्मा के संसार में हम परमात्मा की इच्छा के अनुकूल  केवल तभी जी सकते हैं, जब कि हम अद्वितीयता की बहुमूल्य अपार्थिव ज्योति को जगाए रखें। अपने-आप को भगवान् के हाथों में छोड़कर अपने-आप को उसके उपयोग के लिए पूर्ण साधन बनाकर हम उच्चतम आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर लेते है।<br />
 
केवल तभी कर्म स्वतन्त्र, सरल और स्वतः प्रवृत्त हो सकेगा। परमात्मा के संसार में हम परमात्मा की इच्छा के अनुकूल  केवल तभी जी सकते हैं, जब कि हम अद्वितीयता की बहुमूल्य अपार्थिव ज्योति को जगाए रखें। अपने-आप को भगवान् के हाथों में छोड़कर अपने-आप को उसके उपयोग के लिए पूर्ण साधन बनाकर हम उच्चतम आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर लेते है।<br />
 
कर्मयोग गीता के अनुसार जीवन के लक्ष्य तक पहुँचने की एक वैकल्पिक पद्धति है और इसका अन्त ज्ञान में होता है।<ref>4, 33</ref> इस अर्थ में शंकर का यह मत शंकराचार्य का कथन है कि बड़े-बड़े सन्त शान्ति में जीते हैं। वसन्त ऋतु की भाँति वे संसार को कल्याण प्रदान करते हैं। अपने-आप संसार के विशाल समुद्र को पार कर चुकने के कारण वे अन्य लोगों को उसे पार करने में समर्थ बनाते हैं और ऐसा करने में उनका कोई प्रयोजन नहीं होता।
 
कर्मयोग गीता के अनुसार जीवन के लक्ष्य तक पहुँचने की एक वैकल्पिक पद्धति है और इसका अन्त ज्ञान में होता है।<ref>4, 33</ref> इस अर्थ में शंकर का यह मत शंकराचार्य का कथन है कि बड़े-बड़े सन्त शान्ति में जीते हैं। वसन्त ऋतु की भाँति वे संसार को कल्याण प्रदान करते हैं। अपने-आप संसार के विशाल समुद्र को पार कर चुकने के कारण वे अन्य लोगों को उसे पार करने में समर्थ बनाते हैं और ऐसा करने में उनका कोई प्रयोजन नहीं होता।
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शान्ता महान्तो निवसन्ति सन्ताः वसन्तवल्लोकहितं चरन्तः।
 
शान्ता महान्तो निवसन्ति सन्ताः वसन्तवल्लोकहितं चरन्तः।
तीर्णाः स्वयं भीमभवार्णवं जनानहेतुनान्यानपि तारयन्तः।।
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तीर्णाः स्वयं भीमभवार्णवं जनानहेतुनान्यानपि तारयन्तः।।</poem>
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ठीक है कि कर्म और भक्ति आध्यात्मिक स्वतन्त्रता के साधन हैं। परन्तु आध्यात्मिक स्वतन्त्रता सक्रियता के साथ असंगत नहीं है। कर्तव्य के रूप में कार्य समाप्त हो जाता है, परन्तु सारी गतिविधि समाप्त नहीं हो जाती। मुक्त व्यक्तियों की गतिविधि स्वतन्त्र और स्वतःस्फूर्त होती है और परवशतात्मक नहीं होती। भले ही उन्हें ज्ञान प्राप्त हो चुका है, फिर भी वे संसार के कल्याण के लिए कार्य करते हैं।<ref>भगवद्गीता पर शंकराचार्य की टीका, 3,20 </ref>
 
ठीक है कि कर्म और भक्ति आध्यात्मिक स्वतन्त्रता के साधन हैं। परन्तु आध्यात्मिक स्वतन्त्रता सक्रियता के साथ असंगत नहीं है। कर्तव्य के रूप में कार्य समाप्त हो जाता है, परन्तु सारी गतिविधि समाप्त नहीं हो जाती। मुक्त व्यक्तियों की गतिविधि स्वतन्त्र और स्वतःस्फूर्त होती है और परवशतात्मक नहीं होती। भले ही उन्हें ज्ञान प्राप्त हो चुका है, फिर भी वे संसार के कल्याण के लिए कार्य करते हैं।<ref>भगवद्गीता पर शंकराचार्य की टीका, 3,20 </ref>
  
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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१०:५८, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण

12.कर्ममार्ग

फिर भी वे शरीर के लिए नहीं नहीं जीतीं। उनका अस्तित्व पृथ्वी पर होता है, परन्तु उनकी नागरिकता स्वर्ग की ही होती है। “जिस प्रकार अपण्डित व्यक्ति अपने कार्य के प्रति अनुराग होने के कारण कर्म करता है, उसी प्रकार पण्डित व्यक्ति को भी केवल लोक-संग्रह करने की इच्छा से आसक्ति के बिना कर्म करना चाहिए।”[१]जहां बौद्ध आदर्श चिन्तन के जीवन को ऊँचा बताता है, वहां गीता उस सब आत्माओं को अपनी ओर आकृष्ट करती है, जिसमें कर्म और अभियान की लालसा है। कर्म आत्मपूर्णता के लिए किया जाता है। हमें अपने उच्चतम और अन्तर्तम अस्तित्व के सत्य को खोज निकालना होगा और उसके अनुसार जीना होगा और अन्य किसी बाह्म प्रमाप का अनुगमन नहीं करना होगा। हमारा स्वधर्म बाह्म जीवन और हमारा स्वभाव, आन्तरिक अस्तित्व, एक’-दूसरे के अनुकूल होना चाहिए।
केवल तभी कर्म स्वतन्त्र, सरल और स्वतः प्रवृत्त हो सकेगा। परमात्मा के संसार में हम परमात्मा की इच्छा के अनुकूल केवल तभी जी सकते हैं, जब कि हम अद्वितीयता की बहुमूल्य अपार्थिव ज्योति को जगाए रखें। अपने-आप को भगवान् के हाथों में छोड़कर अपने-आप को उसके उपयोग के लिए पूर्ण साधन बनाकर हम उच्चतम आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर लेते है।
कर्मयोग गीता के अनुसार जीवन के लक्ष्य तक पहुँचने की एक वैकल्पिक पद्धति है और इसका अन्त ज्ञान में होता है।[२] इस अर्थ में शंकर का यह मत शंकराचार्य का कथन है कि बड़े-बड़े सन्त शान्ति में जीते हैं। वसन्त ऋतु की भाँति वे संसार को कल्याण प्रदान करते हैं। अपने-आप संसार के विशाल समुद्र को पार कर चुकने के कारण वे अन्य लोगों को उसे पार करने में समर्थ बनाते हैं और ऐसा करने में उनका कोई प्रयोजन नहीं होता।

शान्ता महान्तो निवसन्ति सन्ताः वसन्तवल्लोकहितं चरन्तः।
तीर्णाः स्वयं भीमभवार्णवं जनानहेतुनान्यानपि तारयन्तः।।

ठीक है कि कर्म और भक्ति आध्यात्मिक स्वतन्त्रता के साधन हैं। परन्तु आध्यात्मिक स्वतन्त्रता सक्रियता के साथ असंगत नहीं है। कर्तव्य के रूप में कार्य समाप्त हो जाता है, परन्तु सारी गतिविधि समाप्त नहीं हो जाती। मुक्त व्यक्तियों की गतिविधि स्वतन्त्र और स्वतःस्फूर्त होती है और परवशतात्मक नहीं होती। भले ही उन्हें ज्ञान प्राप्त हो चुका है, फिर भी वे संसार के कल्याण के लिए कार्य करते हैं।[३]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 3, 25
  2. 4, 33
  3. भगवद्गीता पर शंकराचार्य की टीका, 3,20

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