भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-29

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०५:३५, ९ अगस्त २०१५ का अवतरण ('<h4 style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक

1. बद्धो मुक्त इति व्याख्या गुणतो मे न वस्तुतः।
गुणस्य मायामूलत्वात् न मे मोक्षो न बंधनम्।।
अर्थः
‘बद्ध-मुक्त’ यह भाषा गुणों के कारण है। मुझे वह वस्तुतः लागू नहीं। गुण मायामूलक होने से न मुझे मोक्ष है और न बंधन ही।
 
2. शोकमोहो सुखं दुःखं देहोत्पत्तिश्च मायया।
स्वप्नो यथाऽऽत्मनः ख्यातिः संसृतिर् न तु वास्तवी।।
अर्थः
शोक-मोह, सुख-दुःख और देह की उत्पत्ति, ये माया के कारण भासते हैं। जैसे स्वप्न वैसे ही यह संसृति यानी अपनी केवल कल्पना है, वास्तविक नहीं।
 
3. विद्याविद्ये मम तनू विद्ध्युद्धव! शरीरिणाम्।
मोक्षबंधकरी आद्ये मायया मे विनिर्मिते।।
अर्थः
उद्धव! मेरी माया से निर्मित विद्या और अविद्या मेरे दो अनादि रूप हैं। वे देहधारियों को क्रमशः मोक्ष और बंध देनेवाली हैं, यह जानो।
 
4. ऐकस्यैव ममांशस्य जीवस्यैव महामते।
बंधोऽस्याविद्ययानादिर् विद्यया च तथेतरः।।
अर्थः

बुद्धिमान उद्धव! मेरे ही एक अंशमात्र जीव को ही अविद्या के कारण अनादि बंध होता है और विद्या से मोक्ष मिलता है।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-