"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 142 श्लोक 23-33" के अवतरणों में अंतर

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द्विचत्वारिंशदधिकशततम (142) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: द्विचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 23-33 का हिन्दी अनुवाद

दोनों प्रकार के ही ऋषियों का यह महान कर्तव्य है कि वे प्रतिदिन तीनों समय जल में स्नान करें और अग्नि में आहुति डालें। समाधि लगावें, सन्मार्ग पर चलें और शास्त्रोक्त कर्मों का अनुष्ठान करें। पहले जो तुम्हारे समक्ष वनवासियों के धर्म बताये गये हैं, उन सबका यदि वे पालन करते हैं तो उन्हें अपनी तपस्या का पूर्ण फल मिलता है। जो गृहस्थ दाम्पत्य धर्म का पालन करते हुए स्त्री को अपने साथ रखते हैं, उसके साथ ही इन्द्रियसंयमपूर्वक वेदविहित धर्म का आचरण करते हैं और केवल ऋतुकाल में ही स्त्री-समागम करते हैं, उन धर्मात्माओं को ऋषियों के बताये हुए धर्मों के पालन करने का फल मिलता है। धर्मदर्शी पुरूषों को कामनावश किसी भोग का सेवन नहीं करना चाहिये। जो हिंसादोष से मुक्त होकर सम्पूर्ण प्राणियों को अभयदान कर देता है, उसी को धर्म का फल प्राप्त होता है। जो सम्पूर्ण प्राणियेां पर दया करता है, सबके साथ सरलता का बर्ताव करता और समस्त भूतों को आत्मभाव से देखता है, वही धर्म के फल से युक्त होता है। चारों वेदों में निष्णात होना और सब जीवों के प्रति सरलता का बर्ताव करना- ये दोनों एक समान समझे जाते हैं अथवा सरलता का ही महत्व अधिक माना जाता है। सरलता को धर्म कहते हैं और कुटिलता को अधर्म। सरलभाव से युक्त मनुष्य ही यहाँ धर्म के फल का भागी होता है। जो सदा सरल बर्ताव में तत्पर रहता है, वह देवताओं के समीप निवास करता है। इसलिये जो अपने धर्म का फल पाना चाहता हो, उसे सरलतापूर्ण बर्ताव से युक्त होना चाहिये। क्षमाशील, जितेन्द्रिय, क्रोधविजयी, धर्मनिष्ठ, अहिंसक और सदा धर्मपरायण मनुष्य ही धर्म के फल का भागी होता है। जो पुरूष आलस्यरहित, धर्मात्मा, शक्ति के अनुसार श्रेष्ठ मार्ग पर चलने वाला, सच्चरित्र और ज्ञानी होता है, वह ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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