महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 142 श्लोक 35-52

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
The printable version is no longer supported and may have rendering errors. Please update your browser bookmarks and please use the default browser print function instead.

द्विचत्वारिंशदधिकशततम (142) अध्याय :अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: द्विचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 35-52 का हिन्दी अनुवाद

भगवन्! जो राजा या राजकुमार हैं अथवा जो निर्धन या महाधनी हैं, वे किस कर्म के प्रभाव से महान फल के भागी होते हैं? देव! वनवासी मुनि किस कर्म से दिव्य स्थान को पाकर दिव्य चन्दन से विभूषित होते हैं? देव! त्रिपुरनाशन त्रिलोचन! तपस्या के आश्रित शुभ फल के विषय में मेरा यही संदेह है। इस सारे संदेह का उत्तर आप पूर्णरूप से प्रदान करें। श्रीमहेश्वर ने कहा- जो उपवास व्रत से सम्पन्न, जितेन्द्रिय, हिंसारहित और सत्यवादी होकर सिद्धि को प्राप्त हो चुके हैं, वे मृत्यु के पश्चात् रोग-शोक से रहित हो गन्धर्वो के साथ रहकर आनन्द भोगते हैं। जो धर्मात्मा पुरूष न्यायानुसार विधिपूर्वक हठयोग प्रसिद्ध मण्डूकयोग के अनुसार शयन करता और यज्ञ की दीक्षा लेता है, वह नागलोक में नागों के साथ सुख भोगता है। जो मृगचर्या-व्रत की दीक्षा ले मृगों के मुख से उच्छिष्ट हुई घास को प्रसन्नतापूर्वक उन्हीं के साथ रहकर भक्षण करता है, वह मृत्यु के पश्चात् अमरावतीपुरी में जाता है। जो व्रतधारी वानप्रस्थ मुनि सेवार अथवा जीर्ण-शीर्ण पत्ते का आहार करता तथा जाडे़ में प्रतिदिन शीत का कष्ट सहन करता है, वह परमगति को प्राप्त होता है। जो वायु, जल, फल अथवा मूल खाकर रहता है, वह यक्षों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करके अप्सराओं के साथ आनन्द भोगता है। जो गर्मी में शास्त्रोक्त विधि के अनुसार पंचाग्नि सेवन करता है, वह बारह वर्षों तक उक्त व्रत का पालन करके जन्मान्तर में भूमण्डल का राजा होता है। जो मुनि बारह वर्षों तक आहार का संयम करता हुआ यत्नपूर्वक मरू-साधना करके अर्थात् जल को भी त्याग कर तप करता है, वह भी इस पृथ्वी का राजा होता है। जो वानप्रस्थ अपने चारों ओर विशुद्ध आकाश को ग्रहण करता हुआ खुले मैदान में वेदी पर सोता और बारह वर्षों के लिये प्रसन्नतापूर्वक व्रत की दीक्षा ले उपवास करके अपना शरीर त्याग देता है, वह स्वर्गलोग में सुख भोगता है। भामिनि! वेदी पर शन करने से प्राप्त होने वाले फल इस प्रकार बताये गये हैं- सवारी, शय्या और चन्द्रमा के समान उज्ज्वल बहुमूल्य गृह। जो केवल अपने ही सहारे जीवन-यापन करता हुआ नियमपूर्वक रहता है और नियमित भोजन करता है अथवा अनशन व्रत का आश्रय ले शरीर को त्याग देता है, वह स्वर्ग का सुख भोगता है। जो अपने ही सहारे जीवन-यापन करता हुआ बारह वर्षों की दीक्षा ले महासागर में अपने शरीर का तयाग कर देता है, वह वरूणलोक में सुख भोगता है। जो अपने ही सहारे जीवन-यापन करता हुआ निर्द्वन्द्व और परिग्रहशून्य हो बारह वर्षों के लिये व्रत की दीक्षा ले अन्त में पत्थर से अपने पैरों को विदीर्ण करके स्वयं ही अपने शरीर को त्याग देता है, वह गुह्यकलोक में आनन्द भोगता है। जो बारह वर्षों तक इस मनोगत दीक्षा का पालन करता है, वह स्वर्गलोक में जाता और देवताओं के साथ आनन्द भोगता है। जो बारह वर्षों के लिये व्रत-पालन की दीक्षा ले अपने ही सहारे जीवन-यापन करता हुआ अपने शरीर को अग्नि में होम देता है, वह अग्निलोक में प्रतिष्ठित होता है।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।