महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 142 श्लोक 8-22

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द्विचत्वारिंशदधिकशततम (142) अध्याय :अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: द्विचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 8-22 का हिन्दी अनुवाद

उन्हें योग का अभ्यास करके उसमें सिद्धि प्राप्त करनी चाहिये। काम और क्रोध को त्याग देना चाहिये। वीरासन से बैठकर वीरस्थान (विशाल और घने जंगल) में निवास करने चाहिये। मन को एकाग्र रखकर योगसाधन में तत्पर रहना चाहिये। श्रेष्ठ वानप्रस्थ को गर्मी में पंचाग्नि सेवन करना चाहिये। हठयोगशास्त्र में प्रसिद्ध मण्डूकयोग के अभ्यास में नियमपूर्वक लगे रहना चाहिये। किसी भी वस्तु का न्यायानुकूल सेवन करना चाहिये।सदा वीरासन से बैठना और वेदी या चबूतरे पर सोना चाहिये। धर्म में बुद्धि रखने वाले वानस्थ मुनियां कोशीततोयाग्नियोग का आचरण करना चाहिये अर्थात् उन्हें सर्दी के मौसम में रात को जल के भीतर बैठना या खडे़ रहना, बरसात में खुले मैदान में सोना और ग्रीष्म-ऋतु में पंचाग्नि का सेवन करना चाहिये। वे वायु अथवा जल पीकर रहें। सेवार का भोजन करें। पत्थर से अन्न या फल को कूँचकर खायँ अथवा दाँतों से चबाकर ही भक्षण करें। सम्प्रक्षाल के नियम से रहें अर्थात् दूसरे दिन के लिये आहार संग्रह करके न रखें। अधोवस्त्र की जगह चीर और वल्कल पहनें, उत्तरीय के स्थान में मृगछाले से ही अपने अंगों को आच्छादित करें। उन्हें समय के अनुसार धर्म के उद्देश्य से विधिपूर्वक तीर्थ आदि स्थानों की ही यात्रा करनी चाहियं। वानप्रस्थ को सदा वन में ही रहना, वन में ही विचरना, वन में ही ठहरना, वन के ही मार्ग पर चलना और गुरू की भाँति वन की शरण लेकर वन में ही जीवन निर्वाह करना चाहिये। प्रतिदिन अग्निहोत्र और पंचमहायज्ञों का सेवन वानप्रस्थों का धर्म है। उन्हें विभागपूर्वक वेदोक्त पंच यज्ञों का निरन्तर पालन करना चाहिये। अष्टमी तिथि को होने वाले अष्ट का श्राद्धरूप यज्ञ में तत्पर रहना, चातुर्मास्य व्रत का सेवन करना, पौर्णमास और दर्शादि यज्ञ तथा नित्य यज्ञ का अनुष्ठान करना वानप्रस्थ मुनि का धर्म है। वानप्रस्थ मुनि स्त्री-समागम, सब प्रकार के संकर तथा सम्पूर्ण पापों से दूर रहकर वन में विचरते रहते हैं। स्त्रुक्-सुवा आदि यज्ञपात्र ही उनके लिये उत्तम उपकरण हैं। वे सदा आलवनीय आदि त्रिविध अग्नियों की शरण लेकर सदा उन्हीं की परिचर्या में लगे रहते हैं और नित्य सन्मार्ग पर चलते हैं। इस प्रकार अपने धर्म में तत्पर रहने वाले वे श्रेष्ठ पुरूष परमगति को प्राप्त होते हैं। वे मुनि सत्यधर्म का आश्रय लेने वाले और सिद्ध होते हैं, अतः महान् पुण्यमय ब्रह्मलोक तथा सनातन सोमलोक में जाते हैं। देवि! यह मैंने तुम्हारे निकट विस्तारयुक्त एवं मंगलमय वानप्रस्थधर्म का स्थूलभाव से वर्णन किया है। उमादेवी बोलीं- भगवन्! सर्वभूतेश्वर! समस्त प्राणियों द्वारा वन्दित महेश्वर! ज्ञानगोष्ठियों में मुनि समुदाय का जो धर्म निश्चित किया गया है, उसे बताइये। ज्ञानगोष्ठियों में जो सम्यक सिद्ध बताये गये हैं, वे वनवासी मुनि कोई तो एकाकी ही स्वच्छन्द विचरते हैं, कोई पत्नी के साथ रहते हैं। उनका धर्म कैसा माना गया है? श्री महेश्वर ने कहा- देवि! सभी वानप्रस्थ तपस्या में संलग्न रहते हैं, उनमें से कुछ तो स्वच्छन्द विचरने वाले होते हैं। (स्त्री को साथ नहीं रखते) और कुछ अपनी-अपनी स्त्री के साथ रहते हैं। स्वच्छन्द विचरने वाले मुनि सिर मुड़ाकर गेरूए वस्त्र पहनते हैं, (उनका कोई एक स्थान नहीं होता) किंतु जो स्त्री के साथ रहते हैं, वे रात्रि को अपने आश्रम में ही ठहरते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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