महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 144 श्लोक 61-64
Bharatkhoj (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित ११:२५, १९ जुलाई २०१५ का अवतरण (Text replace - "{{महाभारत}}" to "{{सम्पूर्ण महाभारत}}")
पन्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासनपर: पन्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 61-64 का हिन्दी अनुवाद
श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! शास्त्र लोकधर्मों की उन मर्यादाओं को स्थापित करते हैं, जो सबके हित के लिये निर्मित हुई हैं। जो उन शास्त्रों को प्रमाण मानते हैं, वे दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रत का पालन करते देखे जाते हैं। जो मोह के वशीभूत होकर अधर्म को धर्म कहते हैं, वे व्रतहीन मर्यादा को नष्ट करने वाले पुरूष ब्रह्मराक्षस कहे गये हैं। वे मनुष्य यदि कालयोग से इस संसार में मनुष्य होकर जन्म लेते हैं तो होम और वषट्कार से रहित तथा नराधम होते हैं। देवि! यह धर्म का समुद्र, धर्मात्माओं के लिये प्रिय और पापात्माओं के लिये अप्रिय है। मैंने तुम्हारे संदेह का निवारण करने के लिये यह सब विस्तारपूर्वक बताया है।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।