"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-39" के अवतरणों में अंतर

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<h4 style="text-align:center;">शुभाशुभ मानस आदि तीन प्रकार के कर्मो कास्वरुप और उनके फल का एवं मद्द्सेवन के दोषों कावर्णन,आहार-शुद्धि,मांसभक्षण से दोष,मांस न खानेसे लाभ,जीवदया के महत्व,गुरुपूजा कीविधि,उपवास-विधि,ब्र्हमचर्यपालन,तीर्थचर्चा,सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य,अन्न,सुवर्ण, गौभुमि, कन्या और विद्यादान का माहात्म्य , पुण्यतम देशकाल, दिये हुये दान और धर्म की निष्फलता, विविध प्रकार के दान, लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताऔं की पूजा का निरुपण </h4>
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासन पर्व: पन्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-39 का हिन्दी अनुवाद</div>
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासन पर्व: पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-39 का हिन्दी अनुवाद</div>
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'''शुभाशुभ मानस आदि तीन प्रकार के कर्मो कास्वरुप और उनके फल का एवं मद्द्सेवन के दोषों कावर्णन,आहार-शुद्धि,मांसभक्षण से दोष,मांस न खानेसे लाभ,जीवदया के महत्व,गुरुपूजा कीविधि,उपवास-विधि,ब्र्हमचर्यपालन,तीर्थचर्चा,सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य,अन्न,सुवर्ण, गौभुमि, कन्या और विद्यादान का माहात्म्य , पुण्यतम देशकाल, दिये हुये दान और धर्म की निष्फलता, विविध प्रकार के दान, लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताऔं की पूजा का निरुपण'''
  
 
यज्ञ, दान, वेदाध्ययन तथा दक्षिणा सहित अनेकानेक क्रतु- ये सब मिलकर मांस-भक्षण के परित्याग की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं होते। जो स्वाद की इच्छा से अपने लिये दूसरे के प्राणों की हिंसा करता है, वह बाघ्ज्ञ, गीध, सियार और राक्षसों के समान है। जो पराये मांस से अपने मांस को बढ़ाना चाहता है, वह जहाँ-कहीं भी जन्म लेता है वहीं उद्वेग में पड़ा रहता है। जैसे अपने मांस को काटना अपने लिये पीड़ाजनक होता है, उसी तरह दूसरे का मांस काटने पर उसे भी पीड़ा होती है। यह प्रत्येक विज्ञ पुरूष को समझना चाहिये। जो जीवनभर सब प्रकार के मांस त्याग देता है- कभी मांस नहीं खाता है, वह स्वर्ग में विशाल स्थान पाता है, इसमें संशय नहीं है। मनुष्य जो पूरे सौ वर्षों तक उत्कृष्ट तपस्या करता है और जो वह सदा के लिये मांस का परित्याग कर देता है- उसके ये दोनों कर्म समान हैं। अथवा समान नहीं भी हो सकते हैं। (मांस का त्याग तपस्या से भी उत्कृष्ट है)। संसार में प्राणों के समान प्रियतम दूसरी कोई वस्तु नहीं है। अतः समस्त प्राणियों पर दया करनी चाहिये। जैसे अपने ऊपर दया अभीष्ट होती है, वैसे ही दूसरों पर भी होनी चाहिये।। इस प्रकार मुनियों ने मांस न खाने में गुण बताये हैं। उमा ने पूछा- देव! धर्मचारी मनुष्य गुरूजनों की पूजा कैसे करते हैं? श्रीमहेश्वर ने कहा- शोभने! अब मैं तुम्हें यथावत् रूप से गुरूजनों की पूजा की विधि बता रहा हूँ। वेद की यह आज्ञा है कि कृतज्ञ पुरूषों के लिये गुरूजनों की पूजा परम धर्म है। अतः सबको अपने-अपने गुरूजनों का पूजन करना चाहिये, क्योंकि वे गुरूजन संतान और शिष्य पर पहले उपकार करने वाले हैं। गुरूजनों में उपाध्याय (अध्यापक) पिता और माता- ये तीन अधिक गौरवशाली हैं। इनकी तीनों लोकों में पूजा होती है, अतः इन सबका विशेषरूप से आदर-सत्कार करना चाहिये।। जो पिता के बड़े तथा छोटे भाई हों, वे तथा पिता के भी पिता- ये सब के सब पिता के ही तुल्य पूजनीय हैं। माता की जो जेठी बहन तथा छोटी बहन हैं, वे और नानी एवं धाय-इन सबको माता के ही तुल्य माना गया है। उपाध्याय का जो पुत्र है वह गुरू है, उसका जो गुरू है वह भी अपना गुरू है, ऋत्विक् गुरू है और पिता भी गुरू है- ये सब के सब गुरू कहे गये हैं। बड़ा भाई, राजा, मामा, श्वशुर, भय से रक्षा करने वाला तथा भर्ता (स्वामी)- ये सब गुरू कहे गये हैं। पतिव्रते! यह गुरू-कोटि में जिनकी गणना है, उन सबका संग्रह करके यहाँ बताया गया है। अब उनकी अनुवृत्ति और पूजा की भी बात सुनो। अपना हित चाहने वाले पुरूष को माता, पिता और उपाध्याय- इन तीनों की आराधना करनी चाहिये। किसी तरह भी इनका अपमान नहीं करना चाहिये। इससे पितर प्रसन्न् होते हैं। प्रजापति को प्रसन्नता होती है। जिस आराधना के द्वारा वह माता को प्रसन्न करता है, उससे देवमाताएँ प्रसन्न् होती हैं। जिससे वह उपाध्याय को संतुष्ट करता है, उससे ब्रह्माजी पूजित होते हैं। यदि मनुष्य आराधना द्वारा इन सबको संतुष्ट न करे तो वह नरक में जाता है। गुरूजनों के साथ कभी वैर नहीं बाँधना चाहिये।
 
यज्ञ, दान, वेदाध्ययन तथा दक्षिणा सहित अनेकानेक क्रतु- ये सब मिलकर मांस-भक्षण के परित्याग की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं होते। जो स्वाद की इच्छा से अपने लिये दूसरे के प्राणों की हिंसा करता है, वह बाघ्ज्ञ, गीध, सियार और राक्षसों के समान है। जो पराये मांस से अपने मांस को बढ़ाना चाहता है, वह जहाँ-कहीं भी जन्म लेता है वहीं उद्वेग में पड़ा रहता है। जैसे अपने मांस को काटना अपने लिये पीड़ाजनक होता है, उसी तरह दूसरे का मांस काटने पर उसे भी पीड़ा होती है। यह प्रत्येक विज्ञ पुरूष को समझना चाहिये। जो जीवनभर सब प्रकार के मांस त्याग देता है- कभी मांस नहीं खाता है, वह स्वर्ग में विशाल स्थान पाता है, इसमें संशय नहीं है। मनुष्य जो पूरे सौ वर्षों तक उत्कृष्ट तपस्या करता है और जो वह सदा के लिये मांस का परित्याग कर देता है- उसके ये दोनों कर्म समान हैं। अथवा समान नहीं भी हो सकते हैं। (मांस का त्याग तपस्या से भी उत्कृष्ट है)। संसार में प्राणों के समान प्रियतम दूसरी कोई वस्तु नहीं है। अतः समस्त प्राणियों पर दया करनी चाहिये। जैसे अपने ऊपर दया अभीष्ट होती है, वैसे ही दूसरों पर भी होनी चाहिये।। इस प्रकार मुनियों ने मांस न खाने में गुण बताये हैं। उमा ने पूछा- देव! धर्मचारी मनुष्य गुरूजनों की पूजा कैसे करते हैं? श्रीमहेश्वर ने कहा- शोभने! अब मैं तुम्हें यथावत् रूप से गुरूजनों की पूजा की विधि बता रहा हूँ। वेद की यह आज्ञा है कि कृतज्ञ पुरूषों के लिये गुरूजनों की पूजा परम धर्म है। अतः सबको अपने-अपने गुरूजनों का पूजन करना चाहिये, क्योंकि वे गुरूजन संतान और शिष्य पर पहले उपकार करने वाले हैं। गुरूजनों में उपाध्याय (अध्यापक) पिता और माता- ये तीन अधिक गौरवशाली हैं। इनकी तीनों लोकों में पूजा होती है, अतः इन सबका विशेषरूप से आदर-सत्कार करना चाहिये।। जो पिता के बड़े तथा छोटे भाई हों, वे तथा पिता के भी पिता- ये सब के सब पिता के ही तुल्य पूजनीय हैं। माता की जो जेठी बहन तथा छोटी बहन हैं, वे और नानी एवं धाय-इन सबको माता के ही तुल्य माना गया है। उपाध्याय का जो पुत्र है वह गुरू है, उसका जो गुरू है वह भी अपना गुरू है, ऋत्विक् गुरू है और पिता भी गुरू है- ये सब के सब गुरू कहे गये हैं। बड़ा भाई, राजा, मामा, श्वशुर, भय से रक्षा करने वाला तथा भर्ता (स्वामी)- ये सब गुरू कहे गये हैं। पतिव्रते! यह गुरू-कोटि में जिनकी गणना है, उन सबका संग्रह करके यहाँ बताया गया है। अब उनकी अनुवृत्ति और पूजा की भी बात सुनो। अपना हित चाहने वाले पुरूष को माता, पिता और उपाध्याय- इन तीनों की आराधना करनी चाहिये। किसी तरह भी इनका अपमान नहीं करना चाहिये। इससे पितर प्रसन्न् होते हैं। प्रजापति को प्रसन्नता होती है। जिस आराधना के द्वारा वह माता को प्रसन्न करता है, उससे देवमाताएँ प्रसन्न् होती हैं। जिससे वह उपाध्याय को संतुष्ट करता है, उससे ब्रह्माजी पूजित होते हैं। यदि मनुष्य आराधना द्वारा इन सबको संतुष्ट न करे तो वह नरक में जाता है। गुरूजनों के साथ कभी वैर नहीं बाँधना चाहिये।
  
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==

०७:३१, २७ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-39 का हिन्दी अनुवाद

शुभाशुभ मानस आदि तीन प्रकार के कर्मो कास्वरुप और उनके फल का एवं मद्द्सेवन के दोषों कावर्णन,आहार-शुद्धि,मांसभक्षण से दोष,मांस न खानेसे लाभ,जीवदया के महत्व,गुरुपूजा कीविधि,उपवास-विधि,ब्र्हमचर्यपालन,तीर्थचर्चा,सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य,अन्न,सुवर्ण, गौभुमि, कन्या और विद्यादान का माहात्म्य , पुण्यतम देशकाल, दिये हुये दान और धर्म की निष्फलता, विविध प्रकार के दान, लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताऔं की पूजा का निरुपण

यज्ञ, दान, वेदाध्ययन तथा दक्षिणा सहित अनेकानेक क्रतु- ये सब मिलकर मांस-भक्षण के परित्याग की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं होते। जो स्वाद की इच्छा से अपने लिये दूसरे के प्राणों की हिंसा करता है, वह बाघ्ज्ञ, गीध, सियार और राक्षसों के समान है। जो पराये मांस से अपने मांस को बढ़ाना चाहता है, वह जहाँ-कहीं भी जन्म लेता है वहीं उद्वेग में पड़ा रहता है। जैसे अपने मांस को काटना अपने लिये पीड़ाजनक होता है, उसी तरह दूसरे का मांस काटने पर उसे भी पीड़ा होती है। यह प्रत्येक विज्ञ पुरूष को समझना चाहिये। जो जीवनभर सब प्रकार के मांस त्याग देता है- कभी मांस नहीं खाता है, वह स्वर्ग में विशाल स्थान पाता है, इसमें संशय नहीं है। मनुष्य जो पूरे सौ वर्षों तक उत्कृष्ट तपस्या करता है और जो वह सदा के लिये मांस का परित्याग कर देता है- उसके ये दोनों कर्म समान हैं। अथवा समान नहीं भी हो सकते हैं। (मांस का त्याग तपस्या से भी उत्कृष्ट है)। संसार में प्राणों के समान प्रियतम दूसरी कोई वस्तु नहीं है। अतः समस्त प्राणियों पर दया करनी चाहिये। जैसे अपने ऊपर दया अभीष्ट होती है, वैसे ही दूसरों पर भी होनी चाहिये।। इस प्रकार मुनियों ने मांस न खाने में गुण बताये हैं। उमा ने पूछा- देव! धर्मचारी मनुष्य गुरूजनों की पूजा कैसे करते हैं? श्रीमहेश्वर ने कहा- शोभने! अब मैं तुम्हें यथावत् रूप से गुरूजनों की पूजा की विधि बता रहा हूँ। वेद की यह आज्ञा है कि कृतज्ञ पुरूषों के लिये गुरूजनों की पूजा परम धर्म है। अतः सबको अपने-अपने गुरूजनों का पूजन करना चाहिये, क्योंकि वे गुरूजन संतान और शिष्य पर पहले उपकार करने वाले हैं। गुरूजनों में उपाध्याय (अध्यापक) पिता और माता- ये तीन अधिक गौरवशाली हैं। इनकी तीनों लोकों में पूजा होती है, अतः इन सबका विशेषरूप से आदर-सत्कार करना चाहिये।। जो पिता के बड़े तथा छोटे भाई हों, वे तथा पिता के भी पिता- ये सब के सब पिता के ही तुल्य पूजनीय हैं। माता की जो जेठी बहन तथा छोटी बहन हैं, वे और नानी एवं धाय-इन सबको माता के ही तुल्य माना गया है। उपाध्याय का जो पुत्र है वह गुरू है, उसका जो गुरू है वह भी अपना गुरू है, ऋत्विक् गुरू है और पिता भी गुरू है- ये सब के सब गुरू कहे गये हैं। बड़ा भाई, राजा, मामा, श्वशुर, भय से रक्षा करने वाला तथा भर्ता (स्वामी)- ये सब गुरू कहे गये हैं। पतिव्रते! यह गुरू-कोटि में जिनकी गणना है, उन सबका संग्रह करके यहाँ बताया गया है। अब उनकी अनुवृत्ति और पूजा की भी बात सुनो। अपना हित चाहने वाले पुरूष को माता, पिता और उपाध्याय- इन तीनों की आराधना करनी चाहिये। किसी तरह भी इनका अपमान नहीं करना चाहिये। इससे पितर प्रसन्न् होते हैं। प्रजापति को प्रसन्नता होती है। जिस आराधना के द्वारा वह माता को प्रसन्न करता है, उससे देवमाताएँ प्रसन्न् होती हैं। जिससे वह उपाध्याय को संतुष्ट करता है, उससे ब्रह्माजी पूजित होते हैं। यदि मनुष्य आराधना द्वारा इन सबको संतुष्ट न करे तो वह नरक में जाता है। गुरूजनों के साथ कभी वैर नहीं बाँधना चाहिये।


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