"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 16 श्लोक 1-20" के अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
('== सोलहवां अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)== <div style="text...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
 
(इसी सदस्य द्वारा किये गये बीच के ७ अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति १: पंक्ति १:
== सोलहवां अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)==
+
==षोडश (16) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)==
  
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासनपर्व: सोलहवां अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद </div>
+
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासन पर्व: षोडश अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद </div>
 
 
 
उपमन्यु-श्रीकृष्ण-संवाद-महात्मा तण्डिद्वारा की गयी महादेवजी की स्तुति, प्रार्थना और उसका फल
 
उपमन्यु-श्रीकृष्ण-संवाद-महात्मा तण्डिद्वारा की गयी महादेवजी की स्तुति, प्रार्थना और उसका फल
उपमन्यु कहते हैं-तात! सत्ययुग में तण्डि नाम से विख्यात एक ऋषि थे जिन्होंने भक्तिभाव से ध्यान के द्वारा दस हजार वर्षों तक महादेवजी की आराधना की थी। उन्हें जो फल प्राप्त हुआ था, उसे बता रहा हूं, सुनिये! उन्होंने महादेवजी का दर्शन किया और स्तोत्रों द्वारा उन प्रभु की स्तुति की। इस तरह तण्डिने तपस्यामें संलग्न होकर अविनाशि परमात्मा महामना शिवका चिन्तन करके अत्यन्त विस्मित हो इस प्रकार कहा था-’साख्यशास्त्र के विद्वान् पर, प्रधान, पुरूष, अधिष्ठाता और ईश्वर कहकर सदा जिनका गुणगान करते हैं, योगीजन जिनके चिन्तनमें लगे रहते हैं, विद्वान् पुरूष जिन्हें जगत् की उत्पति और विनाश का कारण समझते हैं, देवताओं, असुरों और मुनियों में भी जिनसे श्रेष्ठ दूसरा कोई नहीं है, उन अजन्मा, अनादि, अनन्त, अनघ और अत्यन्त सुखी, प्रभावशाली ईश्वर महादेवजी की मैं शरण लेता हूं’। इतना कहते ही तण्डिने उन तपोनिधि, अविकारी, अनुपम, अचिन्त्य, शाश्वत, धु्रव,निष्कल,सकल,निर्गुण एवं सगुण ब्रह्मा का दर्शन प्राप्त किया, जो योगियों के परमानन्द, अविनाशी एवं मोक्षस्वरूप हैं। वे ही मनु,इन्द्र,अग्नि,मरूद्गण,सम्पूर्ण विश्व तथा ब्रह्माजी की भी गति हैं। मन और इन्द्रियों के द्वारा उनका ग्रहण नहीं हो सकता। वे अग्राहय,अचल,शुद्ध,बुद्धि के द्वारा अनुभव करने योग्य तथा मनोमय हैं। उनका ज्ञान होन अत्यन्त कठिन है। वे अप्रमेय हैं। जिन्होंने अपने अन्तःकरण को पवित्र एवं वशीभूत नहीं किया है, उनके लिये वे सर्वथा दुर्लभ हैं। वे ही सम्पूर्ण जगत के कारण हैं। अज्ञानमय अन्धकार से अत्यन्त परे हैं। जो देवता अपने को प्राणवान-जीवस्वरूप बनाकर उसमें मनोमय ज्योति बनकर स्थित हुए थे, उन्हीं के दर्शन की अभिलाषासे तण्डि मुनि बहुत वर्षों तक उग्र तपस्या में लगे रहे। जब उनका दर्शन प्राप्त कर लिया तब उन मुनिश्वर ने जगदीश्वर शिव की इस प्रकार स्तुति की। तण्डिने कहा-सर्वश्रेष्ठ परमेश्वर! आप पवित्रों मे भी परम पवित्र तथा गतिशील प्राणियो की उत्तम गति हैं। तेजों में अत्यन्त उग्र तेज और तपस्याओं में उत्कृष्ट तप हैं। गन्धर्वराज विश्वावसु, दैत्यराज हिरण्याक्ष और देवराज इन्द्र भी आपकी वन्दना करते हैं। सबको महान् कल्याण प्रदान करने वाले प्रभो! आप परम सत्य हैं। आपको नमस्कार है। विभो! जो जन्म-मरण से भयभीत हो संसारबन्धन से मुक्त होने के लिये प्रयत्न करते हैं, उन यतियों को निर्वाण (मोक्ष) प्रदान करने वाले आप ही हैं। आप ही सहस्त्रों किरणोंवाले सूर्य होकर तप रहे हैं। सुखके आश्रयरूप महेश्वर! आपको नमस्कार है। ब्रहा,विष्णु,इन्द्र,विश्वदेव तथा महर्षि भी आपको यथार्थरूप से नहीं जानते है। फिर हम कैसे जान सकते हैं। आपसे ही सबकी उत्पत्ति होती है तथा आपमें ही यह सारा जगत प्रतिष्ठित है। काल,पुरूष और ब्रह्मा-इन तीन नामोंद्वारा आप ही प्रतिपादित होते हैं। पुराणवेत्ता देवर्षियों ने आपके ये तीन रूप बताये हैं। अधिपौरूष, अध्यात्म, अधिभूत, अधिदैवत, अधिलोक, अधिविज्ञान और अधियज्ञ आप ही हैं। आप देवताओंके लिये भी दुजेय हैं। विद्वान् पुरूष आपको अपने ही शरीर में स्थित अन्तर्यामी आत्मा के रूप मे जानकार संसार-बन्धन से मुक्त हो रोग-शोक से रहित परमभाव को प्राप्त होते हैं। प्रभो! यदि आप स्वयं ही कृपा करके जीवका उद्धार करना न चाहें तो उसके बारंबार जन्म और मृत्यु होते रहते हैं। आप ही स्वर्ग और मोक्ष के द्वार हैं। आप ही उनकी प्राप्ति में बाधा डालने वाले हैं तथा आप ही ये दोनों वस्तुएं प्रदान करते हैं। आप ही स्वर्ग और मोक्ष हैं। आप ही काम और क्रोध हैं तथा आप ही सत्व,रज,तम,अधोलोक और उर्ध्‍वलोक हैं। ब्रहा, विष्णु, शिव,स्कन्द,इन्द्र,सूर्य,यम,वरूण,चन्द्रमा,मनु,धाता,विधाता और धनाध्यक्ष कुबेर भी आप ही  हैं। पृथ्वी,वायु,जल,अग्नि,आकाश,वाणी,बुद्धि,स्थिति,मति,कर्म,सत्य,असत्यतथा अस्ति और नास्ति भी आप ही हैं।आप ही इन्द्रियां और इन्द्रियों के विषय हैं। आप ही प्रकृति से परे निश्‍चलएवं अविनाशी तत्व हैं। आप ही विष्व और अविश्व-दोनों से परे विलक्षण भाव हैं तथा आप ही चिन्त्य और अचिन्त्य हैं। जे यह परम ब्रह्माहै, जो वह परमपद है तथा जो सांख्यवेत्ताओं और योगियों की गति है, वह आप ही हैं-इसमें संशय नहीं है। ज्ञान से निर्मल बुद्धि वाले ज्ञानी पुरूष यहां जिस गति को प्राप्त करना चाहते हैं, सत्पुरूषों की उसी गति को निश्चित रूप से हम प्राप्त हो गये हैं; अतः आज हम निश्चय ही कृतार्थ हो गये। अहो, हम अज्ञानवश इतने दीर्घकाल तक मोह में पड़े रहे हैं, क्योंकि जिन्हें विद्वान पुरूष जानते हैं, उन्हीं सनातन परमदेव को हम अब तक नहीं जान सके थे। अब अनेक जन्मों के प्रयत्न से मैंने यह साक्षात आपकी भक्ति प्राप्त की है। आप ही भक्तों पर अनुग्रह करनेवाले महान देवता है, जिन्हें जानकर ज्ञानी पुरूष मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। जो सनातन ब्रह्मादेवताओं, असुरों और मुनियों के लिये भी ग्रहया है, जो हृदयगुहा में स्थित रहकर मननशील मुनि के लिये भी दुर्विज्ञेय बने हुए हैं, वही ये भगवान हैं। ये ही सबकी सृष्टि करनेवाले देवता हैं। इनके सब ओर मुख हैं। ये सर्वात्मा,सर्वदर्शी,सर्वव्यापी और सर्वज्ञ हैं। आप शरीर के निर्माता और शरीरधारी हैं, इसीलिये देही कहलाते हैं। दे हके भोक्ता और देहधारियों की परम गति हैं। आप ही प्राणों के उत्पादक,प्राणधारी,प्राणी, प्राणदाता तथा प्राणियों की गति हैं। ध्यान करने वाले प्रियभक्तों की जो अध्यात्मगति हैं तथा पुनर्जन्म की इच्छा न रखनेवाले आत्मज्ञानी पुरूषों की जो गति बतायी गयी हैं, वह ये ईश्वर ही हैं। ये ही समस्त प्राणियों को शुभ और अशुभ गति प्रदान करने वाले हैं। ये ही समस्त प्राणियोंको जन्म और मृत्यु प्रदान करते हैं।
+
उपमन्यु कहते हैं-तात! सत्ययुग में तण्डि नाम से विख्यात एक ऋषि थे जिन्होंने भक्तिभाव से ध्यान के द्वारा दस हजार वर्षों तक महादेवजी की आराधना की थी। उन्हें जो फल प्राप्त हुआ था, उसे बता रहा हूं, सुनिये! उन्होंने महादेवजी का दर्शन किया और स्तोत्रों द्वारा उन प्रभु की स्तुति की। इस तरह तण्डिने तपस्यामें संलग्न होकर अविनाशि परमात्मा महामना शिवका चिन्तन करके अत्यन्त विस्मित हो इस प्रकार कहा था-’साख्यशास्त्र के विद्वान् पर, प्रधान, पुरूष, अधिष्ठाता और ईश्वर कहकर सदा जिनका गुणगान करते हैं, योगीजन जिनके चिन्तनमें लगे रहते हैं, विद्वान् पुरूष जिन्हें जगत् की उत्पति और विनाश का कारण समझते हैं, देवताओं, असुरों और मुनियों में भी जिनसे श्रेष्ठ दूसरा कोई नहीं है, उन अजन्मा, अनादि, अनन्त, अनघ और अत्यन्त सुखी, प्रभावशाली ईश्वर महादेवजी की मैं शरण लेता हूं’। इतना कहते ही तण्डिने उन तपोनिधि, अविकारी, अनुपम, अचिन्त्य, शाश्वत, धु्रव,निष्कल,सकल,निर्गुण एवं सगुण ब्रह्मा का दर्शन प्राप्त किया, जो योगियों के परमानन्द, अविनाशी एवं मोक्षस्वरूप हैं। वे ही मनु,इन्द्र,अग्नि,मरूद्गण,सम्पूर्ण विश्व तथा ब्रह्माजी की भी गति हैं। मन और इन्द्रियों के द्वारा उनका ग्रहण नहीं हो सकता। वे अग्राहय,अचल,शुद्ध,बुद्धि के द्वारा अनुभव करने योग्य तथा मनोमय हैं। उनका ज्ञान होन अत्यन्त कठिन है। वे अप्रमेय हैं। जिन्होंने अपने अन्तःकरण को पवित्र एवं वशीभूत नहीं किया है, उनके लिये वे सर्वथा दुर्लभ हैं। वे ही सम्पूर्ण जगत के कारण हैं। अज्ञानमय अन्धकार से अत्यन्त परे हैं। जो देवता अपने को प्राणवान-जीवस्वरूप बनाकर उसमें मनोमय ज्योति बनकर स्थित हुए थे, उन्हीं के दर्शन की अभिलाषासे तण्डि मुनि बहुत वर्षों तक उग्र तपस्या में लगे रहे। जब उनका दर्शन प्राप्त कर लिया तब उन मुनिश्वर ने जगदीश्वर शिव की इस प्रकार स्तुति की। तण्डिने कहा-सर्वश्रेष्ठ परमेश्वर! आप पवित्रों मे भी परम पवित्र तथा गतिशील प्राणियो की उत्तम गति हैं। तेजों में अत्यन्त उग्र तेज और तपस्याओं में उत्कृष्ट तप हैं। गन्धर्वराज विश्वावसु, दैत्यराज हिरण्याक्ष और देवराज इन्द्र भी आपकी वन्दना करते हैं। सबको महान् कल्याण प्रदान करने वाले प्रभो! आप परम सत्य हैं। आपको नमस्कार है। विभो! जो जन्म-मरण से भयभीत हो संसारबन्धन से मुक्त होने के लिये प्रयत्न करते हैं, उन यतियों को निर्वाण (मोक्ष) प्रदान करने वाले आप ही हैं। आप ही सहस्त्रों किरणोंवाले सूर्य होकर तप रहे हैं। सुखके आश्रयरूप महेश्वर! आपको नमस्कार है। ब्रहा,विष्णु,इन्द्र,विश्वदेव तथा महर्षि भी आपको यथार्थरूप से नहीं जानते है। फिर हम कैसे जान सकते हैं। आपसे ही सबकी उत्पत्ति होती है तथा आपमें ही यह सारा जगत प्रतिष्ठित है। काल,पुरूष और ब्रह्मा-इन तीन नामोंद्वारा आप ही प्रतिपादित होते हैं। पुराणवेत्ता देवर्षियों ने आपके ये तीन रूप बताये हैं। अधिपौरूष, अध्यात्म, अधिभूत, अधिदैवत, अधिलोक, अधिविज्ञान और अधियज्ञ आप ही हैं। आप देवताओंके लिये भी दुजेय हैं। विद्वान् पुरूष आपको अपने ही शरीर में स्थित अन्तर्यामी आत्मा के रूप मे जानकार संसार-बन्धन से मुक्त हो रोग-शोक से रहित परमभाव को प्राप्त होते हैं। प्रभो! यदि आप स्वयं ही कृपा करके जीवका उद्धार करना न चाहें तो उसके बारंबार जन्म और मृत्यु होते रहते हैं। आप ही स्वर्ग और मोक्ष के द्वार हैं। आप ही उनकी प्राप्ति में बाधा डालने वाले हैं तथा आप ही ये दोनों वस्तुएं प्रदान करते हैं।  
  
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 15 श्लोक 1-10|अगला=महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 16 श्लोक 34-67}}
+
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 15 श्लोक 1-10|अगला=महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 16 श्लोक 21-39}}
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
<references/>
 
<references/>
 
==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
{{महाभारत}}
+
{{सम्पूर्ण महाभारत}}
[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत अनुशासनपर्व]]
+
[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत अनुशासन पर्व]]
 
__INDEX__
 
__INDEX__

०८:१७, २३ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

षोडश (16) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: षोडश अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद

उपमन्यु-श्रीकृष्ण-संवाद-महात्मा तण्डिद्वारा की गयी महादेवजी की स्तुति, प्रार्थना और उसका फल उपमन्यु कहते हैं-तात! सत्ययुग में तण्डि नाम से विख्यात एक ऋषि थे जिन्होंने भक्तिभाव से ध्यान के द्वारा दस हजार वर्षों तक महादेवजी की आराधना की थी। उन्हें जो फल प्राप्त हुआ था, उसे बता रहा हूं, सुनिये! उन्होंने महादेवजी का दर्शन किया और स्तोत्रों द्वारा उन प्रभु की स्तुति की। इस तरह तण्डिने तपस्यामें संलग्न होकर अविनाशि परमात्मा महामना शिवका चिन्तन करके अत्यन्त विस्मित हो इस प्रकार कहा था-’साख्यशास्त्र के विद्वान् पर, प्रधान, पुरूष, अधिष्ठाता और ईश्वर कहकर सदा जिनका गुणगान करते हैं, योगीजन जिनके चिन्तनमें लगे रहते हैं, विद्वान् पुरूष जिन्हें जगत् की उत्पति और विनाश का कारण समझते हैं, देवताओं, असुरों और मुनियों में भी जिनसे श्रेष्ठ दूसरा कोई नहीं है, उन अजन्मा, अनादि, अनन्त, अनघ और अत्यन्त सुखी, प्रभावशाली ईश्वर महादेवजी की मैं शरण लेता हूं’। इतना कहते ही तण्डिने उन तपोनिधि, अविकारी, अनुपम, अचिन्त्य, शाश्वत, धु्रव,निष्कल,सकल,निर्गुण एवं सगुण ब्रह्मा का दर्शन प्राप्त किया, जो योगियों के परमानन्द, अविनाशी एवं मोक्षस्वरूप हैं। वे ही मनु,इन्द्र,अग्नि,मरूद्गण,सम्पूर्ण विश्व तथा ब्रह्माजी की भी गति हैं। मन और इन्द्रियों के द्वारा उनका ग्रहण नहीं हो सकता। वे अग्राहय,अचल,शुद्ध,बुद्धि के द्वारा अनुभव करने योग्य तथा मनोमय हैं। उनका ज्ञान होन अत्यन्त कठिन है। वे अप्रमेय हैं। जिन्होंने अपने अन्तःकरण को पवित्र एवं वशीभूत नहीं किया है, उनके लिये वे सर्वथा दुर्लभ हैं। वे ही सम्पूर्ण जगत के कारण हैं। अज्ञानमय अन्धकार से अत्यन्त परे हैं। जो देवता अपने को प्राणवान-जीवस्वरूप बनाकर उसमें मनोमय ज्योति बनकर स्थित हुए थे, उन्हीं के दर्शन की अभिलाषासे तण्डि मुनि बहुत वर्षों तक उग्र तपस्या में लगे रहे। जब उनका दर्शन प्राप्त कर लिया तब उन मुनिश्वर ने जगदीश्वर शिव की इस प्रकार स्तुति की। तण्डिने कहा-सर्वश्रेष्ठ परमेश्वर! आप पवित्रों मे भी परम पवित्र तथा गतिशील प्राणियो की उत्तम गति हैं। तेजों में अत्यन्त उग्र तेज और तपस्याओं में उत्कृष्ट तप हैं। गन्धर्वराज विश्वावसु, दैत्यराज हिरण्याक्ष और देवराज इन्द्र भी आपकी वन्दना करते हैं। सबको महान् कल्याण प्रदान करने वाले प्रभो! आप परम सत्य हैं। आपको नमस्कार है। विभो! जो जन्म-मरण से भयभीत हो संसारबन्धन से मुक्त होने के लिये प्रयत्न करते हैं, उन यतियों को निर्वाण (मोक्ष) प्रदान करने वाले आप ही हैं। आप ही सहस्त्रों किरणोंवाले सूर्य होकर तप रहे हैं। सुखके आश्रयरूप महेश्वर! आपको नमस्कार है। ब्रहा,विष्णु,इन्द्र,विश्वदेव तथा महर्षि भी आपको यथार्थरूप से नहीं जानते है। फिर हम कैसे जान सकते हैं। आपसे ही सबकी उत्पत्ति होती है तथा आपमें ही यह सारा जगत प्रतिष्ठित है। काल,पुरूष और ब्रह्मा-इन तीन नामोंद्वारा आप ही प्रतिपादित होते हैं। पुराणवेत्ता देवर्षियों ने आपके ये तीन रूप बताये हैं। अधिपौरूष, अध्यात्म, अधिभूत, अधिदैवत, अधिलोक, अधिविज्ञान और अधियज्ञ आप ही हैं। आप देवताओंके लिये भी दुजेय हैं। विद्वान् पुरूष आपको अपने ही शरीर में स्थित अन्तर्यामी आत्मा के रूप मे जानकार संसार-बन्धन से मुक्त हो रोग-शोक से रहित परमभाव को प्राप्त होते हैं। प्रभो! यदि आप स्वयं ही कृपा करके जीवका उद्धार करना न चाहें तो उसके बारंबार जन्म और मृत्यु होते रहते हैं। आप ही स्वर्ग और मोक्ष के द्वार हैं। आप ही उनकी प्राप्ति में बाधा डालने वाले हैं तथा आप ही ये दोनों वस्तुएं प्रदान करते हैं।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।