"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 17 श्लोक 21-39" के अवतरणों में अंतर

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== सत्रहवां अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)==
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==सत्रहवां (17) अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)==
  
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासनपर्व: सत्रहवां अध्याय: श्लोक 35-54 का हिन्दी अनुवाद </div>
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासन पर्व: सत्रहवां अध्याय: श्लोक 21-39 का हिन्दी अनुवाद </div>
  
38 महारूपः- महान् रूपवाले, 39 महाकायः- विराप, 40 वृषरूपः- धर्मस्वरूप, 41 महायशा- महान् यशस्वी, 42 महात्मा-, 43 सर्वभूतात्मा- सम्पूर्ण भूतोंके आत्मा, 44 विश्वरूपः- सम्पूर्ण विश्व जिनका रूप है वे, 45 महाहनुः- विशाल ठोढ़ीवाले। 46 लोकपालः- लोकरक्षक, 47 अन्तर्हितात्मा- अदृश्य स्वरूपवाले, 48 प्रसादः- प्रसन्नतासे परिपूर्ण, 49 हयगर्दभिः- खच्चर जुते रथपर चलनेवाले, 50 पवित्रम्- शुद्ध वस्तुरूप, 51 महान्- पूजनीय, 52 नियमः- शौच- संतोष आदि नियमोंके पालनके प्राप्त होने योग्य, 53 नियमाश्रितः- नियमोंके आश्रयभूत।54 सर्वकर्मा- सारा जगत् जिनका कर्म है वे, 55 स्वयम्भूतः- नित्यसिद्ध, 56 आदिः- सबसे प्रथम, 57 आदिकरः- आदि पुरूष हिरण्यगर्भकी सृष्टि करनेवाले, 58 निधिः- अक्षय ऐश्वर्यके भण्डार, 59 सहस्त्राक्षः- सहस्त्रों नेत्रवाले, 60 विशालाक्षः- विशाल नेत्रवाले, 61 सोमः- चन्द्रस्वरूप, 62 नक्षत्रसाधकः- नक्षत्रोंके साधक। 63 चन्द्रः- चन्द्रमारूपमें आहादकारी, 64 सूर्यः- सबकी उत्पतिके हेतुभूत सूर्य, 65शनिः-, 66 केतुः-, 67 ग्रहः- चन्द्रमा और सूर्यपर ग्रहण लगानेवाला राहु, 68 ग्रहपतिः- ग्रहोंके पालक, 69 वरः- वरणीय, 70 अत्रिः- अत्रि ऋषिस्वरूप, 71 अत्रया नमस्कर्ता- अत्रिपत्नी अनसूयाको दुर्वासारूपसे नमस्कार करनेवाले, 72 मृगबाणार्पणः- मृगरूपधारी यज्ञपर बाण चलानेवाले, 73 अनघः- पापरहित।।38।।74 महातपाः- महान् तपस्वी, 75 घोरतपाः- भयंकर तपस्या करनेवाले, 76 अदीनः- उदार, 77 दीनसाधकः- शरणमें आये हुए दीन-दुखियोंका मनोरथ सिद्ध करनेवाले, 78 संवत्सरकरः-संवत्रका निर्माता, 79 मन्त्रः- प्रणव आदि मन्त्ररूप, 80 प्रमाणम्- प्रमाणस्वरूप, 81 परमं तपः- उत्कृष्ट तपः स्वरूप। 82 योगी- योगनिष्ठ, 83 योज्यः- मनोयोगके आश्रय, 84 महाबीजः- महान् कारणरूप, 85 महारेताः- महावीर्यशाली, 86 महाबलः- महान् शक्तिसे सम्पन्न, 87 सुवर्णरेताः-अग्निरूप, 88 सर्वज्ञः- सब कुछ जाननेवाले, 89 सुबीजः- उत्‍तम बीजरूप, 90 बीजवाहनः- जीवोंके संस्काररूप बीजको वहन करनेवाले। 91 दशबाहुः- दस भुजाओंसे युक्त, 92 अनिमिषः- कभी पलक न गिरानेवाले, 93 नीलकण्ठः- जगत कि रक्षाके लिये हालाहल विषका पान करके उसके नील चिहनको कण्ठमें धारण करनेवाले, 94 उमापतिः- गिरिराजकुमारी उमाके पतिदेव, 95 विश्वरूपः- जगत्स्वरूप, 96 स्वयं श्रेष्ठः- स्वतःसिद्ध श्रेष्ठतासे सम्पन्न, 97 बलवीरः- बलके द्वारा वीरता प्रकट करनेवाले, 98 अबलो गणः- निर्बल समुदायरूप। 99 गणकर्ता- अपने पार्षदगणोंका संघटन करनेवाले, 100 गणपितः- प्रथमगणोंके स्वामी,121 101 दिग्वासाः- दिगम्बर, 102 कामः- कमनीय, 103 मन्त्रवित्- मन्त्रवेता, 104 परमो मन्त्रः- उत्कृष्ट मन्त्ररूप, 105 सर्वभावकरः- समस्त पदार्थोंकी सृष्टि करनेवाले, 106 हरः- दुःख हरण करनेवाले। 107 कमण्डललुधरः- एक हाथमें कमण्डलु धारण करनेवाले, 108 धन्वी- दूसरे हाथमें धनुष धारण करनेवाले, 109 बाणहस्तः- तीसरे हाथमें बाण लिये रहनेवाले, 110 कपालवान्- चौथे हाथमें कपालधारी, 111 अशनी- पांचवें हाथमें वज्र धारण करनेवाले, 112शतध्नी- छठे हाथमें शतध्नी रखनेवाले, 113 खड्गी- सातवेमें खड्गधारी, 114 पटिटशि- आठवेमें पटिटश धारण करनेवाले, 115 आयुधी- नवे हाथमें अपने सामान्य आयुध त्रिशुलको लिये रहनेवाले, 116 महान्- सर्वश्रेष्ठ। 117 स्त्रुहस्तः- दसवे हाथमें स्त्रुवा धारण करनेवाले, 118 सुरूपः- सुन्दर रूपवाले, 119 तेजः- तेजस्वी, 120 तेजस्करो निधिः- भक्तोंके तेजकी वृद्धि करनेवाले निधिरूप, 121 उष्णीषी- सिरपर साफा धारण करनेवाले, 122 सुवस्त्रः- सुन्दर मुखवाले, 123 उदग्रः- ओजस्वी, 124 विनतः- विनयशील। 125 दीर्धः- उंचे कदवाले, 126 हरिकेषः- ब्रहा,विष्णु,महेशस्वरूप, 127 सुतीर्थः- उत्‍तम तीर्थस्वरूप, 128 कृष्णः- सच्चिदानन्दस्वरूप, 129 श्रृगालरूपः- सियारका रूप धारण करनेवाले, 130 सिद्धार्थः- जिनके सभी प्रयोजन सिद्ध हैं, 131 मुण्डः- मूंड मुड़ाये हुए, भिक्षुस्वरूप, 132 सर्वशुभंकरः- समस्त प्राणियोंका हित करनेवाले। 133 अजः- अजन्मा, 134 बहुरूपः- बहुतसे रूप धारण करनेवालेश135 गन्धधारीः- कुकुम और कस्तुरी आदि सुगन्धित पदार्थ धारण करनेवाले, 136 कपर्दी- जटाजूटधारी, 137 उध्र्वरेताः- अखण्डिता ब्रहाचर्यवाले, 138 उध्र्वलिंगः- 139 उध्र्वशायी- आकाशमें शयन करनेवाले, 140 नभःस्थलः- आकाश जिनका वासस्थान है वे। 141 त्रिजटी- तीन जटा धारण करनेवाले, 142 चीनवासाः- वल्कल वस्त्र पहननेवाले, 143 रूद्रः- दुःखको दूर भगानेवाले, 144 सेनापतिः- सेनानायक, 145 विभुः- सर्वव्यापी, 146 अहश्चरः- दिनमें विचरनेवाले, 147 नक्तंचरः- रातमें विचरनेवाले, 148 तिग्ममन्युः- तीखे का्रेधवाले, 149 सुवर्चसः- सुन्दर तेजवाले। 150 गजहा- गजरूपधारी महान् असुरको मारनेवाले, 151 दैत्यहा- अन्धक आदि दैत्योंका वध करनेवाले, 152 कालः- मृत्यु अथवा संवत्सर आदि समय, 153 लोकधाता- समस्त जगत का धारण-पोषण करनेवाले, 154 गुणाकारः- सद्गुणोंकी खान, 155 सिंहशार्दूलरूपः- सिंह-व्याघ्र आदिका रूप धारण करनेवाले, 156 आर्द्रचर्माम्बरावृतः- गजासुरके गीले चर्मको ही वस्त्र बनाकर उससे अपने-आपको आच्छादित करनेवाले। 157 कालयोगी- कालको भी योगबलसे जीतनेवाले, 158 महानादः- अनाहत ध्वनिरूप, 159 सर्वकामः- सम्पूर्ण कामनाओंसे सम्पन्न, 160 चतुष्पथः- जिनकी प्राप्तिके ज्ञानयोग,भक्तियोग, कर्मयोग और अष्टांगयोग-ये चार मार्गहै वे महादेव, 161 निशाचरः- रात्रिके समय विचरनेवाले, 162 प्रेतचारी-प्रेतोंके साथ विचरण करनेवाले, 163 भूतचारी-भूतोंके साथ विचरनेवाले, 164 महेश्वरः- इन्द्र आदि लोकेश्वरोंसे भी महान्।।
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ब्रह्मालोकसे यह स्तवराज स्वर्गलोकमें उतारा गया। पहले इसे तण्डिमुनिने प्राप्त किया था, इसलिये यह ‘तण्डिकृत सहस्त्रनामस्तवराज’ के रूपमें प्रसिद्ध हुआ।तण्डिने स्वर्गसे उसे इस भूतलपर उतारा था। यह सम्पूर्ण मंगलोंका भी मंगल तथा समस्त पापोंका नाश करनेवाला है। महाबाहो!सब स्तोत्रों में उत्‍तमइस सहस्त्रनामस्तोत्रका मैं आपसे वर्णन करूंगा। जो वेदोंके भी वेद, उतम वस्तुओंमें भी परम उत्‍तम, तेजके भी तेज, तपके भी तप, शान्त पुरूषोंमें भी परम शान्त, कान्तिकी भी कान्ति, जितेन्द्रियोंमें भी परम जितेन्द्रिय, बुद्धिमानोंकी भी बुद्धि, देवताओंके भी देवता, ऋषियोंके भी ऋषि, यज्ञोंके भी यज्ञ, कल्याणोंके भी कल्याण, रूद्रोंके भी रूद्र, प्रभावशाली ईश्वरोंकी भी प्रभा (ऐश्वर्य), योगियोंके भी योगी तथा कारणोंके भी कारण हैं। जिनसे सम्पूर्ण लोक उत्पन्न होते और फिर उन्हींमें विलीन हो जाते हैं, जो सम्‍पूर्ण भतोंके आत्मा हैं, उन्हीं अमित तेजस्वी भगवान् शिवके एक हजार आठ नामोंका वर्णन मुझसे सुनिये। पुरूषसिंह! उसका श्रवणमात्र करके आप अपनी सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लेंगे।
165 बहुभूतः- सृष्टिकालमें एकसे अनेक होनेवाले, 166 बहुधरः- बहुतोंको धारण करनेवाले, 167 स्वर्भानुः-, 168 अमितः- अनन्त, 169 गतिः-122 भक्तों और मुक्तात्माओंके प्राप्त होने योग्य, 170 नृत्यप्रियः-ताण्डव नृत्य जिन्हें प्रिय है वे शिव, 171 नित्यनर्तः- निरन्तर नृत्य करनेवाले, 172 नर्तकः-नाचने-नचानेवाले, 173 सर्वलालसः- सबपर प्रेम रखनेवाले। 174 घोरः-भयंकर रूपधारी, पाषः-अपनी मायारूपी पाशसे बांधनेवाले, 177 नित्यः- विनाशवासी, 178 गिरिरूहः- पर्वतपर आरूढ़-कैलाशवासी, 179 नभः- आकाशके समान असंग, 180 सहस्त्रहस्तः- हजारो हाथोवाले, 181 विजयः- विजेता, 182 व्यवसायः- दृढ़निश्चयी, 183 अतन्द्रितः-आलस्यरहित। 184 अधर्षणः- अजेय, 185 धर्षणात्मा- भयरूप, 186 यज्ञहा- दक्षके यज्ञका विध्वंस करनेवाले, 187 कामनाशकः- कामदेवको नष्ट करनेवाले, 188 दक्षयागापहारी- दक्षके यज्ञका अपहरण करनेवाले, 189-सुसहः- अति सहनशील, 190 मध्यमः- मध्यस्थ। 191 तेजोपहारी- दूसरोंके तेजको हर लेनेवाले, 192 बलहा- बलनामक दैत्यका वध करनेवाले, 193 मुद्रितः-आनन्दस्वरूप, 194 अर्थः- अर्थस्वरूप, 195 अजितः- अपराजित, 196 अवरः- जिनसे श्रेष्ठ दूसरा कोई नहीं है वे भगवान शिव, 197 गम्भीरघोषः- गम्भीर घोष करनेवाले, 198 गम्भीरः-गाम्भीर्ययुक्त, 199 गम्भीरबलवाहनः- अगाध बलशाली वृषभपर सवारी करनेवाले। 200 न्यग्रोधरूपः- वटवृक्षस्वरूप, 201 न्यग्रोधः- वटनिकटनिवासी, 202 वृक्षकर्णस्थितिः- वटवृक्षके पतेपर शयन करनेवाले बालमुकुन्दरूप, 203 विभुः- विविध रूपोसे प्रकट होनेवाले, 204 सुतीक्ष्णदशनः- अत्यन्त तीखे दांतवाले, 205 महाकायः- बड़े डीलडौलवाले, 206 महाननः- विशाल मुखवाले।
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1 स्थिरः- चंचलतारहित, कूटस्थ एवं नित्य, 2 स्थाणुः- गृहके आधारभूत खम्भके समान समस्त जगत के आधारस्तम्भ, 3 प्रभः- समर्थ ईश्वर, 4 भीमः- संहारकारी होनके कारण भयंकर, 5 प्रवरः- सर्वश्रेष्ठ, 6 वरदः- अभीष्ट वर देनेवाले, 7 वरः- वरण करने योग्य, वरस्वरूप, 8 सर्वात्मा- सबके आत्मा, 9 सर्वविख्यातः- सर्वत्र प्रसिद्ध, 10 सर्वः- विश्वात्मा होनेके कारण सर्वस्वरूप, 11 सर्वकारः- सम्पूर्ण जगत के स्त्रष्टा, 12 भवः- सबकी उत्पतिके स्थान।,13 जटी- जटाधारी, 14 चर्मी- व्याघ्रचर्म धारण करनेवाले, 15शिखण्डी- शिखाधारी, 16 सर्वांगः- सम्पूर्ण अंगोंसे सम्पन्न, 17 सर्वभावनः- सबके उत्पादक, 18 हरः- पापहारी, 19 हरिणाक्षः- मृगके समान विशाल नेत्रवाले, 20 सर्वभूतहरः- सम्पूर्ण भूतोंका संहार करनेवाले, 21 प्रभुः- स्वामी।।22 प्रवृतिः- प्रवृतिमार्ग, 23 निवृतिः- निवृतिमार्ग, 24 नियतः- नियमपरायण, 25 शाश्वतः- नित्य, 26 ध्रुवः- अचल, 27शशानवासी- शषानभूमिमें निवास करनेवाले, 28 भगवान्- सम्पूर्ण ऐश्वर्य, ज्ञान,यज्ञ,श्री,वैराग्य, और धर्मसे सम्पन्न,120, 29 खचरः-आकाशमें विचरनेवाले, 30 गोचरः- पृथ्वीपर विचरनेवाले, 31 अर्दनः- पापियोंको पीड़ा देनेवाले। 32 अभिवाद्यः- नमस्कारके योग्य, 33 महाकर्मा- महान् कर्म करनेवाले, 34 तपस्वी- तपस्यामें संलग्न, 35 भूतभावनः- संकल्पमात्रसे आकाश आदि भूतोंकी सृष्टि करनेवाले, 36 उन्मतवेशप्रच्छन्नः- उन्मत वेशमें छिपे रहनेवाले, 37 सर्वलोकप्रजापतिः- सम्पूर्ण लोकोंकी प्रजाओंके पालक। 38 महारूपः- महान् रूपवाले, 39 महाकायः- विराप, 40 वृषरूपः- धर्मस्वरूप, 41 महायशा- महान् यशस्वी, 42 महात्मा-, 43 सर्वभूतात्मा- सम्पूर्ण भूतोंके आत्मा, 44 विश्वरूपः- सम्पूर्ण विश्व जिनका रूप है वे, 45 महाहनुः- विशाल ठोढ़ीवाले। 46 लोकपालः- लोकरक्षक, 47 अन्तर्हितात्मा- अदृश्य स्वरूपवाले, 48 प्रसादः- प्रसन्नतासे परिपूर्ण, 49 हयगर्दभिः- खच्चर जुते रथपर चलनेवाले, 50 पवित्रम्- शुद्ध वस्तुरूप, 51 महान्- पूजनीय, 52 नियमः- शौच- संतोष आदि नियमोंके पालनके प्राप्त होने योग्य, 53 नियमाश्रितः- नियमोंके आश्रयभूत।54 सर्वकर्मा- सारा जगत् जिनका कर्म है वे, 55 स्वयम्भूतः- नित्यसिद्ध, 56 आदिः- सबसे प्रथम, 57 आदिकरः- आदि पुरूष हिरण्यगर्भकी सृष्टि करनेवाले, 58 निधिः- अक्षय ऐश्वर्यके भण्डार, 59 सहस्त्राक्षः- सहस्त्रों नेत्रवाले, 60 विशालाक्षः- विशाल नेत्रवाले, 61 सोमः- चन्द्रस्वरूप, 62 नक्षत्रसाधकः- नक्षत्रोंके साधक। 63 चन्द्रः- चन्द्रमारूपमें आहादकारी, 64 सूर्यः- सबकी उत्पतिके हेतुभूत सूर्य, 65शनिः-, 66 केतुः-, 67 ग्रहः- चन्द्रमा और सूर्यपर ग्रहण लगानेवाला राहु, 68 ग्रहपतिः- ग्रहोंके पालक, 69 वरः- वरणीय, 70 अत्रिः- अत्रि ऋषिस्वरूप, 71 अत्रया नमस्कर्ता- अत्रिपत्नी अनसूयाको दुर्वासारूपसे नमस्कार करनेवाले, 72 मृगबाणार्पणः- मृगरूपधारी यज्ञपर बाण चलानेवाले, 73 अनघः- पापरहित।।38।।74 महातपाः- महान् तपस्वी, 75 घोरतपाः- भयंकर तपस्या करनेवाले, 76 अदीनः- उदार, 77 दीनसाधकः- शरणमें आये हुए दीन-दुखियोंका मनोरथ सिद्ध करनेवाले, 78 संवत्सरकरः-संवत्रका निर्माता, 79 मन्त्रः- प्रणव आदि मन्त्ररूप, 80 प्रमाणम्- प्रमाणस्वरूप, 81 परमं तपः- उत्कृष्ट तपः स्वरूप।  
  
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 17 श्लोक 1-34|अगला=महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 17 श्लोक 55-74}}
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{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 17 श्लोक 1-20|अगला=महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 17 श्लोक 40-51}}
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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०९:२०, २३ जुलाई २०१५ का अवतरण

सत्रहवां (17) अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: सत्रहवां अध्याय: श्लोक 21-39 का हिन्दी अनुवाद

ब्रह्मालोकसे यह स्तवराज स्वर्गलोकमें उतारा गया। पहले इसे तण्डिमुनिने प्राप्त किया था, इसलिये यह ‘तण्डिकृत सहस्त्रनामस्तवराज’ के रूपमें प्रसिद्ध हुआ।तण्डिने स्वर्गसे उसे इस भूतलपर उतारा था। यह सम्पूर्ण मंगलोंका भी मंगल तथा समस्त पापोंका नाश करनेवाला है। महाबाहो!सब स्तोत्रों में उत्‍तमइस सहस्त्रनामस्तोत्रका मैं आपसे वर्णन करूंगा। जो वेदोंके भी वेद, उतम वस्तुओंमें भी परम उत्‍तम, तेजके भी तेज, तपके भी तप, शान्त पुरूषोंमें भी परम शान्त, कान्तिकी भी कान्ति, जितेन्द्रियोंमें भी परम जितेन्द्रिय, बुद्धिमानोंकी भी बुद्धि, देवताओंके भी देवता, ऋषियोंके भी ऋषि, यज्ञोंके भी यज्ञ, कल्याणोंके भी कल्याण, रूद्रोंके भी रूद्र, प्रभावशाली ईश्वरोंकी भी प्रभा (ऐश्वर्य), योगियोंके भी योगी तथा कारणोंके भी कारण हैं। जिनसे सम्पूर्ण लोक उत्पन्न होते और फिर उन्हींमें विलीन हो जाते हैं, जो सम्‍पूर्ण भतोंके आत्मा हैं, उन्हीं अमित तेजस्वी भगवान् शिवके एक हजार आठ नामोंका वर्णन मुझसे सुनिये। पुरूषसिंह! उसका श्रवणमात्र करके आप अपनी सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लेंगे। 1 स्थिरः- चंचलतारहित, कूटस्थ एवं नित्य, 2 स्थाणुः- गृहके आधारभूत खम्भके समान समस्त जगत के आधारस्तम्भ, 3 प्रभः- समर्थ ईश्वर, 4 भीमः- संहारकारी होनके कारण भयंकर, 5 प्रवरः- सर्वश्रेष्ठ, 6 वरदः- अभीष्ट वर देनेवाले, 7 वरः- वरण करने योग्य, वरस्वरूप, 8 सर्वात्मा- सबके आत्मा, 9 सर्वविख्यातः- सर्वत्र प्रसिद्ध, 10 सर्वः- विश्वात्मा होनेके कारण सर्वस्वरूप, 11 सर्वकारः- सम्पूर्ण जगत के स्त्रष्टा, 12 भवः- सबकी उत्पतिके स्थान।,13 जटी- जटाधारी, 14 चर्मी- व्याघ्रचर्म धारण करनेवाले, 15शिखण्डी- शिखाधारी, 16 सर्वांगः- सम्पूर्ण अंगोंसे सम्पन्न, 17 सर्वभावनः- सबके उत्पादक, 18 हरः- पापहारी, 19 हरिणाक्षः- मृगके समान विशाल नेत्रवाले, 20 सर्वभूतहरः- सम्पूर्ण भूतोंका संहार करनेवाले, 21 प्रभुः- स्वामी।।22 प्रवृतिः- प्रवृतिमार्ग, 23 निवृतिः- निवृतिमार्ग, 24 नियतः- नियमपरायण, 25 शाश्वतः- नित्य, 26 ध्रुवः- अचल, 27शशानवासी- शषानभूमिमें निवास करनेवाले, 28 भगवान्- सम्पूर्ण ऐश्वर्य, ज्ञान,यज्ञ,श्री,वैराग्य, और धर्मसे सम्पन्न,120, 29 खचरः-आकाशमें विचरनेवाले, 30 गोचरः- पृथ्वीपर विचरनेवाले, 31 अर्दनः- पापियोंको पीड़ा देनेवाले। 32 अभिवाद्यः- नमस्कारके योग्य, 33 महाकर्मा- महान् कर्म करनेवाले, 34 तपस्वी- तपस्यामें संलग्न, 35 भूतभावनः- संकल्पमात्रसे आकाश आदि भूतोंकी सृष्टि करनेवाले, 36 उन्मतवेशप्रच्छन्नः- उन्मत वेशमें छिपे रहनेवाले, 37 सर्वलोकप्रजापतिः- सम्पूर्ण लोकोंकी प्रजाओंके पालक। 38 महारूपः- महान् रूपवाले, 39 महाकायः- विराप, 40 वृषरूपः- धर्मस्वरूप, 41 महायशा- महान् यशस्वी, 42 महात्मा-, 43 सर्वभूतात्मा- सम्पूर्ण भूतोंके आत्मा, 44 विश्वरूपः- सम्पूर्ण विश्व जिनका रूप है वे, 45 महाहनुः- विशाल ठोढ़ीवाले। 46 लोकपालः- लोकरक्षक, 47 अन्तर्हितात्मा- अदृश्य स्वरूपवाले, 48 प्रसादः- प्रसन्नतासे परिपूर्ण, 49 हयगर्दभिः- खच्चर जुते रथपर चलनेवाले, 50 पवित्रम्- शुद्ध वस्तुरूप, 51 महान्- पूजनीय, 52 नियमः- शौच- संतोष आदि नियमोंके पालनके प्राप्त होने योग्य, 53 नियमाश्रितः- नियमोंके आश्रयभूत।54 सर्वकर्मा- सारा जगत् जिनका कर्म है वे, 55 स्वयम्भूतः- नित्यसिद्ध, 56 आदिः- सबसे प्रथम, 57 आदिकरः- आदि पुरूष हिरण्यगर्भकी सृष्टि करनेवाले, 58 निधिः- अक्षय ऐश्वर्यके भण्डार, 59 सहस्त्राक्षः- सहस्त्रों नेत्रवाले, 60 विशालाक्षः- विशाल नेत्रवाले, 61 सोमः- चन्द्रस्वरूप, 62 नक्षत्रसाधकः- नक्षत्रोंके साधक। 63 चन्द्रः- चन्द्रमारूपमें आहादकारी, 64 सूर्यः- सबकी उत्पतिके हेतुभूत सूर्य, 65शनिः-, 66 केतुः-, 67 ग्रहः- चन्द्रमा और सूर्यपर ग्रहण लगानेवाला राहु, 68 ग्रहपतिः- ग्रहोंके पालक, 69 वरः- वरणीय, 70 अत्रिः- अत्रि ऋषिस्वरूप, 71 अत्रया नमस्कर्ता- अत्रिपत्नी अनसूयाको दुर्वासारूपसे नमस्कार करनेवाले, 72 मृगबाणार्पणः- मृगरूपधारी यज्ञपर बाण चलानेवाले, 73 अनघः- पापरहित।।38।।74 महातपाः- महान् तपस्वी, 75 घोरतपाः- भयंकर तपस्या करनेवाले, 76 अदीनः- उदार, 77 दीनसाधकः- शरणमें आये हुए दीन-दुखियोंका मनोरथ सिद्ध करनेवाले, 78 संवत्सरकरः-संवत्रका निर्माता, 79 मन्त्रः- प्रणव आदि मन्त्ररूप, 80 प्रमाणम्- प्रमाणस्वरूप, 81 परमं तपः- उत्कृष्ट तपः स्वरूप।


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