"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 44 श्लोक 25-34" के अवतरणों में अंतर
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१३:३१, २० जुलाई २०१५ का अवतरण
चौवालीसवाँ अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
भारत! कन्या के भाई-बन्धु जिस कन्या को धर्मपूर्वक पाणिग्रहण विधि से दान कर देते हैं अथवा जिसे मूल्य लेकर दे डालते हैं, उस कन्या को धर्मपूर्वक विवाह करने वाला अथवा मूल्य देकर खरीदने वाला यदि अपने घर ले आये तो इसमें किसी प्रकार का दोष नहीं होता। भला उस दशा में दोष की प्राप्ति कैसे हो सकती है? कन्या के कुटुम्बीजनों की अनुमती मिलने पर वैवाहिक मन्त्र और होम का प्रयोग करना चाहिये, तभी वे मन्त्र सिद्ध (सफल) होते हैं, अर्थात वह मन्त्रों द्वारा विवाह किया हुआ माना जाता है। जिस कन्या का माता-पिता के द्वारा दान नहीं किया गया उसके लिये किये गये मन्त्र-प्रयोग किसी तरह सिद्ध नहीं होते, अर्थात वह विवाह मन्त्रों द्वारा किया हुआ नहीं माना जाता। पति और पत्नी में परस्पर मन्त्रोच्चारणपूर्वक जो प्रतिज्ञा होती है वही श्रेष्ठ मानी जाती है, और यदि उसके लिये बन्धु-बान्धवों का समर्थन प्राप्त हो तब तो और उत्तम बात है। धर्मशास्त्र की आज्ञा के अनुसार न्यायत: प्राप्त हुई पत्नी को पति अपने प्रारब्धकर्म के अनुसार मिली हुई भार्या समझता है। इस प्रकार प्रारब्धकर्म के अनुसार मिली हुई भार्या समझता है। इस प्रकार वह दैवयोग से प्राप्त हुई पत्नी को ग्रहण करता है तथा मनुष्यों की झूठी बात को, उस विवाह को अयोग्य बताने वाली वार्ता को अग्राहय कर देता है। चेतयोर्माता तत्सापिण्ड्यं निवर्तते।। अर्थात ‘यदि वर अथवा कन्या का पिता मूल पुरुष से सातवीं पीढ़ी में उत्पन्न हुआ है तथा माता पाँचवीं पीढ़ी में पैदा हुई है तो वर और कन्या के लिये सपिण्ड्य पाँच पीढ़ी तक। सात पीढ़ी में एक तो पिण्ड देने वाला होता है, तीन पिण्डभागी होते हैं और तीन लेपभागी होते हैं। युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! यदि एक वर से कन्या का विवाह पक्का करके उसका मूल्य ले लिया गया हो और पीछे उससे भी श्रेष्ठ धर्म, अर्थ और काम से सम्पन्न अत्यन्त योग्य वर मिल जाये तो पहले जिससे मूल्य लिया गया उससे झूठ बोलना-उसको कन्या देने से इंकार कर देना चाहिये या नहीं? इसमें दोनों दशाओं में दोष प्राप्त होता है- यदि बन्धुजनों की सम्मति से मूल्य लेकर निश्चित किये हुए विवाह को उलट दिया जाये तो वचन-भंग का दोष लगता है और श्रेष्ठ वर का उल्लघंन करने से कन्या के हित को हानि पहुँचाने का प्राप्त होता है। ऐसी दशा में कन्यादाता क्या करें; जिससे वह कल्याण का भागी हो? हम तो सम्पूर्ण धर्मों में इस कन्यादान रूप धर्म को हो अधिक चिन्तन अर्थात विचार के योग्य मानते हैं। हम इस विषय में यथार्थ तत्व को जानना चाहते हैं। आप हमारे पथ प्रदर्शक होइये। इन सब बातों को स्पष्ट रूप से बताइये। मैं आपकी बातें सुनने से तृप्त नहीं हो रहा हूँ। अत: आप इस विषय का प्रतिपादन कीजिये। भीष्मजी ने कहा- राजन! मूल्य दे देने से ही विवाह का अन्तिम निश्चय नहीं हो पाता (उसमें परिवर्तन की सम्भावना रहती ही है)। यह समझकर ही मूल्य देनेवाला मूल्य देता है और फिर उसे वापस नहीं माँगता। सज्जन पुरुष कभी-कभी मूल्य लेकर भी किसी विशेष कारणवश कन्यादान नहीं करतेहैं । कन्या के भाई-बन्धु किसी से मूल्य तभी माँगते हैं जब वह विपरीत गुण (अधिक अवस्था आदि)-से युक्त होता है। यदि वर को बुलाकर कहा जाये कि ‘तुम मेरी कन्या को आभूषण पहनाकर इसके साथ विवाह कर लो।' ऐसा कहने पर यह उसके लिए आभूषण देकर विवाह करे तो यह धर्मानुकूल ही है। क्योंकि इस प्रकार जो कन्या के लिये आभूषण लेकर कन्यादान किया जाता है, वह न तो मूल्य है और न विक्रय ही; इसलिये कन्या के लिये कोई वस्तु स्वीकार करके कन्या का दान करना सनातन धर्म है।' जो लोग भिन्न–भिन्न व्यक्तियों से कहते हैं कि ‘मैं आपको अपनी कन्या दूँगा।', जो कहते हैं ‘नहीं दूँगा’ और जो कहते हैं ‘अवश्य दूँगा’ उनकी ये सभी बातें कन्या देने के पहले नहीं कही हुई के ही तुल्य हैं। जब तक कन्या का पाणिग्रहण संस्कार होने के पहले तक वर और कन्या आपस में एक-दूसरे के लिये प्रार्थना कर सकते हैं। महर्षियों का मत है कि अयोग्य वर को कन्या नहीं देनी चाहिये, क्योंकि सुयोग्य पुरुष को कन्यादान करना ही काम-सम्बन्धी सुख और सुयोग्य संतान की उत्पत्ति का कारण है। ऐसा मेरा विचार है। कन्या के क्रय-विक्रय में बहुत-से दोष हैं। इस बात को तुम अधिक काल तक सोचने-विचारने के बाद स्वयं समझ लोगे। केवल मूल्य दे देने से विवाह का अन्तिम निश्चय नहीं हो जाता है। पहले भी कभी ऐसा नहीं हुआ था, इस विषय में तुम सुनो। मैं विचित्रवीर्य के विवाह के लिये मगध, काशी तथा कौशल देश के समस्त वीरों को पराजित करके काशिराज की दो* कन्याओं को हर लाया था। उनमें से एक कन्या अम्बा अपना हाथ शाल्वराज के हाथ में दे चुकी थी; अर्थात मन-ही-मन उसको अपना पति मान चुकी थी। दूसरी (दो कन्याओं)का काशिराज को शुल्क प्राप्त हो गया था। इसलिये मेरे पिता (चाचा)कुरुवंशी बाहलीक ने वहीं कहा कि ‘जो कन्या पाणिगृहीत हो चुकी है उसका त्याग कर दो और दूसरी कन्या का (जिनके लिये शुल्कमात्र लिया गया है) विवाह करो।' मुझे चाचाजी के इस कथन पर संदेह था, इसलिये मैंने दूसरों से भी इसके विषय में पूछा। परंतु इस विषय में मेरे चाचाजी की बहुत प्रबल इच्छा थी कि धर्म का पालन हो (अत: वे पाणिगृहिता कन्याके त्यागपर अधिक जोर दे रहे थे)। राजन! तदनन्तर मैं आचार जानने की इच्छा से बोला-‘पिताजी ! मैं इस विषय में यह ठीक-ठीक जानना चाहता हूँ कि परम्परागत आचार क्या है?’
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